तस्वीर: Dainik Jagarn

राहुल मिश्रा

आज कोरोना महामारी हमारी मानव सभय्ता का सबसे बड़ा दुश्मन बन बैठा है। पूरा विश्व इस महामारी के खिलाफ एक जुट होकर लड़ रहा है, लेकिन इन सब के बीच हमारे पड़ोसी मुल्क चीन और पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। यह दोनों देश बार-बार हमारे देश की सरहदों पर अपना गन्दा खेल खेलने में लगे हुए हैं। आज के इस दौर में यह कहना बिलकुल भी गलत नहीं होगा की इन दोनों देशो की नीतियां किसी न किसी तरह भारत को अस्थिर करना और चोट पहुंचाने की है।

अभी हाल ही में चीन ने नार्थ सिक्किम और लद्दाक के रास्ते भारत में घुसपैठ की कोशिश की जिसे भारतीयों सैनिकों ने नाकाम कर कर दिया। हालांकि भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। 5 मई को पांगोंग झील की उत्तरी तट पर चीन और भारत के सैनिक भीड़ गए थे,वहीं 9 मई को नाथू ला पास के नजदीक भारत और चीन के सैनिकों में झड़प हुई वहीं दूसरी तरफ लद्दाक में हुई झड़प के बाद चीन के हेलीकाप्टर भी वास्तविक सीमा रेखा के पास मंडराते दिखे और इन सब के बीच भारत ने भी अपने लड़ाकू विमान भेज दिए। कोरोना वायरस के कारण चीन पूरी दुनिया में बदनाम हो चुका है। तमाम कम्पनियां चीन से अब बाहर जा रही हैं वहीं अमेरिका की कंपनी बज फोटोज ने चीनी सरकार,सेना और वुहान इंस्टिट्यूट ऑफ़ वायरोलॉजी के खिलाफ 20 ट्रिलियन डालर हर्जाने का मुकदमा लगा दिया है। दूसरी तरफ जर्मनी ने भी चीन को कोरोना के कारण हुए नुकसान के लिए 149 बिलियन यूरो का बिल भेजा है,जिससे चीन परेशान है। चीन विश्व समुदाय का ध्यान महामारी से हटाना चाहता है और शायद यही कारण है कि जिसकी वजह से चीन भारत के साथ एक बार फिर से सीमा विवाद में उलझना चाहता है। दूसरी तरफ इनके रवैए में आई इस आक्रामकता का एक और कारण माना जा रहा है और वह यह है कि भारतीय मौसम विभाग ने अपनी मौसम रिपोर्ट और अनुमान में पाकिस्तान के कब्जे वाले गिलगित बाल्टिस्तान और मुजफ्फराबाद आदि कश्मीर के क्षेत्रों को भी शामिल कर लिया है और इन क्षेत्रों का भी मौसम बताना शुरू कर दिया है इससे चीन को अपने प्रभाव कम होने का खतरा सताने लगा है। अब समय आ गया है कि भारत को एक बार फिर से सतर्क रहने की जरूरत होगी।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मध्यस्थता की पेशकश

हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति ने भारत-चीन सीमा पर उत्पन्न गतिरोध के मद्देनज़र दोनों देशों के बीच मध्यस्थता करने की पेशकश की है। गौरतलब है कि ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (Line of Actual Control- LAC) पर बढ़ते तनाव के मद्देनज़र पहली बार अमेरिका ने भारत और चीन के बीच मध्यस्थता की पेशकश की है। कुछ महीने पहले भी अमेरिका ने कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता की पेशकश की थी लेकिन भारत ने इसे खारिज़ कर दिया था। भारत ने यह कहते हुए अपनी स्थिति साफ कर दी थी कि इस मुद्दे पर द्विपक्षीय चर्चा के माध्यम से समस्या का समाधान किया जा सकता है। यह प्रस्ताव ऐसे समय आया है जब अमेरिका और चीन के बीच ‘व्यापार तथा COVID-19 की उत्पत्ति’ जैसे मुद्दों पर तनाव की स्थिति बनी हुई है।  हाल ही में अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने कहा कि यदि चीन द्वारा हांगकांग पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किया जाता है तो चीन पर प्रतिबंध लगा जा सकता है।

1 अप्रैल, 2020 को चीन और भारत ने राजनयिक संबंधों की स्थापना की 70 वीं वर्षगांठ के महत्वपूर्ण क्षण में प्रवेश किया। पिछले 70 वर्षों में चीन-भारत संबंधों में कुछ मामूली टकरावों के बावज़ूद लगातार प्रगाढ़ता देखी गई है तथा दोनों देश एक असाधारण विकास पथ से होकर गुज़रे हैं। दोनों देश शांति तथा मैत्रीपूर्ण परामर्श के माध्यम से सीमा विवाद के प्रश्न को हल करने तथा द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने के पक्षधर हैं।

