प्रतीकात्मक तस्वीर

गौरव

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियाँ जलाने में…

आहत आदमी जब कुछ लिखता है तो छपता है। बशीर बद्र का घर दंगे में जला लिया गया था। तब उन्होंने ये जो लिखा …वह तब तक छपता रहेगा जब तक दंगे होते रहेंगे।

जब भी देश में कहीं आतातायी शक्तियों द्वारा ऐसे अमानवीय कृत्य होते हैं तो ‘शोषक-शोषित’ वर्ग की बहस पुनः तेज हो जाती है।
थक-हारकर एक तटस्थ चिंतन सिर्फ इस बात तक आ पाता है कि ये उभयवर्ग ‘जाति-धर्म’ निरपेक्ष होने चाहिए…मगर एक चिंतन परंपरा हमेंशा रहती है जो इन्हें ‘सामान्य’ लक्षणों वाला बनाऐ रखना चाहती है…जिसके ‘हेडर’ का कुल समाया इतना होता है कि देश में वर्तमान में बलपूर्वक शोषण जैसी चीजें केवल एक वर्ग करता है,शोषित वर्ग केवल पिछड़े-और अल्पसंख्यक हैं।
वैसे तो इनका चिंतन ईमानदारी जैसी किसी चीज से एक गुणवत्ता पूर्ण दूरी पर है और बने भी रहना चाहता है। मगर…इनमें शोषण जैसी किसी भी चीज के लिए भविष्य में कोई चिंता पनपती है तो इनको शोषण समस्या को दो वर्गों में रखना चाहिए ,पहली शोषक दूसरी शोषित। जब तक इनका शोषण सिद्धांत केवल चुनिंदा वर्गों को शोषित और निश्चित वर्ग को शोषक मानना बंद नहीं करता ये सिलसिला चलता ही रहेगा।

बदले की राजनीति जैसी चीज उत्तर प्रदेश में लंबे समय से चल रही थी मगर यह 2007 से ध्रुवीय हो गया है। बसपा की सरकार आने के बाद गिन-गिन कर यादवों पर एससी-एसटी एक्ट लगाया गया…अकारण जेलों में भरकर महीनों रखा गया। 2012 में सपा की सरकार आते ही ना जाने दलित बस्तियों में कितने ही ‘जौनपुर’ हुए। मगर इन दोनों सरकारों में एक चीज समान रही वह ये कि पिछड़ी जाति के बहुसंख्यक इलाकों में अल्पसंख्यक आबादी किसी भी जाति की रही हो, को अलग अलग तरीके से प्रताड़ित किया , फर्जी मुकदमें में फँसाकर ना जाने कितने युवाओं का भविष्य खत्म कर दिया गया…मगर कोई सुध लेने वाला नहीं था। एक और चीज जो समान थी पर उसका लबोलुआब कि ‘अल्पसंख्यकों’ पर मुकदमा तक दर्ज नहीं होता था…चाहे मामला कब्जे का रहा हो या हत्या का।

दोनों सरकारों ने उनके मुँह में चाँदी का चम्मच दे रखा था।
झारखंड रहा हो या राजस्थान किसी अल्पसंख्यक की हत्या राष्ट्रीय विषय होती है…पर पालघर के साधु हों या कश्मीर का पंडित उसकी हत्या से कोई सरोकार नहीं विरोध तो दूर , कहने को दो शब्द नहीं होते उनके पास…
देखिए !ये जो आपका खड़ा किया नैरेटिव है वही दूसरी ओर भी खड़ा हो चुका है…आपके प्रोपेगैंडा को समझने वाले लोग आ गये हैं जो आपको आप ही की भाषा में जवाब देंगे।
दुनिया के दूसरे छोर पर एक ‘अश्वेत’ कि मृत्यु ने आपको शेक्सपीयर और शैली बना रखा था…यहीं जौनपुर में दलितों की एक बस्ती फूँक दी गई और आपकी वैचारिक नपुंसकता अपने चरम को छूने लगी , आपकी कलम हफ्ते भर के भीतर जंग खा गयी। फर्ज कीजिए… कि यही कोई सवर्ण रहा होता तो ‘5000 साल की एक थियरी रीलांच करने में देर न लगती।
खैर , आपकी अभिव्यक्ति ,आपका प्रोपेगैंडा आप की निजी जागीर है। मगर आपको भी पता है कि आप कल फिर अखबार ,सोशल मीडिया फिर से भर देंगे बस बात ‘वर्ग-द्वय’ के अतिरिक्त किसी की हो पर आप एक बात नहीं समझना चाह रहे जानबूझकर कि आपकी अवसरवादिता ने दूसरे धड़े के मन में कहीं न कहीं इन वर्ग-द्वय के के लिए नकरात्मकता की जड़ें और गहरी कर दी हैं। आप एक कूआँ पाटने का विकल्प आप खाई खोदकर दे रहे।

इन सब के अतिरिक्त एक बड़ी और समझने की बात यही है कि शोषक वर्ग की जो जाति है वह है ‘धनबल-बाहुबल-वोटबल’। आज मुसलमानों ने दलितों की बस्ती फूँक दी…कल को दलित कहीं मजबूत होगा तो वह किसी और की बस्ती में यही कृत्य अंजाम देगा, और दिया ही है। किसी के लिए सिर्फ इसलिए विलाप न हो कि वो इस ‘वर्ग-द्वय’ से आता है, इन्हें भी वो सारे पैंतरे आते हैं लेकिन खुद को दबा और पीड़ित दिखाने का आनंद और लाभ ही अलग है।

विरोध करिए, हर ऐसे कृत्य का विरोध करिए। आज आप किसी और के लिए बोलेंगे तो कोई कल आप के लिए बोलेगा। सामाजिक तानाबाना ऐसा ही है, जहाँ ये चीजें हैं वहाँ सब बहुत सुंदर जीवन जी रहे, जहाँ इसका अभाव है वहाँ से खबरे छपती हैं।
किसी भी समाज को अपनी चिंता खुद करनी चाहिए, शैक्षिक संस्थानों, राजनीतिक पार्टियों के वातानुकूलित दफ्तर में बैठकर कोई उनका केवल नाम चिंतक ना बन सके इस ध्यान उनको रखना होगा। आप बराबरी खोज रहे…बराबरी बराबर खड़े होकर मिलती है, किसी समान परिस्थिति में विशेष
तरह का आचरण व्यवस्था और समाज से चाहेंगे तो बराबरी कहाँ से आयेगी। मानक सामान्य नहीं बल्कि विषम परिस्थितियों से स्पष्ट होते हैं…आपको उसमें ‘विशेषधिकार’ चाहिए होगा तो बराबरी आने से रही।

(लेख में लेखक के निजी विचार हैं।)