रामाशीष यादव

हरेली त्यौहार प्रकृति के प्रति प्रेम और समर्पण दर्शाता है। सावन मास की अमावस्या तिथि को मनाये जाने वाले इस त्यौहार को हरियाली आमवस्या के नाम से जाना जाता है। हिन्दी के हरियाली शब्द से ही हरेली शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के अन्य हिस्सों में बैगा जनजाति सहित सभी देशवासी हर्षोल्लास के साथ अलग-अलग नामों से यह पर्व मनाते हैं।

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इस त्यौहार के दिन किसान अपने खेती में प्रयोग होने वाले औज़ारों का पूजन करते हैं। खेतों के मेढ़ बांधे जाते हैं। इस दिन अपने पशुधन की भी पूजा की जाती है और अच्छी पैदावार की कामना की जाती है। घर का वरिष्ठ सदस्य सूर्योदय से पूर्व उठकर जंगल या बागीचे से अनुष्ठानिक लकड़ियां तथा वनस्पतियां काटकर खेत पर लाता है और विधि-विधान से पूजन करता है। यह पर्व हमारी कृषि-परंपरा की महत्ता को रेखांकित करता है। धरती पर हरियाली को लेकर भी पर्व है, हरियाली भी उत्सव का कारण होनी चाहिए, यह संकल्पना अपने हिन्दू संस्कृति की ही देन है। इस अवसर पर कुलदेवता-देवी की पूजा भी होती है।

भारतीय सनातन हिन्दू शास्त्रों में वृक्ष को 10 पुत्र के समान माना गया है, प्रकृति का पूजन हमारा सांस्कृतिक विधान है। भगवान कृष्ण के भाई बलिराम कृषि में प्रयुक्त होने वाले औजार हल को धारण करते हैं। कृष्ण स्वकयं गौपालन करते हैं। गाय चराते हैं। अर्थात हमारे शास्त्र, देवता, संस्कृति ये सब प्रकृति व कृषि से संबंध स्थापित करते हैं।

तस्वीर: पत्रिका

गांव में एक यह भी परंपरा है कि हरेली के दिन गाय के रहने के स्थान पर कंडा से कुंती पुत्र अर्जुन के ग्यारह नाम लिखते हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि ऐसे करने से जानवरों को बरसाती बीमारी नहीं होती है। इस परंपरा की पीछे जो भाव है, यह है कि किसान अपने खान-पान और स्वास्थ्य के लिए जितना चिंतित रहते हैं, उससे कहीं अधिक अपने पशुधन की रक्षा हेतु अत्यंत संवेदनशील होते हैं। भारतीय नागरिकों के संवेदनशीलता का इससे अंदाजा लगाई जा सकती है कि पशुधन का नामकरण मनुष्यों के नामों, देवी-देवताओं के नाम पर होता है।

इस त्यौहार में सुबह-सुबह घरों के प्रवेश द्वार पर नीम की पत्तियाँ व चौखट में कील लगाने की परंपरा है। ऐसा मान्याता है कि द्वार पर नीम की पत्तियाँ व कील लगाने से घर में रहने वाले लोगों की नकारात्मक शक्तियों से रक्षा होती हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह अंधविश्वाघस है, लेकिन नीम पर हुए शोधों पर नजर दौड़ाई जाए तो इस परंपरा के पीछे वैज्ञानिक कारण है – चूंकि यह त्यौहार बारिश के मौसम में पड़ता है। अत: बारिश के दिनों में गड्ढों, नालों में पानी भर जाने से बैक्टीरिया, कीट व अन्य हानिकारक वायरस पनपने का खतरा पैदा हो जाता है और दरवाज़े पर लगी नीम और लोहा उन्हीं हानिकारक वायरस को घर में घुसने से रोकने का काम करती है। नीम की पत्तियों में बहुत से औषधीय गुण होते हैं। यह पत्तियां रोगाणुओं के प्रभाव को कम करती हैं।

हरेली का यह पर्व हरियाली, कृषि को आधार मानकर ही विकास की डगर पर बढ़ने हेतु मार्गदर्शन करता है। धरा को सुन्दार, स्वरच्छक, रोगमुक्त् बनाने हेतु हरेली के संदेश को अपने लोक-जीवन में धारण करना होगा। उल्लेखनीय है कि सावन मास की आमवस्या को विभिन्न जनजातियों सहित देश के विभिन्न समुदायों के नागरिक अच्छी फसल के लिये वर्षा हेतु तरह-तरह के कामना-उत्सव मनाते हैं। वर्षा के लिये भगवान इन्द्र की पूजा होती है।

(लेखक सेंटर फॉर सोशल स्ट्डीज, भोपाल में बतौर उप कंटेंट संपादक मध्यप्रदेश के वनवासियों, सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास के साथ ही स्वाधीनता संग्राम सेनानियों पर काम कर रहे हैं।)