जयंती विशेष : एक ऐसे क्रांतिकारी की दास्तां, जिसे छू न सकी अंग्रेजों की गोली
उपर्युक्त अपने दृढ़ संकल्प को महान भारतीय क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद ने निभाया। सच में चंद्रशेखर भारत माता के वह वीर सपूत थे, जिनको अंग्रेजों की गोली छू न सकी। क्रूर अंग्रेजों के विरूद्ध क्रांति का ज्वार उठाने वाले आज़ाद व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की तिलांजलि देते हुए अपना सर्वोच्च बलिदान मां भारती के चरणों में समर्पित कर दिये। अदालत में चंद्रशेखर अपना नाम ‘आज़ाद’, पिता का नाम ‘स्वतंत्रता’ और ‘जेल’ को अपना निवास स्थान बताये। यह घटना उनकी वीरता व निर्भीकता का अत्यंत उत्कृष्ट उदाहरण है।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सर्वाधिक प्रखर योद्धा चन्द्रशेखर आज़ाद ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ के ‘कमाण्डर इन चीफ’ थे। आज़ाद ने स्वाधीनता हेतु क्रांति की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर क्रांतिकारियों की पीढ़ी तैयार की और स्वराज व लोकराज्य की स्थापना के साथ स्वतंत्र भारत की कल्पना की।
चन्द्रशेखर आज़ाद ने रंगून से लेकर पेशावर तक तथा पेशावर से चटगाँव तक क्रांति-सूत्रों को जोड़ा। 1925 से 1931 तक लगभग सभी क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालक व सहभागी रहे। स्वतंत्रता संग्राम में वे ब्रिटिश सरकार के लिये आतंक का पर्याय बन गये थे। क्रांतिकारियों ने काकोरी में ट्रेन रोककर दिन दहाडे़ अंग्रेजों से अपना खजाना वापस छीन लिया।
दरअसल इतिहासकारों ने लिखा है और लोक परंपरा-चेतना में रच-बस गया है कि क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सरकार का खजाना लूट लिया। यह तो हद है। जब देश हमारा तो यहाँ का खजाना अंग्रेजों का कैसे हुआ। वास्तविकता तो यह है कि हमारे (भारत) खजाने को अंग्रेजों के कब्जे से क्रांतिकारियों ने छुड़ाया। क्रांतिकारियों की इस कार्रवाई ने ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी।
जन्म व आरंभिक जीवन
मध्यप्रदेश अंतर्गत झाबुआ जनपद के भाबरा गाँव में 23 जुलाई, 1906 को जन्मे चंद्रशेखर आज़ाद को बचपन में ही माता-पिता ने सिखाया था कि ‘अपराधी को दंड मिलना ही चाहिए।’ इस सिद्धांत को उन्होंने अपना जीवन-सूत्र बना लिया था। आज़ाद के माता-पिता उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका ग्राम से तत्कालीन देशी राज्य अलीराजपुर के भाबरा में आ बसे थे।
आज़ाद की माता का नाम जगरानी देवी व पिता का नाम पं. सीताराम तिवारी था। माँ उन्हें संस्कृत का शिक्षक बनाना चाहती थीं। झाबुआ के जनजातीय बंधुओं से बचपन में चंद्रशेखर तीरंदाजी की शिक्षा लिये थे। परिवार के दबाव में आज़ाद ने अलीराजपुर में नौकरी शुरू की। 1920-21 के जमाने में घर से भागकर कुछ दिनों बंबई (मुंबई) में नौकरी की। मुंबई में अंग्रेजों द्वारा मजदूरों पर हो शोषण देखकर उनके विरुद्ध संघर्ष की चेतना विकसित हुई। वहाँ से बनारस पहुँचे और विद्यापीठ में दाखिल हुए।
असहयोग आंदोलन में सहभागिता
