काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

महेन्द्र पाण्डेय

कोरोना महामारी के कारण आधे से अधिक विश्व में बन्दी/स्थिरता का दौर चल रहा है। और भारत भी इससे अछूता नहीं है। हमने इस बन्दी का नाम “लॉकडाउन” रखा है। भारत में यह बन्दी 21 मार्च को “जनता कर्फ्यू” जैसे खूबसूरत लोकतांत्रिक नाम और क्रियाविधि से प्रारम्भ हुई थी और अभी तक जारी है। ट्रेन और विमानों समेत सार्वजनिक परिवहन बन्द हैं। बन्दी के इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में शिक्षण संस्थान भी बन्द चल रहे हैं।

भारत में उपस्थित अनेक महान और श्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में से एक संस्थान बी एच यू भी है। हम बी एच यू के लोग वास्तविकता को रेखांकित करते हुए इसको “संस्थानों का संस्थान” कहते हैं। आज यहां बी एच यू की शैक्षणिक उच्चता का गान करने का कोई उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य है,बन्दी के इस निर्वात वातावरण में अपने विद्यार्थियों के लिए बीएचयू के करुण स्वरों का गान करना।

मै अनुभव करता हूं कि बी एच यू और इसके विद्यार्थियों के सम्बन्ध अन्य किसी भी संस्थानों और उनके विद्यार्थियों के सम्बन्धों से बहुत अलग हैं। बी एच यू मानवीय सम्बन्धों के व्यापारिक स्वरूपों के इस आधुनिक दौर में भी अपने विद्यार्थियों को आत्मीयता का भाव प्रदान करता है। तभी तो इसे “लाखों का सपना–हजारों का घर” कहा जाता है। यहां आकर विद्यार्थी दूसरा जन्म पाते हैं। दूसरे जन्म के साथ साथ दूसरे माता पिता भी यहां प्राप्त होते हैं। विद्यार्थी गर्व से कहते और इसे अपनी पहचान बनाते नहीं थकते हैं कि “बी एच यू हमारी मां है और महामना हमारे मानस पिता हैं।”

21 मार्च को जनता कर्फ्यू के कुछ दिन पहले ही यहां रह रहे महामना के हजारों मानस पुत्रों को बी एच यू प्रशासन द्वारा नोटिस जारी करके घर जाने को कह दिया गया। आगामी अनिश्चित दशाओं को देखते हुए हजारों की संख्या में विद्यार्थी बी एच यू छोड़कर अपने अपने सुरक्षित आवासों/घरों पर चले गए। अब महीने भर से अधिक समय हो गया, जब बी एच यू यहां वीरान पड़ा अपने पुत्रों (विद्यार्थियों) को पुकार रहा है,,,, प्रशासन तो बहरा है और निष्ठुर भी इसलिए बी एच यू की पुकार मात्र उसके विद्यार्थियों को ही सुनाई देती है। यह मेरा प्रबल सौभाग्य है कि इस लॉकडाउन में मै अपनी माता बी एच यू के साथ ही लॉक हूं और अकेले ही हजारों विद्यार्थियों का ममत्व प्राप्त कर रहा हूं। पर बी एच यू तो ममत्व की खान है। अतः यह मात्र मुझ और मुझ जैसे कुछ ही सौभाग्यशाली पुत्रों को अपना ममता देकर संतुष्ट नहीं है।
विडम्बना यह है कि जब यहां सभी संस्थान, संकाय और विभाग बन्द हैं तो बी एच यू की अपने मानस पुत्रों के लिए निकल रही करुण पुकार अभिव्यक्त कैसे हो ? उधर मधुबन बन्द है, जहां विद्यार्थी युगलों के खिले चेहरे इस पुकार को अभिव्यक्ति देते। संगीत एवं मंच कला संकाय भी बन्द है, अन्यथा नृत्य/वाद्य/संगीत आदि के द्वारा ही बी एच यू अपने विद्यार्थियों को पुकारता,उन्हें सन्देश भेजता कि –
“आओ बच्चो मै तुम्हें बुलाता,
तुमसे है मेरा गहरा नाता।
मै ही पिता मै ही माता,
मै ही भगिनी मै ही भ्राता।
देखो यहां फैला सन्नाटा,
तुम्हारे बिना मै अकुलाता।।”

