सर्वेश सिंह
“Thought is very contagious, may be, more contagious than a Virus.”
(विचार, वायरस से भी अधिक, संक्रामक है)
– स्वामी शिवानन्द
निर्जन सड़क पर झरती सर्पीली सी रोशनी। हवा बंद। क्रासिंग बंद। आसमान में तारों की झिलमिल; जैसे कि आँसूओं भरी असंख्य आँखे खुलती और बंद हो रही हों। सडक किनारे खड़े शांत वृक्ष ; जैसे कि कुंभक खींचे योगियों की कतारें हों।
जब तब तेजी से गुजरते किसी ट्रक की चीख या पुलिस जीप का सायरन सुन धुकधुकी बढ़ जाती है।
अचानक उस पर निगाह पड़ती है। काँखों में मुट्ठी दबाए वह चल रहा है। किधर जाना है, उसे जैसे कि सुध नहीं। वह एक कदम आगे बढ़ता है और खांसता है। जोर से साँस खींचता है, पर उसे भीतर रख नही पाता है। मुंह से फुस्स-सी आवाज निकलती है। वह डगमगाता है, फिर संभलता है।
वह बैठ जाता है और खांसता है। सूखी खांसी। खों..खों..खों..की आवाज गूंजती है। सड़क किनारे मकानों की खिड़कियाँ अचानक एक एक कर खुलने लगती हैं। दूधिया रोशनी में खिड़कियों के पीछे चेहरे झलकते हैं। भयभीत और उदास चेहरे। औरत-मर्द और उनके बीच खड़े, उन्हें कस कर पकड़े, अपनी आँखे निकाल, उसे ताक रहे सहमें बच्चे।
पर उसे शायद कोई भनक नहीं। वह खांसते उठता है और लटपटाते रेंगने लगता है।
सहसा सायरन की आवाज गूंजती है। धुकधुकी बढ़ जाती है। आवाज नजदीक आने लगती है। खिड़कियों से झांकते चेहरे सायरन की दिशा में अचानक घूम जाते हैं। आवाज बहुत पास आ गयी है। उसने भी सुन लिया है शायद। वह पलट कर झटके से देखता है। एक एम्बुलेंस उसके बहुत पास है।
अचानक वह भागता है। पूरा दम लगा कर वह दौड़ने की कोशिश करता है। खांसते वह दौड़ रहा है और इधर उधर देख रहा है। वह शायद कोई गली ढूढ़ रहा है, जिसमें अचानक घुस कर एम्बुलेंस से बच सके। पर गली मिलती नहीं। वह हाँफने लगता है।
एम्बुलेंस उसे बाएं से पार कर आगे की सड़क रोक खड़ी हो जाती है। चार आदमी उससे अचानक निकलते हैं। वे चमकदार कपड़े पहने हैं। मास्क से मुंह ढका है। दो के हाथों में बन्दूक है।
उसे चारो ओर से घेर लिया जाता है। वह सहमा बीच सडक पर खड़ा है। एक आदमी पीछे से उसे पकड़ता है। दो बंदूक ताने खड़े हो जाते हैं। चौथा उसके सामने आता है और एक छोटी बन्दूक जैसी किसी चीज से उसके माथे पर निशाना लगाता है। बन्दूक से नीली रोशनी निकलती है। रोशनी से उसका मत्था चमकता है। फिर रोशनी बंद हो जाती है। आपस में चारों एक दूसरे को देखते हैं।
अचानक उसे उठा लिया जाता है। वह कसमसा रहा है। एम्बुलेंस के पीछे का दरवाजा खुलता है। उसे उसके भीतर लगभग फेंक दिया जाता है। दरवाजा सटाक से बंद हो जाता है।चारो आगे जाकर बैठ जाते हैं। सायरन बजाते एम्बुलेंस तेजी से भाग जाती है।
खिड़कियाँ खट खट बंद होने लगती हैं।
खिड़की बंद करता हूँ। टीवी चलाता हूँ। सोफे पर पसर जाता हूँ। हर चैनल पर बस एक ही खबर। एक चैनल पर, देश के बड़े वायरस विशेषज्ञ डाक्टर अजय विश्वास से बातचीत चल रही है।