बनारस में उन दिनों महात्मा गांधी का असहयोग आंदोलन चल रहा था। गांधी के आंदोलन में चंद्रशेखर कूद पड़े। यहीं से उनके जीवन-संघर्ष का श्रीगणेश हुआ और एक दिन आंदोलन में धरना देते समय पकड़े गये।
मिली 15 बेंत की सजा
पारसी मजिस्ट्रेट खरे घाट की अदालत में चंद्रशेखर आज़ाद का मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट के प्रश्नों का जो जवाब दिया, आज भी लोगों के हृदय में गूँजता है। जज ने पूछा – तुम्हारा नाम? जवाब – आज़ाद। बाप का नाम? – स्वाधीन। घर का पता? – जेल खाना। चंद्रशेखर के बेबाक उत्तर से मजिस्ट्रेट तिलमिला उठा और 15 बेंतों की सजा सुनाई।
तिवारी से आजाद का सफर
मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने उत्तरों से आज़ाद ने अंग्रेजों के विरुद्ध पूरी शक्ति से उठ खड़े होने का संकेत दे दिया था।15 बेंत की सजा हंसते-हंसते सह गये। इतिहासकारों के अनुसार – तत्कालीन समय शरीर पर सट-सट पड़ने वाली प्रत्येक बेंत के साथ आज़ाद ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाए थे। इसी घटना के बाद से चंद्रशेखर तिवारी के स्थान पर उन्हें ‘चन्द्रशेखर आज़ाद’ पुकारा जाने लगा था।
पुकारे जाते थे ‘क्विकसिल्वर’ (पारा)
आज़ाद अपनी बहादुरी का तो परिचय देते ही थे, उनकी कुशल बुद्धि भी अत्यंत सराहनीय थी। बनारस में संपूर्णानन्द ने कांग्रेस का एक नोटिस अंग्रेज कोतवाली के पास चिपकाने के लिये उन्हें दिया। चारों तरफ अंग्रेज पुलिस का सख्त पहरा था। आज़ाद नोटिस अपनी पीठ पर उलटकर चिपका लिये और नोटिस के पीछे लेई लगा ली। वे कोतवाली में लगे तार के खंभा से सटकर खड़े हो गये और मजे से सिपाही से बातें करते रहे। जब सिपाही दूसरी तरफ निकल गया तो आज़ाद सहजतापूर्वक वहाँ से चल दिये। कुछ देर बाद सिपाही वापस लौटा तो देखा कि खंभे पर लगे नोटिस को पढ़ने के लिये राहगीर एकत्रित हो रहे हैं। यह देख सिपाही चौंक गया। ऐसी थी होनहार आज़ाद की चतुराई। दल में अपनी चतुराई के कारण ‘क्विकसिल्वर’ (पारा) कहलाते थे।
काकोरी ट्रेन कांड (09 अगस्त, 1925)
09अगस्त, 1925 को काकोरी संग्राम में चंद्रशेखर आज़ाद के साथ राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाखां, राजेन्द्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, बनवारीलाल, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुंदलाल, केशव चक्रवती, मुरारी लाल व रोशन सिंह शामिल थे। काकोरी घटना के आरोप में आज़ाद को छोड़कर सभी साथी पकड़े गये। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाखां, रोशन सिंह, राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी और शेष को काला पानी व अन्य सजाएँ हुईं। काकोरी अभियान के बाद आज़ाद का अज्ञातवास जीवन आरंभ हुआ। अंग्रेज सरकार उनपर पाँच-पाँच हजार का तीन पुरस्कार घोषित कर रखी थी। इस प्रकार के अभियानों से प्राप्त धन से सभी क्रांतिकारी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई लड़ रहे थे। पैसों का चंद्रशेखर ने दुरुपयोग नहीं होने दिया।
बैरिस्टर बी. के. चौधरी (कलकत्ता), चन्द्रभानु गुप्त, गोविंद बल्लभ पंत, मोहनलाल सक्सेना और श्री कृपाशंकर हजेला अधिवक्ताओं ने अभियुक्तों की नि:शुल्क पैरवी की थी। काकोरी कांड में शाहजहांपुर के बनारसीलाल व इन्दुभूषण मिश्र और शिवचरणलाल (मथुरा-आगरा) सरकारी गवाह बन गये, जिसके बाद इन तीनों को माफ कर दिया गया। काकोरी मुकदमा कुल 10 महीने चला और 10 लाख खर्च आया।
