“भाईयों-बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है।” ये बोल थे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के। देश में आतंरिक उपद्रव का हवाला देकर सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी। 26 जून 1975 की उस सुबह घरों में अखबार नहीं पहुंचे थे दिल्ली की सड़कों पर अभी अफरताफरी जैसे माहौल तो नहीं थे लेकिन एक-एक करके विपक्षी नेताओं के गिरफ्तार होने की सूचना बहार आने लगी थी। सबसे पहले जयप्रकाश नरायण को गिरफ्तार किया गया उनसे मिलने जा रहे कांग्रेस के सांसद चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया गया। देखते-देखते देश में विपक्षी नेताओं को खोज-खोज कर गिरफ्तारी की जाने लगी। गिरफ्तारी इतनी गोपनीय ढंग से होती थी की उसकी सूचना उनके रिश्तेदारों,मित्रों और सहयोगियों को भी नहीं होती थी। सबकुछ इतने तेजी से घटित हो रहा था कि किसी को सोचने और समझने का भी वक्त नहीं मिल रहा था। भले आपातकाल की घोषणा अचानक हुई हो लेकिन इसकी पृष्ठभूमि 12 जून को ही लिखी जा चुकी थी। जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को अवैध करार देते हुए उन्हें चुनाव लड़ने के लिए 6 साल तक रोक लगा दिया था।

राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी

पाकिस्तान से युद्ध और बांग्लादेश के अस्तित्व में आने के बाद इंदिरा गांधी को लगा यह सही समय है चुनाव में जाने का और उनका फैसला सही साबित हुआ। समय से पहले हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला। स्वयं इंदिरा गांधी रायबरेली में अपने प्रतिद्वंदी राजनारायण को बड़े अंतर से हरा दिया था। उस समय यशपाल कपूर इंदिरा के सेक्रेटरी थे उनपर आरोप था कि उन्होंने सरकारी पद पर रहते चुनाव में इंदिरा गांधी की मदद की थी।हालांकि यशपाल कपूर की मानें तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया था लेकिन उनका इस्तीफा बाद में स्वीकार हुआ। इसी को आधार बनाते राजनारायण ने इंदिरा पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया है। मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा जहाँ जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा इस केस की सुनवाई कर रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय जस्टिस सिन्हा को याद करते हुए बताते हैं कि “वो समय के बड़े पाबंद और ईमानदार व्यक्ति थे।” इलाहाबाद हाईकोर्ट में जहाँ राजनारायण का पक्ष वकिल शांतिभूषण रख रहे थे तो इंदिरा गाँधी का पक्ष खरे। सुनवाई के दौरान ही जस्टिस सिन्हा को लालच देकर फैसले को प्रभावित करने की बहुत कोशिश की गई लेकिन कामयाबी नहीं मिली। उस समय के कुछ कांग्रेस नेताओं ने तो फैसला टाईप कर रहे टाइपराइटर को भी खरीदने की कोशिश ताकि फैसला पता चल सके लेकिन यहां भी किसी को कामयाबी नहीं मिली। 12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला पढ़ते हुए बताया कि प्रधानमंत्री पर सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग का आरोप सिद्ध होता है जिसके कारण उनकी संसद सदस्यता अवैध करार दी जाती है। और छ साल तक चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। फैसले के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट में गहमा-गहमी बढ़ गई लेकिन इन सब के बीच इंदिरा गांधी को बीच दिन का मौका दिया गया ताकि वो सुप्रीम कोर्ट में भी अपनी बात रख सकें। इस दौर इंदिरा गांधी के घर के बाहर रोज बाहर से बुलाए गए लोगों के बीच रैलियां होती। जिसे संजय गांधी और देवकांत बरूआ जैसे लोग संम्बोधित करते थे। वहां नारा लगता ‘इंदिरा इज इंडिया’। यह सबुकछ ये दिखाने के लिए किए जा रहा था ताकि इंदिरा गांधी को एहसास दिलाया जा सके कि जनता आज भी उनके साथ है।

इसी बीच 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी पर फैसला सुना दिया। यह हाईकोर्ट जितना सख्त नहीं था। इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद पर बने रहने की छूट जरूर मिल गई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी सदस्यता को अवैध माना था। जिसके कारण वो संसद तो जा सकती थी लेकिन वोट नहीं कर सकती थी। इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ जयप्रकाश के नेतृत्व में विपक्ष ने आंदोलन की धार को तेज कर दिया। इंदिरा गांधी पर पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा। 25 जून को विपक्ष एक बड़ी रैली दिल्ली के रामलीला मैदान में होती है। जिसमें दिनकर की पंक्तियाँ ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ को राजनारायण ने राजनीतिक नारे की तरह इस्तेमाल किया। उन्हों कहा “मुझे गिरफ्तारी का डर नहीं है और मैं इस रैली में भी अपने आह्वान को दोहराता हूँ ताकि कुछ दूर संसद में बैठे लोग भी सुन लें। मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों को आह्वान करता हूँ कि इस सरकार का आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन की अपनी वैधता खो दी है।”

इस रैली के बाद इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रीमंडल की बैठक की। जिसमें स्वर्ण सिंह को छोड़कर किसी मंत्री ने इंदिरा गांधी से आपातकाल पर प्रश्न नहीं पूछा। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के आदेश से देश में आपातकाल लगा दिया गया। जिसके बाद इंदिरा का विरोध करने हर एक व्यक्ति को जेल में डाल दिया गया। प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई। चारो न्यूज़ एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया गया। एक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया जो समाचार पत्रों पर नजर रखने लगा। देश में अराजकता का महौला बढ़ने लगा। फिर 21 मार्च 1977 को देश में चुनाव करवाने की घोषणा हुई। एक बार फिर रायबरेली में राजनारायण ही इंदिरा गांधी के खिलाफ प्रत्याशी थे। लेकिन इस बार इंदिरा गांधी चुनाव हार गई। कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार अस्तित्व में आई। मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बनें पर यह भी सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई।