अभिजीत सिंह

भारत में ‘श्रीकृष्ण’ के बाद अगर कोई पूर्ण व्यक्तित्व ऐसा हुआ है, जिसे पूर्ण चंद्र माना जा सकता तो निःसंदेह यह स्थान पिता दशमेश ‘गुरु गोविंद सिंह जी’ को प्राप्त है।

आर्य समाज के साथ सिखों का एक बड़ा वर्ग मतभेद रखता है पर एक आर्यसमाजी लाला दौलतराय जी ने ही गुरु गोविंद सिंह के बारे में अपनी पुस्तक में कहा था-

“मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद,स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंद सिंह में मिलते हैं।”

लाला दौलतराय ऐसा इसलिए कह रहे थे कि ऐसा कोई भी एक सदगुण नहीं है जिसे आप पिता दशमेश में न पायें। चन्द्र की कलाओं की तरह उनकी कलाएं भी अद्वितीय है जो किसी एक व्यक्तित्व में होने की कोई कल्पना ही नहीं कर सकता।

गुरु गोविंद सिंह जी एक रणंजय- किसने सोचा था कि रक़ाब बजाने वाली टोली कभी ऐसे सिंहों में बदल जायेगी जो मुग़ल दरबार की नींद उड़ा दे और भक्ति और शक्ति का अद्भुत साहचर्य दुनिया एकसाथ देख सकेगी? ये चमत्कार किया था पिता दशमेश ने जब 1699 में उन्होंने “ख़ालसा” सजाई थी।

गुरु गोविंद सिंह जी नारी सम्मान के आग्रही- गुरु गोविंद सिंह नारी समानता के अपने समय के सबसे बड़े आग्रही थे, स्त्री एक साथ रणचंडी और समाज तथा परिवार की प्रबोधिका बन सकती है, इसे पिता दशमेश ने सिद्ध किया था। पर्दा प्रथा को वाहियात बताकर पंजाब में नारी स्वातंत्र्य की आधारशिला उन्होंने तब रखी थी जब मुगल अधीनता में नारी ने खुद को परदे में जकड लिया था। नारी स्वावलंबन की जो नींव उन्होंने रखी थी,उसी के नतीजे में आज पंजाब की महिलायें समाज जीवन के हर एक क्षेत्र में उपस्थित दिखाई देतीं हैं जिनपर कभी पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता था।

गुरु गोविंद सिंह जी एक कुशल सम्पादक-विशाल गुरुग्रंथ साहिब जी की पवित्र वाणी जिसे पंचम गुरु ने संकलित किया था, के सम्पादन का दुरूह कार्य पिता दशमेश के संरक्षण, निर्देशन और निरीक्षण में संपन्न हुआ था। ध्यानस्थ गुरु गोविंद के मुख से पवित्र बाणियों की सरिता झरती थी जिसे भाई मनी सिंह जी लेखनीबद्ध कर लेते थे।

गुरु गोविंद सिंह जी एक धर्म रक्षक- हिन्दू मान्यताओं के अनुसार ईश अवतरण का मुख्य उद्देश्य था गौ और धर्म के अनुपालकों को अभय देना। पिता दशमेश ने कभी स्वयं को अवतार नहीं कहा पर अवतारों के लिए निर्दिष्ट कर्मों का अनुपालन हमेशा करते रहे और “गो-घात का पाप मिटाऊं” कहकर उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि उनका प्राकट्य उसी उद्देश्य के लिए है जिसके लिए भारत-भूमि अवतारों को पाकर गौरवान्वित होती है।

गुरु गोविंद सिंह जी एक संस्कृति रक्षक- बहुत कम लोगों को पता है है कि पिता दशमेश ने खालसा के साथ-साथ अपने सिखों में से “निर्मले” भी सजाये थे ताकि उनके “सिंह” संस्कृत सीख सकें, ताकि उनके सिख संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद पंजाब की स्थानिक भाषा में करके उसे जन-सामान्य के लिए सुलभ बना सकें, ताकि कोई उनकी ख़ालसा को या उन्हें इस देश की मूल-सांस्कृतिक धारा से अलग समझने की गलती न कर बैठे।