काकोरी कांड में सजा प्राप्त अन्य क्रांतिकारी
• रोशन सिंह (फाँसी (19-12-27), मलाका, प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद)।
• शफीन्द्रनाथ सान्याल (आजन्म कैद)
• जोगेशचन्द्र पटजी (आजन्म कैद)
• गोविन्द चरण कर (आजन्म कैद)
• विष्णुशरण दुबलिश (आजन्म कैद)
• सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य (10 वर्ष कैद)
• रामकृष्ण खत्री (10 वर्ष कैद)
• राजकुमार सिन्हा (10 वर्ष कैद)
• प्रेमकृष्ण खन्ना (05 वर्ष कैद)
• रामदुलारे त्रिवेदी (05 वर्ष कैद)
• भूपेन्द्रनाथ सान्याल (05 वर्ष कैद)
• रामनाथ पाण्डे (03 वर्ष कैद)
• प्रणवेशकुमार चटर्जी (04 वर्ष कैद)
काकोरी कांड योजना
क्रांतिकारियों ने ट्रेन पर हमला करने के लिये जो योजनाएँ बनाई, उनमें एक बात निकलकर के आई कि अंग्रेज गार्ड, ड्राइबर, स्टेशन मास्टर या कोई अधिकारी विरोध करे तो उसे तत्काल गोली मार दी जाएगी, जबकि चंद्रशेखर आज़ाद ने हत्या का प्रतिकार किया। प्रतिदिन सभी स्टेशनों से होने वाली आमदनी लेकर लखनऊ हेड ऑफिस पहुँचने वाली 08 नम्बर की डाउन ट्रेन को लूटने की योजना बनाई गई थी। 08 अगस्त, 1925 को विलम्ब से पहुँचने के कारण यह योजना सफल नहीं हो पाई।
09 अगस्त, 1295 को दूसरी योजना पर क्रांतिकारियों ने काम किया। दोपहर के समय लखनऊ से पश्चिम जाने वाली गाड़ी पर सवार हुए और काकोरी स्टेशन उतर गये। शाम छह बजे उसी काकोरी स्टेशन से आठ डाउन ट्रेन पर सवार हो गये। अशफाक, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और शचीन्द्रनाथ बख्शी टिकट लेकर सेकेंड क्लास डिब्बे में सवार थे, इनपर जंजीर खींचने की जिम्मेदारी थी।
पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुन्दीलाल, चन्दशेखर, बनवारी लाल और मन्मथनाथ गुप्त प्रत्येक डिब्बे में फैले थे। इन क्रांतिकारियों पर गार्ड को पकड़ने और खजाना छुड़ाने की जिम्मेदारी थी। इस घटना में माउजर पिस्तौल का उपयोग किया गया था। क्रांतिकारियों को देख यात्री डर गये, जिन्हें क्रांतिकारियों ने आश्वस्त किया कि यात्रियों को लूटने नहीं, अंग्रेजों से खजाना छुड़ाने आये हैं। क्रांतिकारियों ने हवाई फायरिंग भी की थी।
काकोरी केस की विशेषताएँ
प्रथम बार अदालत को क्रांतिकारी प्रचार कार्य के रूप में इस्तेमाल किया गया। इसी तकनीकी को बाद में भगत सिंह और यतीन्द्रनाथ ने पराकाष्ठा तक पहुँचाया। क्रांतिकारी बेडि़यों की झनकार पर भारत माता की जय के नारे लगाते थे।
मुकदमा की पैरवी करने वाले चन्द्रभानु गुप्त और गोविन्दवल्लभ पन्त बाद में उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पंत बाद में भारत सरकार के गृहमंत्री भी बने। वकील मोहनलाल सक्सेना भी भारत सरकार के मंत्री बने।
कैदी क्रांतिकारियों ने अनशन करके अंग्रेज सरकार से यूरोपीय कैदियों जैसा व्यवहार प्राप्त किया। चन्द्रभान गुप्त को मांगे असम्भव लगी थीं, लेकिन गणेश शंकर विद्यार्थी को अनशन पर पूर्ण विश्वास था। काकोरी के आरोप में फरार चन्द्रशेखर आज़ाद (भगत सिंह के साथ) दल के नेता बने और 06 साल सक्रिय फरारी जीवन का विश्व रिकार्ड स्थापित किये।