डाक्टर अपनी उदासी को एक हल्की मुस्कुराहट और उत्साह से छुपाये हुए कह रहे हैं- ‘यह वायरस अपरिचित है हमारे लिए। यह पकड़ में नही आ रहा। वेश बदलने में यह माहिर है। यह शायद किसी जंगली जानवर के भीतर छुपा बैठा था। शायद चमगादड़ या पेंगोलिन के भीतर। यह उसी से मनुष्य में आया हुआ हो सकता है। हमारा इम्यून सिस्टम धोखे से इसे मित्र समझ बैठता है। यह हफ्तों कोशिकाओं में छिपा बैठा रहता है। डायग्नोस नही हो पाता। पर एक दिन अचानक गले और फेफड़े में अपने को बढाने लगता है। यह अपनी कॉलोनी बनाने लगता है। साँस लेने की जगहें घेरता जाता है। ठीक इस जगह पर कोई दवा उपलब्ध नहीं। बाहर से आक्सीजन देते रहिये। आदमी का इम्यून साथ दिया तो बच सकता है। पर बुजुर्गों का मामला थोडा क्रिटिकल हो जाता है। पर हमें इससे लड़ना ही होगा। लेकिन यह लड़ाई साथ रहकर हम नही जीत सकते। फिलहाल, एक दूसरे से अलग रहकर ही हम शायद इसे हरा पायेगें।’
सुनकर सन्न रह जाता हूँ। आदमी को बदलते देखा है। वायरस को भी उसकी आदत लग गयी है क्या ? मिलकर लड़ाई लड़ने से जीत होती सुनी थी अब तक। पर अलग अलग रहकर भी किसी को हराया जा सकता है, यह रणनीति पहली बार सुन रहा हूँ ! तो क्या विज्ञान असहाय है इसके सामने ? यह कौन सी लड़ाई होगी मनुष्य को बचाने की जिसमें मनुष्य ही एक दूसरे से अलग रहकर लड़ेगें !
घबराकर चैनल बदलता हूँ।
कोई मजलिस बैठी है। ऊँचे आसन पर एक मौलवी बैठे हैं। अगल बगल बैठे चिंतित लोग सूनी आँखों से उन्हें देख रहे हैं। लोग काफी है।
मौलवी चिल्ला रहे हैं- ‘मेरे सपने में यह कीड़ा, क्या कहते हैं..हां, वायरस, एक दिन आया था। इंसानी शक्ल में | मैंने पूछा- ‘कौन है तूँ ?’ तो उसने कहा- ‘कोरोना’। मैंने डाटा- ‘तू किसलिए आया है?’ तो उसने मुझे वह किस्सा सुनाया जो आपको भी सुनना चाहिए। उसने सुनाया कि एक दिन तीन चीनियों ने आयशा नाम की औरत से रेप किया और उसके मुँह पर पट्टी बाँध दी थी। अब चूँकि वो कुछ बोल नहीं सकती थी, इसलिए उसने अपने मन में अल्लाह को याद किया और रोकर उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया। उसने कहा, “या अल्लाह, क्या हो रहा है। क्या कोई मुझे बचाने वाला नहीं ?” उसकी आवाज को अल्लाह ने सुना और जैसे ही वो तीनों रेप करके वहाँ से उठे, कोरोना की शक्ल में अल्लाह का अजाब आया और तीनों बंदे वहीं खत्म हो गए। इसके बाद दो सिक्योरिटी गार्ड, जो इस जुर्म की पहरेदारी कर रहे थे, उन पर भी ये कहर बरपा।‘
इतना कह मौलवी चुप हो गए।‘अल्लाह ! अल्लाह !!’ की सामूहिक ध्वनि गूँज उठी।
अपनी दमदार आवाज में मौलवी ने बात जारी रखी- ‘अल्लाह चीनियों से इसलिए भी नाराज हुए कि उन्होंने मुसलमानों को कहा था कि आपको नमाज पढ़ने की इजाजत नहीं, मस्जिदें खोलने की इजाजत नहीं, कुरान-ए-पाक पढ़ने की इजाजत नहीं। फिर क्या था, जो देश सुपर पावर बना बैठा था, वहाँ अल्लाह ने जरा सी देर में लाखों को जमीन पर फेंक दिया।‘
नारा गूंजा- ‘अल्लाहो अकबर….अल्लाहो अकबर.’