BHU परिसर

उधर जहां महादेवी वर्मा से लेकर हरिवंश राय बच्चन की कविताएं गूंजती थीं, वह हिंदी विभाग भी बन्द है, अन्यथा बी एच यू की तरफ़ से यहीं से कोई गीत उठता और विद्यार्थियों के हृदयों को द्रवित कर उन्हें बुला लाता,,,,इसी प्रकार यहां अभिव्यक्ति के वे सभी मंच और माध्यम पूर्णतः तालाबंदी के शिकार हैं, जिनसे अभी तक बी एच यू पूरे देश–विदेश में अपनी बातें कहता आया है। आखिर कोई तो बी एच यू की इस मजबूरी को समझे। यहां क्लासें खाली पड़ी हैं, किसी को भी 85 प्रतिशत अनिवार्य उपस्थिति की कोई चिंता नहीं है। क्लास में उपस्थित कुर्सियां खिड़कियों से कहती हैं कि जरा बाहर की दशा देखो और बताओ कि विद्यार्थी कब आएंगे और मुझ पर बैठकर ज्ञान की साधना करेंगे। बी एच यू में उपस्थित अनेक वृक्ष, लताएं और घास बी एच यू के इस असहनीय दर्द को सुनते सुनते थक गए हैं और अब खुद ही संदेशवाहक बनकर मोर्चा सम्भाल रहे हैं। इसके लिए वृक्षों ने आम और बेल के पेड़ो को अपना प्रतिनिधि बनाया है। आम के पेड़ों ने अपने फलों को नीचे झुका दिया है और चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हैं कि आओ महामना के मानस पुत्रों! प्रत्येक वर्षों की भांति ये आम खाओ। उधर बेल के पेड़ो ने अपने फलों का रंग पीला कर दिया है, उन्हें पका दिया है और प्रतीक्षा में है कि कब विद्यार्थी आएं और उसके फलों का सेवन करें। मैदानों की घासों ने अपने हरे रंग को और निखार लिया है और रोज़ प्रातः ओस की बूंदों और सूर्य किरणों की लालिमा के साथ अपने विद्यार्थियों की प्रतीक्षा करती हैं। बेचारी घासें मैदानों की बाउंड्री के बाहर झांकने का असफल प्रयास करती हैं कि कब आएंगे विद्यार्थी?

इधर बी एच यू परिसर की सड़कें सूनसान हो गई हैं लेकिन फिर भी रोज प्रातः स्वयं को स्वच्छ करवाना नहीं भूलती हैं। सफाई कर्मियों की मदद से हर रोज सड़के खुद को उत्तम रूप में तैयार करती हैं। ये सड़कें अपने विद्यार्थियों को सबसे ज्यादा पहचानती हैं अतः सदैव उनके स्वागत में तैयार हो प्रस्तुत हैं किन्तु इनकी आकांक्षा हर रोज अपूरित ही रह जाती है। सड़कों के दोनों ओर उपस्थित गुलमोहर के पेड़ों ने अभी भी आशा नहीं त्यागी है और हर रोज पूरी सामर्थ्य से अपने विद्यार्थियों के स्वागत के लिए लाल-लाल सुंदर फूल खिला रहे है। गुलमोहर के सुंदर पुष्पगुच्छ मनोरम दृश्य उपस्थित करते हुए सवाल पूछते हैं, हे विद्यार्थियों! आखिर कब आओगे ?