काकोरी कांड के चार व्यक्ति विष्णुशरण दुबलिश, जोगेश चटर्जी, प्रेमकृष्ण और दामोदरस्वरूप सेठ बाद में संसद सदस्य हुए। जनसंघ के टिकट पर शचीन्द्रनाथ बख्शी उत्तर प्रदेश में विधानसभा के सदस्य चुने गये।
अज्ञातवास जीवन
काकोरी अभियान के बाद चंद्रशेखर को 06 वर्ष अज्ञातवास जीवन व्यतीत करना पड़ा। इन विषम परिस्थितियों के दौरान मध्यप्रदेश में ओरछा के पास ढिमरपुरा गाँव में सातार नदी के तट पर ब्रह्मचारी बनकर हनुमान मंदिर में रहे। ग्रामवासियों को रामायण सुनाने व बच्चों को पढ़ाने के साथ ही स्वतंत्रता के प्रति जागरण भी करते थे। साथ ही अपने क्रांतिकारी साथियों की सहायता हेतु उनसे संपर्क में रहते थे और प्रवास भी करते थे।
चरित्र
चंद्रशेखर बहादुर, चतुर, दयालु होने के साथ ही अत्यंत चरित्रवान भी थे। उन्होंने पूरा जीवन ब्रह्मचारी सा जिया और महिलाओं को माँ व बहन के रूप में ही देखा। नारी के प्रति सम्मान व श्रद्धा भाव का एक उदाहरण है – जब रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में एक गाँव में आज़ाद और मन्मथनाथ गुप्त ने डेरा डाला, तब अचानक घर की महिलाओं ने भ्रमवश डंडों से हमला कर दिया। अपने आदर्शों पर टिके आज़ाद ने पलटवार नहीं किया। जिस शूरवीर के आगे अंग्रेज सिपाही ठहर नहीं पाते थे, यह उनका आदर्श चरित्र ही था कि वे सबकुछ सहते रहे और वहाँ से चलते बने।
व्यक्तित्व
एक दिन छुपते-छुपाते एक घर में घुस गये। वृद्ध महिला ने भोजन कराया। उसकी पुत्री भोजन परोस रही थी। आज़ाद ने उसके पति के बारे में पूछा। महिला ने दहेज के अभाव में शादी न होने की बात बताई तो उन्होंने प्रस्ताव दिया कि मेरे ऊपर पाँच हजार रुपये का पुरस्कार है। तुम मुझे पुलिस के हवाले कर दो। उस पैसे से अपनी बेटी का विवाह कर देना, लेकिन मेरे पास रखी राशि साथियों तक पहुँचा देना।
वृद्ध महिला ने उत्तर दिया कि ‘पाँच हजार तो क्या पाँच लाख भी मिले तो मैं यह गद्दारी नहीं करूंगी।’ रात को वहीं विश्राम किये। सुबह एक पत्र व कुछ धन छोड़कर वहाँ से निकल आये थे। पत्र में लिखा था – ‘जितनी जल्दी हो सके मेरी बहन की शादी कर देना।’
अंग्रेजों को झाँसा देकर बनवाए मोटर-लाइसेंस
चंद्रशेखर झाँसी में ही हरिशंकर मोटर ड्राईवर बनकर यातायात पुलिस अधीक्षक के सामने गाड़ी चलाने का टेस्ट देकर मोटर-लाइसेंस प्राप्त किये। आज़ाद की विशेषता ही थी कि खोजती पुलिस के साथ रहकर भी वह कभी पकड़े नहीं गये और कठिन परिस्थितियों में भी काम करते रहे।
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ की स्थापना
चौरी-चौरा कांड के कारण असहयोग आंदोलन के स्थगित होने के बाद बनारस में क्रान्तिकारी दल पुन: संगठित और सक्रिय हुआ तो मन्मथनाथ गुप्ता के संपर्क से शचीन्द्रनाथ सान्याल द्वारा स्थापित क्रांतिकारी दल हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ में चंद्रशेखर शामिल हो गये। अक्टूबर, 1924 में हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ की स्थापना कानपूर में हुई थी। जुलाई, 1928 में विभिन्न दलों को मिलाकर क्रांतिकारियों का एक अखिल भारतीय संगठन बनाने का विचार क्रांतिकारियों के मन में आया।
