सुमित्रा नंदन पन्त

सत्यम भारती

प्रकृति के सुकुमार कवि , हिन्दी साहित्य के महान उन्नायक, और छायावाद के प्रधान स्तम्भों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 ई. उत्त्तराखंड के कौसानी जिले में हुआ था,जिसकी प्राकृतिक नैसर्गिक सुषमा उनके किशोर प्राण मूक कवि को बाहर निकाला और उन्हे प्रकृति के चितेरे कवि के रूप उभारा था। जन्म के कुछ ही घंटे बाद माता का निधन हो गया और पालन-पोषण दादी ने की, जीवन का संघर्ष न केवल उनके व्यक्तित्व को निखारा बल्कि उन्हें कवि बनने के लिए प्रेरित भी किया।

वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान।
निकलकर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।।

वे बचपन में “गुसाईदत्त” के नाम से जाने जाते थे,उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल से प्रारंभ हुई थी। पंत एक बेवाक कवि, कुशल उपन्यासकार,प्रखर नाटककार, निबंधकार और निर्भीक संपादक थे। लोकायतन, गुंजन , पल्लव , ग्राम्या, वीणा, युगवाणी , युगांत , स्वर्णधूलि आदि इनका लोकप्रिय काव्य-ग्रंथ है। प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण, प्रेम सौदर्य का सूक्ष्म चित्रण , प्रणय-निवेदन, राष्ट्रप्रेम की भावना, रहस्यवाद, वेदना की तीव्र अनुभूति आदि इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता रही है । पंत की कविताओं पर ” अरविंद दर्शन” का प्रमुख रूप से प्रभाव रहा है ;उनकी कविताओं में मार्क्स, गांधी और अरविंद तीनों के दर्शन दृष्टिगोचर होते हैं । आचार्य शुक्ल उनके वैचारिक प्रभाव को दिखाते हुए लिखते हैं “पंत जी ने समाजवाद के प्रति भी रुचि दिखाई है और गांधीवाद के प्रति भी, ऐसा प्रतीत होता है कि लोक व्यवस्था के रूप में तो समाजवाद की बातें उन्हें पसंद है और व्यक्तिगत साधना के लिए गांधीवाद की बातें; कवि की दृष्टि से सब जीवों के प्रति आत्मभाव ही जीवन जगत की ‘मनुष्यत्व’ में परिणति है ।”

उनकी लेखनी ने छायावाद को एक नया रास्ता दिखाया इसलिए पल्लव की भूमिका को छायावाद का “घोषणा- पत्र” कहा जाता है। प्रकृति के सूक्ष्म चित्रण करने के कारण पंत जी को “संवेदनशील इंद्रिय बोध का कवि” कहा जाता है अर्थात ऐसा कवि जो चराचर जगत के किसी भी वस्तु से संवेदनशील संबंध बनाकर उसका जीवंत चित्रण करता हो। पंत जी की रहस्य भावना और छायावादी कवियों की तुलना में ज्यादा स्वभाविक है । उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की वंदना में प्रिया और प्रेमिका का स्वभाविक पुरुष स्त्री भेद रखते हैं और वेदना वर्णन में ज्यादा कल्पना और अतिशयोक्ति का सहारा नहीं लेते हैं। इनके लेखनी पर यूरोप में चल रहे सौंदर्यवाद का प्रभाव दिखता है और वो स्वच्छंदतावाद की ओर भी बढ़ते नज़र आते हैं।

पंत एक प्रखर शिल्पी भी थे; भाषा,रस, छंद,अलंकार का भावगर्भित और सूक्ष्म प्रयोग उनके काव्यों में देखा जा सकता है। प्रकृति का मानवीकरण उनके लेखनी का अहम हिस्सा रहा है, प्रकृति का जैसा सुन्दर वर्णन इनके काव्यों में देखने को मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। पंतजी ने मुक्तक,प्रबंध,तथा रूपक काव्य-रूपों में अपनी कविताओं की सृष्टि की तो वहीं गद्य पर भी अद्वितीय कार्य किये हैं- ज्योत्सना, शकुंतला, हार, छायावाद: पुनर्मूल्यांकन आदि उनकी प्रमुख गद्य कृतियाँ हैं। उन्होने नरेन्द्र शर्मा के साथ मिलकर “रूपाभ” नामक पत्रिका का भी संपादन भी किया।

पंत के साहित्य के प्रति समर्पण तथा कुशल लेखन के लिए उन्हें बहुत सारे पुरस्कारों से पुरस्कृत भी किया गया, उन्हें “चिदम्बरा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार, “लोकायतन” के लिए सोवियत रूस नेहरू अवार्ड,कला और बूढा चांद के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

उनके साहित्य का एक मुख्य उद्देश्य जनता को प्रकृति के प्रति प्रेम को बढाना, मानवता को स्थापित करना तथा मन की वृत्तियों का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत करना था। पंत की कविताओ में “कहीं झिंगुरों की झीनी झंकार,कही पपीहे की पीनी पुकार,निर्झर का झर-झर, हवा का मर-मर, शैशव की मुस्कान, इन्द्रधनुष की टंकार, झंझा की चपल झंकार है।” वस्तुतः ये शब्दावली ही उन्हे “प्रकृति का सुकुमार” कवि सिद्ध करती है। आईये उनके जन्मदिवस पर उन्हें याद करते हुए उनके योगदानों प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित करें।

(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य के छात्र हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)