मौलवी चौकन्ना होकर अपनी बात का असर देख रहे थे। कुछ देर बाद वे फुसफुसाए- ‘पर बिरादरों, कान लगा के सुनो। आपको इस कीड़े से डरने की बिलकुल भी जरूरत नहीं। इसका इलाज अल्लाह ताला ने मेरे दिमाग में डाल दिया है और ये इलाज एकदम परफेक्ट है। आपको करना बस यह है कि कबूतर के गू को पानी में मिलाकर तीन बार पीना है। चूँकि कबूतर अल्लाह-अल्लाह करता है इसलिए ये इलाज सही है। दरअसल, एक झिल्ली होती है उसके गू में । यह कीड़ा उसी में फंसकर नीचे के रास्ते निकल जाएगा। इंशाल्लाह। पर तुम्हे कसम खुदा की, काफिरों को यह नुस्ख़ा मत बताना।’
सहमति में हाथ उठते हैं- ‘इंशाल्लाह ! इंशाल्लाह !!’
सुनकर मैं भीतर भीतर हंसता हूँ। पर घबराहट जाती नहीं। चैनल फिर बदलता हूँ। एक चैनल पर राजनैतिक दलों के प्रवक्ता एक दूसरे से उलझे हुए हैं।
एक चीखता हुआ कह रहा है- ‘यह चीनियों द्वारा तैयार किया गया बायोलाजिकल वेपन है जो उन्ही के यहाँ फट गया। इसका परिणाम अब सारी दुनिया भुगतेगी।’
दूसरा उसकी बात काटता है- ‘यह अमेरिकी साजिश है। वह दुनिया को इसके माध्यम से अपने कदमों में लाना चाहता है।’
तीसरा बीच में चीख उठता है- ‘देश की गद्दी पर एक नरपिशाच बैठा है। यह सब उसी की कारस्तानी है। वही इस देश का दुर्भाग्य है। इस वायरस से देश को बचाना है, तो उसे गद्दी से उतार फेकना होगा।’
मैं सुनता हूँ और हंसता हूँ।
अचानक सोती हुई बेटी खांसती है। मैं डर जाता हूँ। जल्दी से मास्क पहनता हूँ। हाथों में सेनीटाईजर मलता हूँ। धीरे से उसके पास जाता हूँ। वह जग गयी है और बेड पर आँख बंद किये बैठी हुई है। मुझे देखने लगती है। अचानक पूछती है- ‘क्या अपडेट है पापा।’ मैं उसके बाल सहलाता हूँ। ‘सब कंट्रोल में है’- कहकर उसे सुलाने लगता हूँ। लेटे लेटे अचानक फिर पूछ बैठती है- ‘कितने दिन में पता चलता है पापा कि वो आपके भीतर है ?’