चंद्रशेखर के नेतृत्व में पंजाब, संयुक्त प्रांत, बिहार, राजस्थान और बंगाल के प्रतिनिधियों की बैठक 08 व 09 सितम्बर, 1928 को दिल्ली (फिरोज शाह कोटला मैदान) में गुप्त बैठक आयोजित की गई। चंद्रशेखर इस बैठक में सुरक्षा को देखते हुए शामिल नहीं हो सके थे। बैठक में चर्चा-विमर्श के बाद हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ का नाम परिवर्तित करते हुए हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ गठित हुआ। चंद्रशेखर सारे दल के अध्यक्ष होने के साथ-साथ सेना विभाग के नेता भी चुने गये थे।
हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ के कार्य
साईमन कमिशन का विरोध और लाला लाजपत राय की हत्या के आरोपी सांडर्स की हत्या। असेंबली में बम फेंकना। सांडर्स की हत्या के लिये चंद्रशेखर, भगत सिंह, राजगुरू, जयगोपाल चुने गये थे।
साण्डर्स वध और लाजपत राय का बदला
लाहौर में साईमन कमीशन का विरोध कर रहे क्रांतिकारी लाला लाजपत राय पर 20 अक्टूबर, 1928 को अंग्रेज पुलिस ने बर्बरता से लाठियाँ बरसाई। 17 नवम्बर, 1928 को लाला लाजपत की मृत्यु हुई। ‘खून का बदला खून से’ इस संकल्प के साथ चंद्रशेखर ने साण्डर्स के वध की योजना बनाई। राजगुरू और भगत सिंह ने 17 दिसम्बर, 1928 को लाहौर में ही पुलिस चौकी से निकलते समय साण्डर्स को गोली मार दी। साण्डर्स का अंगरक्षक चानन सिंह ने भगत सिंह, राजगुरू का पीछा किया, जिसको गोली मारकर चंद्रशेखर ने ढेर कर दिया। इस तरह लाजपत राय का बदला क्रांतिकारियों ने ले ली।
असेंबली बमकांड (08 अप्रैल, 1929)
08 अप्रैल 1929 को सबसे पहले भगत सिंह ने बम फेंका। जयदेव ने असेंबली में पर्चे उड़ाये थे। गुलाबी रंग के पर्चे कमांडर-इन-चीफ बलराज के फर्जी नाम से फेंके गये थे। जार्ज भुस्टर मेज के नीचे छिप गया और जार्ज साईमन सदन से बाहर आ गया। सदन में मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना तथा अध्यक्ष विट्ठल भाई पटेल अपने स्थान पर खड़े रहे। आरोपियों पर मुकदमा 07 मई से शुरू हुआ। भगत सिंह फ्रांसीसी क्रांतिकारी वेलां (ऑगस्टे वैलिएंट) से प्रभावित थे। इसने फ्रांस की असेंबली में बम फेंककर क्रांति भावना को मुखर रूप से अदालत के सामने प्रस्तुत किया था। केन्द्रीय टीम की बैठक में असेंबली में बम फेंकने पर चर्चा हुई थी। भगत सिंह ने कहा कि इससे किसी की जान नहीं लेंगे। हम सभी गिरफ्तारी देंगे और न्यायालय के मंच का उपयोग अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिये करेंगे। असेंबली में धमाका करने से पूर्व जयदेव कपूर पाँच-छह दिन दर्शक-दीर्घा में बैठकर जाँच किये कि कहाँ बम फेंकना उचित रहेगा।
इरविन को बम से उड़ाने को कोशिश, गांधी की प्रतिक्रिया व चंद्रशेखर का जवाब
कांग्रेस व महात्मा गांधी के ढुल-मूल रवैये से हताश क्रांतिकारियों ने लार्ड इरविन को बम से उड़ाने की योजना बनाई थी। 23 दिसम्बर, 1929 को बम से उड़ाने की कोशिश असफल सिद्ध हुई। इस वारदात के बाद गांधी ने क्रांतिकारियों की कड़ी आलोचना की।
गांधी ने अपने यंग इंडिया पत्रिका में ‘कल्ट ऑफ द बॅम्ब’ शीर्षक से लेख में क्रांतिकारियों को आत्मबल-हीन, कायर, हत्यारा आदि संबोधित किया। कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित करके क्रांतिकारियों की निंदा की।