गुरु गोविंद सिंह जी एक निर्भीक शांतिदूत – श्रीकृष्ण जानते थे कि दुर्योधन और उसकी सभा कभी किसी शांति प्रस्ताव पर विचार नहीं करेगी पर इसके बाबजूद उन्होंने उन्हें युद्ध पूर्व एक शांति प्रस्ताव देना उचित समझा और उनकी ही सभा में जाकर बड़ी निर्भीकता से अपनी बात रखी। शांतिदूत का यही रूप गुरु गोविंद सिंह में भी दिखा था, जब उन्होंने औरंगजेब को जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को “शांति-प्रस्ताव” देते हुए चेतावनी दी कि “तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।”

कहा जाता है कि उनका पत्र पढ़कर औरंगजेब बीमार पड़ गया था।

गुरु गोविंद सिंह जी एक महान गुरु – एक के बाद एक अपने गुरुओं और श्रद्धा-पुरुषों को खो चुका सिख समाज अनाथ और असहाय महसूस कर रहा था, लग रहा था कि मुगल सिखी के अस्तित्व को समाप्त ही कर देंगे, ऐसे में गुरु गोविंद राय ने केवल 9 साल की अल्पायु में गुरु का अति गुरुत्तर दायित्व संभाला और गुरुगद्दी की मर्यादा का ऐसा पालन किया जिसे लिखने में शब्द और भाषा अपना सामर्थ्य खो देती है और उसके बाद से लगातार-लगातार अपने पंथ का प्रबोधन किया और अपने बाद गुरु-गद्दी उन्हें सौंप गये जिसका हरेक पृष्ठ भक्ति की अमृत-वृष्टि कराता है।

गुरु गोविंद सिंह जी एक कुशल प्रबोधक – अहिंसा का आग्रह-व्रत ले चुके एक संत “माधो दास को धर्म-हिंसा का पाठ पढ़ाकर तैयार करने वाले गुरु गोविंद एक कुशल प्रबोधक भी थे, जिसने संत माधोदास को ‘शत्रुघ्न’ बंदा सिंह बहादुर बना दिया, जिसके प्रताप ने श्रीनगर से सहारनपुर तक के हिन्दू समाज को अभय की क्षत्र-छाया प्रदान की थी।”

गुरु गोविंद सिंह जी एक समाज सुधारक- एक समय में समाज की धारणा बन गई थी कि राष्ट्र और समाज रक्षण का उत्तरदायित्व केवल और केवल एक जाति का कर्तव्य है, इसलिए जब उन्होंने खालसा सजाई तो उसमें समाज के हरेक वर्ग का प्रतिनिधित्व था, उनके समाज सुधार के क्रांतिकारी प्रयास ने हिन्दू शक्ति को बहु-गुणित तो किया ही साथ ही समाज को एक अभिनव मंत्र दिया कि राष्ट्र और धर्म की रक्षा हरेक की जिम्मेदारी है। अपने गुरुओं के सिखाए संगत-पंगत को भावधारा को उन्होंने बहुत विस्तार दे दिया, जिसने समाज में फैली अस्पृश्यता की तमाम गंदगी को दूर बहा दिया।

गुरु गोविंद सिंह जी एक बहुभाषा व शास्त्रविद – गुरु गोविंद सिंह बिष्णु अवतार भगवान परशुराम की तरह न केवल एक कुशल योद्धा थे बल्कि भाषा और शास्त्र पर भी उनका अप्रतिम अधिकार था। अपनी जिन्दगी में न जाने उन्होंने कितने काव्य रचे जिसमें शत्रु को कम्पित कर देने वाला युद्ध-घोष भी था तो रणचंडी का आवाहन करते मन्त्र भी, जिसमें सूर और मीरा के पदों की तरह का वात्सल्य भी था तो कृष्ण के गीता की तरह का कठोर प्रबोधन भी। संस्कृत के विद्वान् “पिता दसमेश” न जाने कितने ही भाषाओँ के ज्ञाता थे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। ज़फरनामा की काव्यशैली के आगे फिरदौसी की कलम पनाह मांगती दिखती है। हिन्दू धर्म शास्त्रों के ऊपर देवगुरु वृहस्पति की तरह उनका अधिकार था तो कवितायें करने में लगता था कि माँ शारदा उनके जिह्वा पर विराजमान होकर उन्हें स्वयम प्रेरणा देती थी।