सवाल सुन मेरी धडकन रुक जाती है। अपने को संभालता हूँ। धीरे से कहता हूँ- ‘कम ताकतवर हुआ तो भीतर घुसते ही मर जाएगा।’ उसके बाल फिर सहलाने लगता हूँ। वह जवाब से संतुष्ट नहीं थी शायद इसलिए मुझे घूर रही थी। उसे देख मैं मुस्कुराया। बाल सहलाते बोला- ‘दस दिन हो गए बेटा घर से बाहर हमें निकले हुए। अगर वह भीतर होता तो अब तक पता चल जाता।इसलिए निश्चिन्त सो जाओ।’
उसे शायद इस बात पर विश्वास हो आया और वह आँखें बंद चुप हो गयी।धीरे-धीरे वह सो गयी।
सोफे पर वापस आकर पसर जाता हूँ। टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़ चल रही है। एक मशहूर गायिका को वायरस ने जकड़ लिया है। गायिका हाल ही में लंदन से लौटी है। एअरपोर्ट पर उतरने के बाद उसने छल से अपने आप को चेकिंग स्टाफ से बचाया और चोर दरवाजे से बाहर शहर में घुस आई। शहर में उसके कई शो थे। न जाने पर लाखों का नुकसान था। शहर में उसने तडातड कई पार्टियाँ की। दवाइयाँ खाकर बुखार को छुपाए रखा। लेकिन वायरस सही समय पर अपनी औकात में आ गया।
गायिका को पकड़ कर आइसोलेशन में रख दिया गया। पर जो होना था वो शायद हो चुका था। एंकर और उसके मेहमान गायिका के सम्पर्क में आने वाले लोगों के आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। जिन जिन पार्टियों में गायिका गयी उनमें बड़े बड़े नेता, अधिकारी,अपराधी और उद्योगपति शामिल रहे। वहां से कई नेता लौट कर संसद गए। राष्ट्राध्यक्ष से भी मिले। विश्लेषण डरावना शक्ल लेने लगा था। एक मेहमान कह रहे थे कि अब भगवान् ही बचाएं इस देश को!
सोफे पर अधलेटा मैं सिहरने लगा हूँ। संसद का अजीब चेहरा आँखों में नाचने लगता है। छींकते और खांसते सांसद, संसद के दरवाजों से निकल रहे हैं। लोगों से पैनिक न करने की अपील कर रहे हैं।।आम लोग कातरता से उन्हें देख रहे हैं। देश के राष्ट्राध्यक्ष आक्सीजन की नली लगाये विक्ट्री साईन दिखा रहे हैं। वायरस उनके साँसों को लीलता जा रहा है।
मैं पसीने पसीने होने लगा हूँ। सामने रखा बोतल का पानी गटागट पी जाता हूँ। अचानक बोतल में वायरस ही वायरस चिपके दीखते हैं। हडबड़ा कर बोतल नीचे फेंक देता हूँ। बाथरूम में भागता हूँ। साबुन से रगड़ रगड़ हाथ धुलने लगता हूँ। उँगलियों में खून उभरने लगता है। फिर बहने लगता है। बाथरूम से भागता हूँ। बीटाडीन खोजता हूँ। उँगलियों में रगड़ता हूँ। पट्टी लपेटता हूँ। धड़ाम से बिस्तर पर गिरता हूँ। साँसें खींचता और रोकता हूँ। न जाने कब नींद के आगोश में चला जाता हूँ।
सुबह चाय का कप लिए बेटी जगाती है। वह खुश दिख रही है। मैं बैठ कर चाय पीने लगता हूँ। बेटी कलेंडर में 24 तारीख पर पेन से गोला बनाती है। मैं गोले गिनता हूँ और घबराने लगता हूँ। सोचता हूँ कि आज ग्यारह दिन हो गए घर में बंद हुए। बेटी मुझे देख हंसती है। बोलती है- ‘ग्यारह दिन लगातार आप हमारे साथ रहे। कितना तो अच्छा लग रहा है।’ हँसते हुए मैं भी उसे देखता हूँ।