क्रांतिकारियों की स्थिति यह थी कि वे मंच साझा नहीं कर सकते थे और उन्हें गांधी के आरोपों का जवाब भी देना था। चंद्रशेखर के कहने पर भगवती चरण ने ‘फिलासफी ऑफ द बॅम्ब’ शीर्षक से लेख लिखा और पर्चे पर छपवाकर 26 जनवरी, 1930 को पूरे देश में वितरण कराया गया। क्रांतिकारियों के इस लेख को पूरे देश ने सराहा था।
क्रांतिकारी प्रशिक्षण केन्द्र
चंद्रशेखर आज़ाद ने अनेक स्थानों पर क्रांतिकारियों के लिये प्रशिक्षण केन्द्र खोले, जहाँ बम व कारतूस का प्रशिक्षण प्रदान किया जाता था। आज़ाद ने मुंबई, वाराणसी, शाहजहांपुर, गाजीपुर, प्रयागराज, झाँसी, बुन्देलखण्ड रियासत, भोपाल रियासत, खनियाधाना, ओरछा, टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, कानपुर, आगरा, दिल्ली, लाहौर अनेक स्थानों पर क्रांति की अलख जगाई। चंद्रशेखर ने रंगून से लेकर पेशावर तक, पेशावर से चटगाँव तक क्रांति-सूत्रों को जोड़ा। 1925 से 1931 तक लगभग प्रत्येक क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालक व सहभागी रहे।
पकड़ने के लिये बना था आज़ाद सेल
ब्रिटिश सरकार ने पुलिस विभाग में ‘चंद्रशेखर आज़ाद सेल’ बनाया था। सेल का उद्देश्य आज़ाद को जीवित गिरफ्तार करने अथवा उन्हें मारने के काम में पूरी शक्ति से काम करना था। कल्पना की जा सकती है कि अंग्रेजों के लिये चंद्रशेखर कितने खतरनाक थे। सैकड़ों व्यक्ति उनकी गिरफ्तारी के लिये तैनात किये गये थे।
महानायक का बलिदान
27 फरवरी, 1931 को महानायक आज़ाद अपने क्रांतिकारी साथी सुखदेव राज के साथ प्रयागराज (इलाहाबाद) के अल्फ्रेड पार्क में आंदोलन की योजना बनाने के लिये उपस्थित थे, तभी अंग्रेज पुलिस ने उन्हें घेर लिया। परिस्थिति देख उन्होंने वहाँ से सुखदेव को भेज दिया और अकेले अंग्रेज सिपाहियों के विरुद्ध मोर्चा संभाल लिये। उन्होंने संकल्प लिया था कि आज़ाद जिएंगे, अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे, जिसका उन्होंने पालन करते हुए देश के लिए अपना बलिदान दे दिया। अंग्रेज पुलिस उन्हें हाथ लगाती, इसके पहले उन्होंने अपनी प्रिय ‘बमतुलबुखारा’ पिस्तौल से स्वयं को गोली मार ली और मातृभूमि को स्वतंत्र कराने वाले लाखों बलिदानियों की सूची में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में दर्ज करा गये। उनकी वीरगाथा देशवासियों के लिये प्रेरणा का स्रोत है।
चंद्रशेखर से जुड़े प्रसंग
कोई माई का लाल नहीं पकड़ सकता
दल में आपस में चलने वाले अमोद-विनोद के दौरान चंद्रशेखर से जब कभी भगत सिंह कहते कि पंडितजी! दल के नेता के रूप में पकड़े जाने पर आपको तो निश्चित रूप से फाँसी की ही सजा होगी और तब आपके लिये दो रस्सी की जरूरत पड़ेगी। एक आपके गले के लिये और दूसरा आपके इस भारी-भरकम पेट के लिये।
तब आजाद चिढ़ाते हुए कहा करते थे कि देख, पुलिस मुझे रस्सी से बाँधकर बंदरिया जैसा नाच-नचाती फिरे और फिर मुझे फाँसी पर टांग दे, यह मुझे कभी अच्छा नहीं लगता। वह तुझे मुबारक हो। “जब तक यह ‘बमतुलबुखारा’ (पिस्तौल) मेरे हाथ में है, कोई माई का लाल मुझे जीवित नहीं पकड़ सकता।”
