स्रोत: गूगल

रजनीश कुमार चौरसिया

देश गांधी पर्व मना रहा है। सरकारी-गैर सरकारी संस्थाएं गांधीमय हो गई है। राष्ट्रपिता की याद में मंच सज गए है। कोविड के मद्देनजर कहीं वर्चुअल तो कहीं ट्रेडिशनल। 151वीं जयंती पर बापू को नये संदर्भ में याद किया जा रहा है। विचार-विमर्श के केंद्र में प्रमुख विषय है। यथा महामारी और महात्मा, आत्मनिर्भर भारत और गांधी, स्वदेशी आंदोलन और गांधी , स्वच्छ भारत के अग्रदूत महात्मा, महात्मा का प्रकृति प्रेम , जन-मन में बापू आदि। जनविमर्श के केंद्र से एक विषय दूर है। वह महत्त्वपूर्ण विषय है, देश में गांधी विचार प्रवाह केंद्रों की स्थिति। इस विषय पर समीक्षात्मक विचार-विमर्श की नितांत आवश्यकता है। परंतु दुर्भाग्य ही कहेंगे। यह विषय गांधी विचार प्रवाह केंद्रों के अगुवाजनों के संज्ञान में नहीं है। बलपूर्वक यह भी कह सकते हैं कि बुद्धिजीवी इस विषय को चर्चा केंद्र में नहीं खड़ा करना चाहते हैं। यथार्थ यह है कि वे अपने आमदनी की डाल पर कुल्हाड़ी नहीं चलाना चाहते हैं। दरअसल देश में जिन लोगों के कंधे पर गांधी विचार प्रवाह की जिम्मेदारी है। उनमें से अधिकतर लोग गांधी विचार को व्यवहार नहीं बल्कि बाजार बनाकर जी रहे हैं। ऐसे लोग गांधी विचार-दर्शन को जीवन में उतारते नहीं है। सिर्फ सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। समाज में गांधीवादी ख्याति अर्जित करते हैं। महज गांधी के जीवन प्रसंग को समाज के समक्ष रखते हैं। गांधी पथ पर चलकर दृष्टांत नहीं प्रस्तुत करते हैं। व्यक्तिगत अकादमिक लाभार्जन को केंद्र रखकर गांधी विचार प्रवाह की अल्पकालिक योजना ही बनाते हैं। दीर्घकालिक योजना बनाने से बचते हैं। क्योंकि इन्हें दीर्घकालिक योजना में मेहनत ज्यादा मुनाफा कम दिखता है। मनोवैज्ञानिक शोध है दीर्घकालिक योजना से ही किसी भी विचार को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में स्थानांतरित कर सकते हैं। मनोवांछित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। उक्त विचार के अनुरूप जनमानस तैयार कर सकते हैं। यहां सवाल उठता है कि फिर इन बुद्धिजीवियों को गांधी विचार प्रवाह केंद्रों की जिम्मेदारी क्यो सौंपी गई है ? जो युवा पीढ़ी में गांधी के संस्कारित-मूल्यों की पौध रोपने में असक्षम है। इनसे प्रतिवर्ष गतिविधि अथवा प्रगति प्रतिवेदन क्यों नहीं तलब की जाती है? समीक्षा पटल पर गांधी विचार प्रवाह केन्द्रों को क्यो नही रखा जाता है? जहां तक मैं समझता हूं । कारक है गांधी विचार को लेकर नियत में खोट । जो आजादी के बाद ही देश के ढ़ाचे में समा गया। उसका स्वरुप बदला है किन्तु वह आज भी विद्यमान है। जो सतत गांधी विचार पर चोट कर रहा है। आमतौर पर देश में गांधी विचार पर चोट के परिप्रेक्ष्य में माननीयों की नियत में समाहित खोट को ही जगजाहिर किया जाता है। जबकि गांधी विचार को लेकर नौकरशाही नियत में उससे ज्यादा ही खोट है। जिसे कोई गौरतलब नहीं करता है। इधर दो-तीन दिन पहले महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी में गांधी विचार पर चोट करने वाली प्रशासनिक खोट उजागर हुई। सेमेस्टर परीक्षा के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन की बड़ी अप्रत्याशित लापरवाही सामने आई। गांधी अध्ययन पीठ के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम गांधी विचार का पर्चा बना ही नहीं। और परीक्षा तिथि निर्धारित कर दी गई। अर्थात परीक्षार्थियों को बुला लिया गया। परिणामत: चतुर्थ सेमेस्टर के द्वितीय प्रश्न पत्र सत्य और अहिंसा की परीक्षा देने पहुंचे छात्रों को हंगामा करना पड़ा। छात्रों के हंगामें से प्रशासनिक अमला विचलित हुआ। विश्वविद्यालय के शताब्दी वर्ष में गांधी विचार की आड़ में चल रही शांतिपूर्ण हेराफेरी कहीं भंग न हो जाए। प्रशासन अविलंब डैमेज कंट्रोल में जुट गया। परीक्षा निरस्त कर जांच का आदेश जारी कर दिया। सूचना है कि प्रशासन