‘अब मेरे पास कोई आता है तो मैं लिखवा लेता हूँ कि एक घंटे से ज्यादा नहीं बजा सकता। मुझे पता है कि यहां संगीत को सुनने वाले बहुत शौकीन लोग हैं। लेकिन जब मैं थक जाता हूँ फिर मैं माफी मांग लेता।’
यह बात बिस्मिल्लाह खां ने 2001 में मैसूर में एक कार्यक्रम के दौरान कही थी। तब उनकी उम्र 85 वर्ष की हो चली थी। बनारस का जब भी जिक्र होता उसके साथ बिस्मिल्लाह खां के शहनाई की चर्चा जबतक ना हो तबतक वह कहानी अधूरी सी लगती है। चाहे वह शिवबारात हो या फिर मुहर्रम बिस्मिल्लाह खां हर मौके पर शहनाई बजाते। बनारस से उन्हें एक खास लगाव था। एक बार जब वह विदेश के दौरे पर गए तो वहां आयोजकों ने कहाँ कि आप यहीं रहिए आपके आसपास बनारस के लोग ही हमेशा मौजूद रहेंगे। तब खां साहब ने कहा ‘लोगों का क्या है वो तो आ जाएंगे लेकिन मेरी गंगा कहाँ से लाओगे।’
कोठे पर सीखा संगीत
बिस्मिल्लाह खां अपने शुरूआती दिनों में बालाजी मंदिर पर रियाज करने जाते थे। बालाजी मंदिर जाने का कई रास्तों में एक रास्ता दालमंडी होकर भी जाता था। जहां रास्ते में ही रसूलन बाई और बतलून बाई के कोठे थे। खां साहब को जब भी समय मिलता वो वहां पहुंच जाते जब उनके भाई ने कहा कि वहां जाना हराम है तब उनका जवाब था “दिल से निकली आवाज में पाक और नापाक क्या होता है।” बिस्मिल्लाह खां ने कई शुरु वहीं जाकर सीखा।
सादगी भरा जीवन
अपने पूरे जीवन में बिस्मिल्लाह खां कई पुरस्कार मिले लेकिन उनके पैर कभी डगमगाए नहीं। सफलता के सर्वोच्च शिखर पर भी पहुंचकर वो हमेशा ही सरल रहे। उन पर किताब लिखने वाले यतीन्द्र मिश्रा एक इंटरव्यू में बताते हैं कि ‘ एक बार एक टीवी चैनल वाले उनका इंटरव्यू लेने आए तो उन्होंने कपड़ा नहीं बदला। बगल में बैठी शिष्या ने कहा कि आप भारत रत्न फटी लुंगी में इंटरव्यू मत दिया करिए। उसके जवाब में उन्होंने कहा कि मुझे भारत रत्न शहनाई पर न मिला है। लुंगी का क्या आएगी-जाएगी। लेकिन खुदा किसी को फटा सुर ना दे नहीं तो जिन्दगी बर्बाद हो जाएगी।” यतीन्द्र एक और किस्सा सुनाते हैं कि एक बार उन्हें आकाशवाणी बंबई से रिकार्डिंग का निमंत्रण आया और उसमें उनसे राग केदार और बहार गाने का अनुरोध किया गया लेकिन जब उन्होंने नहीं बजाया तो स्टेशन मास्टर ने कहा है कि अगर राग केदार और बहार बजा देते तो बहुत अच्छा रहता। जवाब में खां साहब ने कहा बर्खूद्दार आप ने ठीक ही कहा मैं आपके लिए केदार और बहार ही तैयार करके आया था। लेकिन जब मैंने आपसे जलेबी मांगी तब आपने मुझे बर्फी खिलाया और कहा इसी से काम चला लिजिए। जब आपने मुझे जलेबी की जगह बर्फी से काम चलाने के लिए कहा तो इस बार आप छाया नट से काम चला लिजिए इस बार मैं केदार और बहार नहीं बजाऊंगा।’
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कभी पैसे के पीछे ना भागने वाले बिस्मिल्लाह खां को अपने जीवन के अंतिम दिनों में काफी संघर्ष करना पड़ा था। बनारस के तहजीब और संस्कार की बात जब भी की जाएगी बिस्मिल्लाह खां का नाम उसमें बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाएगा।कोोट