अपने इस इरादे को उन्होंने कविता की पंक्ति का रूप दे रखा था –‘दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे – आज़ाद ही रहे हैं आज़ाद ही रहेंगे।’ यह भविष्यवाणी सर्वथा सत्य भी हुई।
रास नहीं आया मठ
उदासीन साधुओं के महामंडल प्रांत मंत्री गोविन्द प्रकाश उर्फ रामकृष्ण खत्री को चन्द्रशेखर ने आंदोलन से जोड़ रखा था। गोविन्द प्रकाश ने एक दिन बात-बात में चंद्रशेखर से कहा कि एक महंत एक शिष्य को गोद लेना चाहते हैं, यदि पार्टी का कोई सदस्य महन्त का शिष्य बन जाए तो साल दो साल में (मरने के उपरांत) उनकी संपत्ति हमलोगों को मिल जाएगी, जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में उपयोग किया जा सकता है।
आंदोलनों के लिये धन को लेकर चिंतित चंद्रशेखर ने बात मान ली और पार्टी की सहमति पर वाराणसी के निकट गाजीपुर जिला स्थित मठ पर चले गये। मठ में आज़ाद व्यस्त रहने लगे। महंत के हट्टे-कट्टे शरीर से उन्होंने अंदाजा लगाया कि ये जल्दी मरने वाले नहीं हैं और दो माह के भीतर ही मठ त्यागकर वापस वाराणसी पहुँच आए। महंत उन्हें अखबार भी नहीं पढ़ने देते थे। महंत के पास चन्द्रशेखर को गुरूमुखी सीखकर गुरूग्रन्थ साहब को पढ़ना पड़ा। जमींदारी, दूध दुहने से लेकर कुटी काटने तक का काम किये।
क्रांतिकारियों की सहायता
काकोरी अभियान के मुकदमें के सिलसिले में जब रियासत उल्लाखां लखनऊ जेल में अपने भाई अशफाक उल्लाखां से मिलने गये तो आज़ाद को जानकारी प्राप्त हुई कि मुकदमा के लिये पैसे की आवश्यकता है। वह रात के अंधेरे में अशफाक उल्लाखां के घर जाकर पैसे पहुँचा आये। अन्य मृत्युदण्ड पाये तीन प्रमुख क्रान्तिकारियों (भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव) की सजा कम कराने का काफी प्रयास चंद्रशेखर किये।
क्रांतिकारियों को नेहरू ने कहा – फासिस्ट व आतंकवादी
भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव की फाँसी के सिलसिले में चंद्रशेखर उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी के परामर्श पर तत्कालीन तत्कालीन इलाहाबाद वर्तमान प्रयागराज गये और जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की।
पण्डित नेहरू से आज़ाद ने आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्रकैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू आज़ाद की बात नहीं मानें।
गांधी, कांग्रेस हाईकमान व ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों के विषय पर बात करने के लिये नेहरू से आज़ाद ने कहा। आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस भी की, जिससे नेहरू क्रोधित हुए। वार्ता के दौरान नेहरू ने क्रांतिकारियों को फासिस्ट व आतंकवादी संबोधित किया।
झूम-झूमकर गाते थे यह गीत –
जेंहि दिन होइ है सुरजवा
अरहर के दलिया, धान के भतुआ
खूब कचर के खैबे
अरे जेहि दिन होई है सुरजवा…
महानायक आज़ाद की यही चाह थी कि भारत में प्रत्येक को पेट भर भोजन, तन पर कपड़ा और सिर पर छप्पर हो। वह स्वतंत्र भारत में ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे, जिसमें आम जनता का राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक शोषण न हो।
(यह लेख सेंटर फार सोशल स्टडीज , भोपाल से जारी किया गया है)