महेंद्र पाण्डेय
दुनिया का वर्तमान काल एक विशिष्ट और अनूठा काल है। दुनिया का ऐसा दौर पहली बार है, जब सूचनाओं के अपार भंडार के साथ अपरिमित बाजार हमारे चारो ओर सहज उपलब्धता की स्थिति में विराजमान हों और संचार का गहन जाल वैश्विक अवतार लेकर सभी के लिए प्रमुख साधन के रूप में उपयोग आ रहा हो। यह विश्व की अतुलनीय घटना है, क्योंकि ऐसा पहले कभी संभव नहीं हुआ था। आज का विश्व अनगिनत साध्य के लिए अनगिनत साधनों में साथ गतिमान हो रहा है। सरल रूप में कहें तो कह सकते हैं कि साधनों की भरमार है।
आज के विश्व को विशिष्ट और अनूठा बनाने का सबसे बड़ा श्रेय सूचना क्रांति को है। इस सूचना क्रांति को सर्वाधिक प्रबलता सोशल मीडिया के तमाम मंचो ने प्रदान की है। सोशल मीडिया ने लोगों को बड़ी ही सरलता से एक दूसरे के अतिशय करीब लाकर खड़ा कर दिया है, जहां संचार निर्बाध गति से शून्य से असीम तक उपलब्ध होता है। सोशल मीडिया द्वारा संपन्न हो सकने वाले निर्बाध संचार ने लोगों के बीच उपस्थित अनेक दीवारों को ध्वस्त कर दिया है और एक दीवार/बन्धन विहीन दशा में सभी को संयुक्त कर उन्मुक्त कर दिया है।
सूचना क्रांति के उत्पाद स्वरूप विभिन्न मंचों द्वारा उपलब्ध होने वाले निर्बाध संचार ने सामाजिक जगत का एक बहुत बड़ा कल्याण किया है और उसमें प्राप्त की जा सकने वाली अनेक संभावनाओं को भी उपस्थित किया है। सामाजिक जगत का सबसे बड़ा कल्याण सामाजिक क्रियाओं में निहित है। हम सभी जानते हैं कि समाज और हमारी इस सामाजिक दुनिया का अस्तित्व हमारे परस्पर सामाजिक सम्बन्धों पर ही आश्रित है। इन सामाजिक सम्बन्धों का एक मात्र आधार सामाजिक क्रियाएं ही हैं। जब एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति से मिलता है और परस्पर सामाजिक संबंध स्थापित करता है तो वहां एक सामाजिक दुनिया का सृजन होता है। जब दो या दो से अधिक लोग आपस में मिलते हैं, परस्पर सामाजिक क्रियाएं करते हैं तो उन सतत सामाजिक क्रियाओं से उपजे अनुभव के आधार पर अनेक मूल्य, व्यवहार प्रणालियां एवं व्यवस्थाओं का जन्म होता है। इसे हम सामाजिक क्रियाओं का संस्थाकरण कह सकते हैं। सामाजिक क्रियाओं के संस्थाकरण के समुच्चय से ही एक वृहत व्यवस्था का निर्माण होता है, जिसके अंदर अनेक उपव्यवस्थाएं कार्यरत रहती हैं।
यह व्यवस्था निरंतर सृजनशील रहती है, गतिशील रहती है। इसमें निरन्तर परिशोधन होता रहता है। व्यवस्था में सतत चलते रहने वाले परिशोधन एवं सुधार सामाजिक विमर्श पर आश्रित रहते हैं। व्यवस्था के अनेक भागों, प्रतिभागों, अंगो, तत्वों एवं विषयों पर निरंतर विमर्श एवं व्यवहार जारी रहते हैं, जो संस्थाकरण की प्रक्रिया द्वारा परिवर्तनशीलता का पहिया गतिमान बनाए रखते हैं। जिससे व्यवस्था के पुराने स्वरूप लुप्त होते जाते हैं और व्यवहारों के संस्थाकरण से उपजे नए स्वरूप उनका स्थान प्राप्त करते हैं। यह निरंतरता तभी निर्बाध और स्वस्थ्य रहती है, जब विमर्श स्वस्थ एवं व्यापक हो।
भूतकाल(सूचना क्रांति से पहले) की दुनिया में स्थिरता अधिक थी। व्यवस्था अधिक टिकाऊ रहती थी। परिवर्तन जटिल थे। क्योंकि तब विमर्श और सामाजिक क्रियाओं की आवृत्ति भी अपेक्षाकृत अधिक धीमी थी। सूचना और संचार की व्यवस्थाएं कमजोर होने के कारण विमर्श में जनसामान्य की भागीदारी भी नगण्य ही रहती थी। किन्तु अब जब हम संचार के अपरिमित साधनों से लैश है, तब इसी के सापेक्ष हम सामाजिक क्रियाओं की आवृत्ति भी में भी वृद्धि और गतिशीलता हासिल कर चुके हैं। अब निर्मित व्यवस्था अपेक्षाकृत अधिक परिवर्तनशील है।