सहसा याद आता है कि आज जनता कर्फ्यू है। राष्ट्राध्यक्ष ने यह घोषणा खुद की और लोगों से इसे सफल बनाने की अपील की।डाक्टरों ने भी इस घोषणा का स्वागत किया। कर्फ्यू का मकसद साफ़ था। यह वायरस बहुत ही संक्रामक है। तेजी से फैलता है। एक से चार और चार से चार हजार। इसलिए उसके फैलने की यह चेन तोडनी जरूरी है। लोग एक दूसरे से मिलेगें ही नही तो यह चेन स्वतः टूट जाएगी। जाहिर है कि ऐसा करने से अब तक देश भर में यहाँ वहां गिरा यह वायरस खुद-ब-खुद इन चौबीस घंटों में खत्म हो जाएगा और लोगों में प्रवेश न कर पायेगा।
टीवी पर इस कर्फ्यू को लेकर बहसें हो रही हैं। कुछ लोग इससे सहमत नही है। उनके हिसाब से यह सरकार इस छोटे से वायरस से भी कमजोर निकली। यह सरकार निकम्मी है। यह कुछ छिपा रही है। कर्फ्यू के बहाने आजादी के हमारे अधिकारों को रौंदना चाहती है। इसके खिलाफ सडकों पर आने की जरूरत है। वायरस हमारा कुछ नही बिगाड़ सकता।
अचानक टीवी पर विभिन्न शहरों में निकलने वाले जुलूसों की तस्वीरें आने लगती हैं। देश इस मुद्दे पर बंट गया है। कुछ लोग घरों में रहकर इसका समर्थन कर रहे हैं तो कुछ लोग सडकों पर निकल सरकार का विरोध कर रहे हैं।
दृश्य देख मैं दंग रह जाता हूँ। मेरा ध्यान अब पहली बार वायरस की ओर जाता है। वह भले अदृश्य हो पर उसे शायद मनुष्य के दिमाग की पकड़ है। आप एक तरीके से आवाजाही बंद करोगे तो वह दूसरे तरीके से अपना शिकार बाहर निकाल लेगा और धर दबोचेगा। वायरस ने शायद मनुष्य के हिसाब से अपने को अनुकूलित कर लिया है। मुझमें घबराहट बढने लगती है।
टीवी की आवाज तेज करता हूँ। एक चैनल पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुखिया का इंटरव्यू चल रहा है | वायरस से लड़ने के तरीके के बारे में वे बता रहे हैं- ‘इस वायरस से बचाव की कोई औषधि चिकित्सा विज्ञान से पास नहीं है। कोई टीका बनने में भी वर्षों लगेगें। इसलिए फिलहाल इससे बचने के सिर्फ दो तरीके हैं। पहला- क्वारनटाइन अर्थात निस्संगता, अर्थात जिनके भी भीतर यह वायरस है, उसे आइसोलेशन यानी एकांत में रख दिया जाय और उनका यथासंभव समुचित इलाज किया जाय। दूसरा- सामाजिक दूरी अर्थात सोशल डिस्टेंसिंग। लोगों को दूर दूर रखिए। भीड़-भाड़ होना रोकिए। कम से कम एक हफ्ते या जितना भी आवश्यक हो, लाकडाउन करिए। उस अंतिम व्यक्ति को पकड़िए और उसे हास्पिटल में रखिए जो शेष लोगों को संक्रमित कर रहा है। कुलमिलाकर संक्रमण की चेन जब तक नही टूटेगी तब तक यह वायरस फैलता रहेगा।’
सुनता हूँ और सोचता हूँ। निस्संगता….क्वारनटाइन….अचानक मुझे याद आता है की बहुत पहले स्पेनिस फ़्लू से ग्रस्त महात्मा गाँधी ने उससे बचने के लिए महीनों निस्संगता को अपना लिया था। बचपन में दादी किसी अबूझ बीमारी की हालत में चौदह दिन झोपडी में अकेले रहने चली जाती थीं।
चैनल बदलने की बटन दबाता रहता हूँ। कभी उपर तो कभी नीचे।