इन दिनों बी एच यू में छात्रावास भी वीरान पड़े हैं। छात्रावासों की मौन वेदना बारम्बार उद्देलित करती है कि कहां हैं मेरे अतः निवासी! मेरे अपने! जिनका मै अस्थाई किन्तु सर्वाधिक प्रिय घर हूं। छात्रावासों में उपस्थित सैकड़ों निवास – कक्षों को बन्द और वीरान देखकर ऐसा लगता है मानो सभी ने सामूहिक तौर पर मौन, अहिंसक आंदोलन और भूख हड़ताल कर रखी है। अब ये कक्ष तभी प्रसन्न और गुलज़ार होंगें, जब विद्यार्थी आकर ताला खोलेंगे और स्नेह भरी दृष्टि से निहारेंगे। एक दिन ब्रोचा छात्रावास के बाह्य मौन ने मुझे आकर्षित किया और उसकी आत्मीय पुकार का अनुसरण करते हुए मैं अन्दर चला गया, वहां घूमते हुए द्वितीय तल पर जा पहुंचा और फिर अकेले घूमते घूमते वहां खो गया। ऐसा लग रहा था जैसे ब्रोचा छात्रावास सैकड़ों विद्यार्थियों का स्नेह मुझे अकेले देना चाहता था और नहीं चाहता था कि मै उसे छोड़कर जाऊं। अंततः वहां के कर्मचारियों से बाहर का रास्ता पूछकर मै बाहर आया।

बी एच यू परिसर में अनेक जलपान स्थल/कैंटीन/कैफे हैं, जो विद्यार्थियों को सर्वाधिक लुभाते हैं। इन दिनों वे सभी भी बन्द हैं, किन्तु फिर भी वहां विद्यार्थियों की घमासान वार्तालाप एवं संवादों की ऊर्जा का कम्पन अनुभव किया जा सकता है। श्रीवास्तव की कैंटीन भी बन्द है, किन्तु वहां उजड़े विहार के बावजूद शाम–सुबह कुछ एक विद्यार्थी युगल (परी-परा) अपनी पूर्व की यादें ताजा करते हुए देखे जा सकते हैं।

विश्वनाथ टेंपल (VT) और वहां का परिसर तो जैसे विद्यार्थियों की राह निहारते निहारते थक कर आंखे ही बन्द कर ली हैं। कितने दिन बीत गए मुस्कुराते चेहरों को कोल्ड काफी के साथ देखे हुए, धर्म-साहित्य-दर्शन-देश और दुनिया की चर्चा सुने हुए ? अब तो वहां प्रातः काल वैदिक ऋचाएं भी नहीं गूंजती। शिव स्तुति भी नहीं सुनाई देती। शाम की आरती के घंटे और डमरू सुने तो लगता है महीनों बीत गए। विश्वनाथ मंदिर चुपचाप आरती पाकर विद्यार्थियों की अनुपस्थिति का शोक मनाता प्रतीत होता है।

उधर सामने केंद्रीय पुस्तकालय और साइबर लाइब्रेरी भी मानो चीत्कार कर रहे हैं कि बुलाओ हमारे अध्येयता विद्यार्थियों को! कहां हैं सब ? आखिर इतने दिनों तक मुझे अकेले कैसे छोड़ सकते हैं ? क्या उन्हें अब विद्यार्थी कहलाना अच्छा नहीं लगता ? सेमेस्टर ब्रेक होने और ग्रीष्मकालीन अवकाश के बावजूद वे मेरा त्याग नहीं करते थे, आखिर कोई तो बताए, कहां गए मेरे विद्यार्थी ? पुस्तकालय परिसर भी वीरान पड़े हैं। वहां विद्यार्थी समूहों को देखे कितने दिन बीत गए,,,,,
गाथा अकथनीय है बी एच यू के वेदना की। बस सार यही है कि बी एच यू पुकार रहा है,,,, कहां चले गए उसके हंसते मुस्कराते, विमर्शों में दहाड़ते अपने विद्यार्थियों के चेहरे!

(लेखक बीएचयू में शोध छात्र हैं और यह उनका निजी विचार है)