किन्तु आज जब हम निर्बाध संचार के लिए पर्याप्त साधनों का सर्वव्यापी प्रयोग कर सकने में सक्षम हुए हैं, तब विमर्श पंगु हो चुका है। हम विमर्श के स्वरूप को सार्वभौमिक विस्तार करने में तो सक्षम हो गए हैं किन्तु उसे एक निश्चित परिणाम तक ले जाने में उतने ही अक्षम और निकृष्ट साबित हो रहे हैं। संचार के सार्वजनिक एवं सार्वभौमिक माध्यमों(सोशल मीडिया आदि) के प्रयोग में हम अव्वल तो बन रहें हैं, इन साधनों के माध्यम से अनेक विषयों को विमर्श के केंद्र में लाने में सक्षम भी हो रहे हैं, विमर्श के केंद्र में लाए विषय को सार्वभौमिक रूप भी प्रदान कर पा रहे हैं, किन्तु सीमाएं इसी बात की हैं कि हम उस विमर्श में अंतिम निर्णय नहीं दे पा रहे हैं। अतः आज लगभग प्रत्येक विमर्श अनिश्चितता के अधकचरे कक्ष में बन्द होकर रह जा रहा है। इस अधकचरे विमर्श से व्यवस्था में परिवर्तन का अधकचरा स्वरूप ही हावी होता चला जाता है, जो कि आज सामाजिक पतन का विकराल श्राप बन रहा है। निश्चय ही इस दशा में हम आत्मघात की स्थिति में जी रहे हैं।
विमर्श की इस दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है बौद्घिक पलायनवादिता। हम किसी भी विषय पर उसके अंतिम छोर तक जाने के लिए कभी भी तैयार नहीं होते हैं क्योंकि उसके अंत में उसकी वास्तविकता हमारी प्रतीक्षा करती है और हम उसकी वास्तविकता का साक्षात्कार करने से डरते हुए पलायन करना उचित समझते हैं। किसी भी विषय के अंतिम छोर तक जाने से प्राप्त उसकी वास्तविकता हमारे बौद्घिक प्रपंच की कलाई खोल सकती है और हमें झूठा साबित कर सकती है। अतः हम डरकर पलायन का रास्ता चुनते हैं और अपने तथाकथित बौद्घिक दंभ को बचाने में कामयाब हो जाते हैं। यहां हमारा झूठ तो बच जाता है, हम वास्तविकता का सामना करने से भी बच जाते हैं किन्तु सबसे बड़ी हानि विमर्श को झेलनी पड़ती है।
यहां हमने अपने बौद्घिक भ्रम के अहम को बचाए रखने के लिए एक नया रास्ता भी तलाश कर चुके हैं। यह रास्ता बड़ी ही चालाकी से कई झूठों की एक साथ रक्षा करने में कामयाब हो जाता है। यह रास्ता सत्य के सापेक्षिक होने के तर्क पर खड़ा एक यथास्थितिवाद का रास्ता है। इसका मानना है कि किसी एक विषय पर एक ही परिस्थिति में एक साथ दो विपरीत मत अस्तित्व में निर्णय के रूप में रह सकते हैं। इस रास्ते में दो झूठे बड़ी ही चालाकी से अपने अपने झूठ को सत्य का जामा पहनाने की हवाई दशा में स्थित रह सकते हैं। और तो और इस अनिश्चितता की वैधानिकता को लोकतंत्र का रक्षक मूल्य तक मान लिया जाता है। यह विषय सम्बन्धी अनिश्चितता उसके विमर्श को पंगु बना कर छोड़ देती है और विमर्श अपने निर्णय को कभी प्राप्त नहीं कर पाता है।
इसीलिए विमर्श के उत्तम स्वास्थ्य हेतु संचार क्रांति के अनुचरों को आवश्यक है कि वे बौद्घिक क्षत्रित्व को धारण करें। पलायनवादिता से बचते हुए किसी भी विषय पर जारी विमर्श में संलग्न होते हुए उसे उसके अंतिम छोर तक ले जाने में सक्षम बनें। यदि कोई भी व्यक्ति विमर्श में संलग्न होता है तो वह उसके अंतिम निर्णय तक वहां डटा रहे, भागे नहीं। विमर्श का निर्णय या तो उसकी बौद्घिक विजय का पर्याय बनेगा या फिर उसे पराजय का मुंह दिखाएगा।
बौद्घिक क्षत्रित्व धारण करने पर विमर्श के मैदान में उतरा हुआ बौद्घिक योद्धा न तो पीठ दिखाएगा और न ही मैदान से पलायन करेगा बल्कि वह अपनी बौद्घिक शक्ति रहने तक विमर्श में संलग्न रहेगा और अंततः या तो वह अपनी बौद्घिक विजय के साथ विमर्श में अंतिम निर्णय का अंग बनेगा या फिर बौद्घिक वीरगति को प्राप्त करेगा।
पलायन का रास्ता न चुनने के कारण उसकी बौद्घिक वीरगति भी सम्मान और प्रणाम का पात्र बनेगी।
(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं और यह उनके निजी विचार है।)