अचानक एक बाबा जी दिखते हैं। गेरुवे रंग की आधी लुंगी पहने और उपर उसी रंग की हल्की तौलिया कंधे पर डाले। महिला एंकर रसभरी निगाहों से उन्हें देख रही है। बाबा कई योग आसन करते हुए उसे दिखा रहे हैं। एंकर उनसे इस वायरस से बचने का तरीका पूछती है। बाबा ठठा कर हँसते हैं। बाबा की वाणी गूंजती है- ‘यह वायरस तभी जीतेगा जब भीतर से हम कमजोर होगें। जिनके फेफड़े तीस सेकेंड फूले रहें उनका यह कुछ नही बिगाड़ सकता। सेनेटाईजर एवं मास्क से इससे नहीं बचा जा सकता।।तीन तरह के योग इसके रामबाण उपचार हैं- भस्त्रिका, अनुलोम विलोम एवं कपालभाति।’
बाबा इन तीनों योगों को करके दिखाते हैं।
तत्पश्चात बाबा ध्यानमग्न हो जाते हैं। एंकर निर्निमेष बाबा को ताकती है। कुछ देर बाद बाबा अपनी दाहिनी आँख खोलते हैं और उसे एंकर की आँखों में डालते बोलते हैं- ‘पांच औषधियाँ- गिलोय, तुलसी, हल्दी, गोलमिर्च एवं अदरक….पानी में उबाल कर पीजिए, इस वायरस का पूरा कुनबा खत्म हो जाएगा, और आप ऐसी ही जवान एवं खूबसूरत दिखती रहेगीं।’
बाबा हो हो कर हंस रहे थे। एंकर के गाल लाज से लाल लाल हो रहे थे। उसी लाज से उसने दर्शकों से आग्रह किया कि वे बाबा के कहे के अनुसार आचरण करें जिससे यह वायरस डरेगा, जैसे की पाकिस्तान डरता है भारत से।
वैज्ञानिक सोच रखता हूँ। पर अचानक सोफे से उठता हूँ। लाईटर से गैस चूल्हा जलाता हूँ। बर्तन में पंच औषधियों को पानी में मिलाकर खौलाता हूँ। कप में ढालता हूँ। पीने झुकता ही हूँ कि देखता हूँ वायरस कप में भदभदा रहे हैं। घबराकर कप बालकनी में फेंक देता हूँ। बाथरूम में भागता हूँ। उल्टी करता हूँ। बार बार हाथ मुंह धोता हूँ। बाहर आकर सेनीटायिजर मलता हूँ।| बेसुध सोफे पर गिर जाता हूँ।
बहुत देर बाद टीवी की आवाज से जगता हूँ। गुस्से में टीवी बंद कर देता हूँ। मोबाइल खोलता हूँ। फेसबुक पर किसी ने यू ट्यूब का कोई लिंक शेयर किया है। लिंक खोलता हूँ। अमेरिका में टेड टॉक्स द्वारा 2104 में आयोजित एक कार्यक्रम का विडियो है। माइक्रोसॉफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स से बातचीत हो रही है।
बिल गेट्स कह रहे हैं- ‘हमारी दुनिया अब किसी नए वायरस के प्रकोप को झेलने के लिए तैयार नहीं है। इबोला वायरस के बाद दुनिया को स्वास्थ्य सुविधाओं को ज्यादा मजबूत करना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। वैश्विक प्रलय का सबसे बड़ा कारण भविष्य में कोई युद्ध नहीं, बल्कि एक वायरस बनेगा। अगर कुछ दशकों में लाखों लोगों को कोई खत्म कर सकता है, तो वह है वायरस ना कि युद्ध।‘
कुछ सोचते वे चुप हो जाते हैं। उन्हें सुन मैं सन्न रहा जाता हूँ।
वे कहना जारी रखते हैं- ‘दुनिया ने सबसे ज्यादा खर्च परमाणु बम बनाने में किया है जबकि पैसा खर्च करके महामारी रोकने के लिए एक सिस्टम बनाने पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए था। इबोला से दुनिया को सबक लेना चाहिए था। इबोला के वक्त हमारे पास एक ऐसा सिस्टम नहीं था जो बेहतर काम करता हो। इबोला के समय हमारे पास उचित मेडिकल टीम नहीं थी।‘