संबंधित परीक्षक को तीन वर्ष के लिए डिबार (प्रतिबंधित ) करने का विचार कर रहा है। प्रशासन का अंतिम निर्णय क्या है ? यह पंद्रह दिन बाद ही पता चलेगा। अक्षम्य चूक के सापेक्ष यह दंड नाकाफी है। पर्चा प्रकरण की जांच उच्चस्तरीय होनी चाहिए। तभी असली दोषी के गर्दन तक हाथ पहुंचेगा। यह पहली दफा नहीं है। इससे पहले भी गांधी विचार के संदर्भ में विद्यापीठ की प्रशासनिक खोट सामने आई थी। दो वर्ष पहले 40वें दीक्षांत समारोह के दौरान संबोधन में विश्वविद्यालय के तत्कालीन चांसलर , सूबे के राज्यपाल राम नाईक ने उजागर की थी। दीक्षांत मंडप में खादी की टोपी-गणवेश पहनकर मेधावी बैठे थे। और मंच के फ्लैक्स पर पश्चिमी टोपी-ड्रेस में छात्रों का फोटो छपा था। इस विरोधाभास पर महामहिम ने टिप्पणी की थी “हम सोचे कि आज हम महात्मा गांधी के प्रेरणा से स्थापित काशी विद्यापीठ में जा रहा हूं लेकिन यहां आकर मुझे सामने और पीछे के दृश्य देखकर महसूस हो रहा है कि हम काशी विद्यापीठ के प्रांगण में नहीं किसी पश्चिमी विश्वविद्यालय के मंच पर खड़े हैं। उस वक्त भी विद्यापीठ प्रशासन की खूब किरकिरी हुई थी। फिर भी विश्वविद्यालय प्रशासन सबक नहीं सीखा। बापू की प्रेरणा से बाबू शिवप्रसाद गुप्त द्वारा स्थापित काशी विद्यापीठ में गांधी विचार के प्रवाह को अवरुद्ध करने का उपक्रम बदस्तूर जारी है। बानगी गांधी अध्ययन से संबंधित कोर्स है। यह कोर्स काशी विद्यापीठ का सबसे उपेक्षित कोर्सेज में से एक है। इस कोर्स में छात्रों संख्या सीट संख्या से आधे से भी कम रहता है। पिछले पांच वर्ष का मूल्यांकन किया जाए तो साठ सीट पर औसतन तीस से पैंतीस छात्र आवेदन करते हैं। सिर्फ पंद्रह से बीस छात्र ही दाखिला लेते हैं। इनमें से अधिकतर छात्रसंघ चुनाव में ताल ठोकने के लिए लेते हैं। कारण यह कि इस कोर्स में आवेदन सीट के सापेक्ष दोगुने से कम होने से छात्रनेताओं को इंट्रेंस से छुटकारा मिल जाता है। इसके अतिरिक्त इस कोर्स में हाजिरी में भी सहूलियत होती है। इस कोर्स में मौजूदा सत्र पर गौर करें। पायेंगे कि दूसरे वर्ष में कुल चौंतीस छात्र ही इस कोर्स में अध्ययनरत हैं। प्रथम वर्ष के बीस छात्र प्रोन्नत हुए हैं। ऐसा नहीं है कि यह कोर्स रोजगारपरक नहीं है। गांधी अध्ययन के अध्ययेताओं के लिए एनजीओ मंत्रालय आदि जगह भरपूर अवसर है। फिर अगर यह कोर्स छात्रों के रुचि विषय नहीं बन पा रहा है। तो स्वाभाविक है कहीं न कहीं इस कोर्स को लेकर विश्वविद्यालय के प्रशासनिक नियत में खोट है। अनुभव के आधार कह सकते हैं। विद्यापीठ प्रशासन कम आवेदन वाले कोर्सेज को लेकर सजग नहीं है। छात्रों में इन कोर्सेज के प्रति रुचि जगाने का किंचित मात्र भी प्रयास नहीं करता है।
वर्तमान परिदृश्य में काशी विद्यापीठ का यह रवैया संतोषजनक नहीं है। एक तरफ विश्व भर में महात्मा गांधी की पूज्यनीय है। । जनमानस के प्रिय बापू को महामानव मानकर उनके विचार सिद्धांत को आत्मसात किया जा रहा है। वैश्विवक चुनौतियों से निबटने के लिए गांधी चिंतन-दर्शन का अध्ययन-अनुसंधान कर निष्कर्ष पर पहुंचे का प्रयास जारी हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत में गांधी विचार को गांधी विचार प्रवाह केंद्र्र ही तवज्जों नहीं दे रहे हैं। जो दुर्भाग्यपूर्ण है। देश भर के सभी गांधी विचार से संबंधित संस्थाओं का पुनः मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है। तभी नया भारत गांधी के सपनों का भारत बन पायेगा। विश्वविद्यालय प्रशासन को संज्ञान हो कि काशी विद्यापीठ भारत का प्रथम स्वदेशी शिक्षा का केंद्र है। साथ ही देश में गांधी विचार प्रवाह का प्रमुख केंद्रों में से एक है। ऐसे में विद्यापीठ प्रशासन को अपनी भूल पर आत्मचिंतन आत्मावलोकन करना चाहिए। गांधी विचार के संदर्भ में नीति नियत और नजरिया तत्काल बदलना चाहिए। शताब्दी वर्ष में यही महात्मा गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।