गुरु गोविंद सिंह जी एक महाराज – भारत में युधिष्ठिर और विक्रमादित्य जैसे महान राजाओं की थाती और धरोहर को गुरु गोविन्द सिंह जी बहुत आगे लेकर गए। उनके दरबार में कलाविद, खेल-मनोरंजन के विशेषज्ञ, युद्ध-कौशल के जानकार, साहित्यकार, ग्रंथकार, अनुवादक, कवि, चित्रकार और न जाने कितने क्षेत्रों के विशेषज्ञ शोभा पाते थे। तलवार की झंकार के बीच उपनिषदों, महाभारतों और अन्यान्य हिन्दू ग्रंथों के अनुवाद के साथ कविताओं की इंद्र-मण्डली जमती थी। प्रजा की सुख और सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए एक आदर्श राज्य के रूप में गुरु गोविंद सिंह का राज्य अग्रगण्य था।

गुरु गोविंद सिंह जी एक महायोगी – एक के बाद एक अपने पुत्रों, परिवारजनों और वफ़ादार सिखों को खोते जाने के बाबजूद एक पिता, एक अभिवावक, एक गुरु के रूप में उन्होंने जिस तरह निर्विकार और अविचलित रहते हुए “समत्व योग” का परिचय दिया उसे किसी “महायोगी” के सिवा कोई कर ही नहीं सकता है। इसी अवस्था को योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने कमल-मुख से कहा था- दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। 2/56 (गीता)

गुरु गोविंद सिंह जी एक महान वक्ता- गुरु गोविंद सिंह जी जब ख़ालसा के लिए सेनानी खोजने निकले तो वहां उस अवसर पर उन्होंने एक ओजस्वी भाषण दिया था, उनके शब्दों की ललकार के बाद पहले पाँच और फिर उसके बाद अनगिनत सिंह धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। इतिहास के चुनिंदा भाषणों में जो कुछ भाषण हैं, उसमें निःसंदेह श्रेष्ठ स्थान पिता दशमेश के उस भाषण का है जो उन्होंने खालसा सजाते हुए दिया था।

गुरु गोविंद सिंह जी एक करुणावतार- अपनों के साथ-साथ शत्रुओं के लिए अपने अन्तस्थ में करुणा रखने वाले पिता दशमेश की अनगिनत कथाएं हैं, जिसमें दया, करुणा, वात्सल्य, स्नेह, संरक्षण, क्षमा का अद्वितीय समावेशन है, जिसकी दूसरी मिसाल इतिहास में कहीं नहीं मिलती।

गुरु गोविंद सिंह जी को अकाल पुरुष ने आदि शंकाराचार्य से केवल 10 साल की ही अधिक आयु दी थी पर इतने अल्प-समय में इतने विराट व्यक्तित्व का समाहन अद्भुत और अकल्पनीय है।

“अनुकूलता भोजन है, प्रतिकूलता विटामिन है और चुनौतियां वरदान है” इस सूक्ति को दुनिया अगर किसी एक व्यक्तित्व में साकार देखना चाहे तो वो व्यक्तित्व केवल और केवल पिता दशमेश का है।

विवेकानंद ने इसीलिए लाहौर से हिन्दुओं का आवाह्न करते हुए कहा था कि राष्ट्र और धर्म बचाना है तो तुममें से हरेक अपनी संतानों को गुरु गोविन्द सिंह के उद्दात और विराट चरित्र का अनुसरण करने की शिक्षा दो।

प्रश्न है कि हिन्दू समाज स्वामी विवेकानंद के उस आवाहन को सुनने के लिए तैयार है!

(लेखक स्तंभकार हैं। पेशे से बैंक कर्मी हैं। लेख में उनके निजी विचार है। यह लेख उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है।)