वे फिर चुप हो जाते हैं। उनके चेहरे पर कोई काली छाया दिखने लगती है। वे जैसे कि अपने बहुत भीतर चले गए हों।
वे लोगों की ओर उदासी से देखते हैं और बोल पड़ते हैं- ‘मुझे आशंका है कि एक बेहद विनाशक वायरस निकट भविष्य में आने वाला है। यह नया वायरस बहुत ज्यादा खतरनाक होगा। पर मुझे डर है कि हम उसके लिए मेडिकली तैयार नही हैं।’
लोग ताली बजाते हैं। बदले में बिल गेट्स अजीब नजरों से उन्हें घूरते रहते हैं। स्क्रीन पर अँधेरा होने लगता है।
निस्संगता का आज चौदहवां दिन है। सारा देश लाकडाउन है। बाहर निकलना कानूनी अपराध है। टीवी खोलता हूँ | एंकर के चेहरे पर निराशा है। वायरस सामुदायिक स्तर पर संक्रमण कर रहा है। मरीज बढ़ रहे हैं। अस्पताल कम पड़ रहे हैं। बड़े-बड़े स्टेडियम अस्पताल में तब्दील किये जा रहे हैं। डाक्टर भी संक्रमित हो रहे हैं। उनके पास आवश्यक चिकित्सकीय वस्त्र नहीं हैं। मरीजों के बेड नहीं हैं। वेंटिलेटर नहीं हैं। गंभीर मरीजों और बुजुर्गों को मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। संक्रमित कॉलोनियों को ब्लाक कर दिया जा रहा है। मिलिट्री शवों को कहीं ले जाकर जला दे रही है।
हवा के लिए खिड़की खोलता हूँ। मस्जिद से आती अजान सुनाई देती है। सड़क पर छींकते खाँसते लोग घिसटते हुए मस्जिद की ओर जा रहे हैं। सहसा एक मिलिट्री जीप आती है। भीतर से दनदनाती गोलियां निकलती हैं। लोग सड़कों पर लहुलुहान गिरने लगते हैं।
जीप के चले जाने के बाद मिलिट्री ट्रक आता है। लाशों को उसमें डम्प किया जाता है। उन्हें लेकर ट्रक न जाने कहाँ निकल जाता है।
खिड़की बंद करता हूँ। टीवी बंद करता हूँ। मन में न डर है न उत्तेजना। वायरस का चेहरा अब शायद पहचानने लगा हूँ। उसकी रणनीति समझ में आने लगी है।
वायरस को, उस इंसान की तलाश नही है जो उससे डरा हुआ है। उसे पता है कि उससे डरा हुआ इंसान उसके पास नहीं आएगा। वह उससे दूर रहेगा, साथ ही वह उसको दूर करने के उपाय भी सोचेगा।
वायरस को, दरअसल, उन इंसानों की तलाश है, जो उसके होने से बेपरवाह हैं। जो उससे निर्भय हैं। जो वायरस को कुछ नही समझते हैं। जो बस आसमानों से डरते हैं। जो अब तक आसमानों से ही डरते रहे हैं। वे सोचते हैं कि वही उन्हें मारता है और वही बचाता है। उनके हिसाब से, इस वायरस को भी आसमानों ने ही भेजा है। सो, डरने की जरूरत नही है। बस इबादत बनाये रखनी है।
ये सारे इंसान अभी भी बाहर निकल रहे हैं। घंटियों, लाउडस्पीकरों की पुकार पर आसमानों के सामने हाजरी लगाने चले आ रहे हैं। बाहर वायरस उनसे हाथ मिलाने को तैयार बैठा है।
दिख रहे दुश्मन से लड़ा जा सकता है। बचाव किया जा सकता है। पर इस दुश्मन से कैसे लड़ें, समझ नही आ रहा है। दूध के पैकेट पर हफ्तों बैठा यह आपका इन्तेजार कर सकता है। हफ्तों हवा में उड़ता रह सकता है। बाहर न भी निकलें तो क्या पता कि कब यह पुरुवा के साथ आपके कमरे में आ चुका है ! ऐसे में कौन सा योग करें ? कौन सी दवा लें ? किस खिड़की को बंद करें ? किस जगह जाएँ जहाँ हवा भी न हो ? इन सवालों का किसी के पास कोई जवाब नहीं। विज्ञान प्रयोगशाला में कैद है। धर्म मन्दिरों में अकेला बैठा है। मन्त्र शास्त्रों के भीतर, जिसकी जिल्द पर हँसता बैठा यह वायरस शायद जुगाली कर रहा होगा।
टीवी खोलता हूँ। राष्ट्राध्यक्ष वायरस से बचने के लिए इक्कीस दिन का लाक डाउन घोषित कर रहे हैं। इतने दिनों घर में बंद रहने के लिए आवश्यक राशन पानी की चिंता सताने लगती है। उदास बेटी मेरी तरफ देख रही है।
टीवी पर दिखाया जा रहा है कि डॉ. अजय विश्वास नहीं रहे। उन्होंने लगभग डेढ़ सौ मरीजों को मौत के मुंह से निकाला, किन्तु स्वयं इस वायरस से संक्रमित हो गए। उनकी एक डायरी हाथ लगी है जिसका एक अंश टीवी पर फ्लैश हो रहा है- ‘जंगल में जो कुछ भी छिपा सो रहा है, उसे मत जगाओ। जंगल की जगह मत छीनो, क्योंकि अपने भीतर उसने राक्षसों को कैद कर रखा है। जंगल नही बचे तो ये सारे राक्षस तुम्हारे घरों में घुस आयेगें और बचने के लिए कोई जगह पृथ्वी पर नही होगी।’
टीवी के स्क्रीन पर, नीचे चलती हुई पट्टी पर एक खबर यह भी है कि वह मौलवी, जिसके सपने में वायरस आया था, खुद वायरस से संक्रमित हो गया और मर गया। उसका एक चित्र भी किनारे फ्लैश कर रहा था जिसमें एक डाक्टर उसके सामने खड़ा है और वह मुंह पर आक्सीजन मास्क लगाए और हाथ जोड़े लेटा है।
किसी चैनल पर पांच औषधियों वाले वे बाबा भी दिखते हैं। अपने आश्रम के बंद कमरे से विडियो संदेश द्वारा वे वायरस की बीमारी से ठीक हुए मरीजों को अपना रामबाण उपचार सिखा रहे हैं।
कब सो जाता हूँ पता नही चलता।
आँख खुलती है तो उगते सूरज की रोशनी सामने है। खिड़की खोलता हूँ। सूरज इतना पास है कि मुट्ठी में बंद कर लूं। बाहर कबूतरों का झुण्ड उड़ रहा है। बहुत ऊपर आसमान में गिद्धों की जमात दिख रही है। नीचे सडकों पर कुत्ते निश्चिन्त पसरे पड़े हैं। आसमान बहुत साफ़ और नीला दिख रहा है। गौरैया नीचे फुदक रही है। बहुत दिन बाद आज आसमान में फूल से बादल दिखे हैं। कोयल की कूक न जाने कितने समय बाद सुनाई दे रही है। आमों में बौर आ गए हैं। गाय निर्द्वंद्व बाहर घूम रही है और उसे खूंटे में बाँधने वाला उसका मालिक गायब है। वायरस यहाँ कहीं भी नही दिख रहा है।
आश्चर्य में पड़ जाता हूँ। खिड़की के बाहर सब कुछ इस बीच इतना बदल कर स्वच्छ कैसे हो गया ! आसमान की धूल कैसे झर गई ! वायरस इनका कुछ क्यों नही बिगाड़ पाया ?
कहीं ऐसा तो नही कि ये वायरस, हमारे भीतर से ही निकल कर, हमें ही, संक्रमित कर रहा है !!
(लेखक बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय,लखनऊ में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। कहानी में उनके निजी विचार है।)