आइये जानते है भारत-चीन के रिश्तो की पृष्ट्भूमि

आचार्य कौटिल्य ने लिखा है की “अनंतरः प्रकृतिः शत्रु ” इसका अर्थ यह है की जिन पड़ोसी देशों की सीमाएं आपस में मिलती है,उनके मध्य आपसी मनमुटाव चलते रहते हैं।
भारत का एक ऐसा ही पड़ोसी देश है जिसके साथ संबंधों का अतीत बहुत सुखद नहीं रहा है यद्यपि भारत और चीन के बीच कुछ बड़ी और महत्वपूर्ण समानताएं हैं उदाहरण के स्वरूप दोनों एशिया महाद्वीप में स्थित है दोनों देशों का अतीत सांस्कृतिक दृष्टि से सफेद रहा है दोनों के पास विशाल भूभाग एवं जनसंख्या है दोनों देशों के पास खाने ,संपदा का अतुल भंडारे में ऊर्जा के स्रोत की प्रचुरता है फिर भी दोनों देशों की मूल प्रकृति में महत्वपूर्ण समानताएं हैं जिन्होंने अंततः चीन को भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण कारक बना दिया है उल्लेखनीय है कि राष्ट्र निर्माण के प्रारंभिक दौर में अपनी अपनी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय दोनों विचारधाराओं में जहां एक ओर भारत महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहा था वहीं दूसरी ओर चीन में सशस्त्र संघर्ष युद्ध तथा छापामार रणनीति की सहायता से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष चल रहा था जिसके परिणाम स्वरुप एशिया में दो परस्पर विरोधी राजनीतिक,आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सैनिक विचारधाराओं का लगभग उदय एक साथ ही हुआ।

इन सबके बावजूद इनकी विचारधाराओं में भिन्नता के बावजूद दोनों राष्ट्रों ने आपसी सद्भावना और आत्मीयता बनाए रखने के लिए प्रयत्न किए परंतु इसे विडंबना ही समझा जाना चाहिए कि हिंदी चीनी भाई-भाई वाले मैत्री पद और अधिक समय तक नहीं चल सका और तिब्बत को मुक्त कराने वाले चीन के अभियान के साथ ही 1950 में भारत-चीन संबंध तनाव ग्रस्त हो गए। तिब्बत का अधिग्रहण करने के साथ ही चीन ने अपनी विस्तार वादी नीति को क्रियान्वित करना शुरू किया था इसके तहत सर्व प्रथम वर्ष 1950 में साम्यवादी चीन द्वारा अपने नक्शे में भारत के एक बड़े भू-भाग को चीन का अंग दिखाया गया। भारत सरकार द्वारा आपत्ति करने पर चीन की साम्यवादी सरकार ने इन भू-भागों को सरकार के पुराने नक्शे में बताया और यह आश्वासन दिया कि समय मिलते ही इनमे सुधार लाया जायेगा। 19 अप्रैल 1954 को तिब्बत के प्रश्न पर भारत और चीन के मध्य संपन्न होने वाला पंचशील समझौता भारत की चीन के प्रति मैत्री स्थापित करने के असाधारण प्रयासों का ही परिणाम था जिसके तहत भारत ने तिब्बत में अपनी विशेष स्थिति को छोड़ दिया इस समझौते में कहीं भी सीमा विवाद का मुद्दा था ही नहीं।
किंतु शीघ्र ही 17 जुलाई 1954 को चीन ने एक पत्र द्वारा आरोप लगाया कि भारत की सेना वुजे नामक चीनी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है इस आरोप के जवाब में भारत सरकार ने लिखा कि यह स्थान भारतीय प्रदेश में है और यहां भारतीय सीमा सुरक्षा बल की चौकियां हैं। यह वही समय था जब चीन ने भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी सैन्य टुकड़ियां भेजना शुरू कर दी थी। 23 जनवरी 1959 को पुनः चीनी सरकार ने कहा कि भारत और चीन के मध्य कभी भी सीमाओं का निर्धारण हुआ ही नहीं है और तथाकथित सीमाएं चीन के विरुद्ध किए गए साम्राज्यवादी षडयंत्र का परिणाम है। पहली बार चीन ने स्पष्ट तौर पर मैक मोहन रेखा को नकार दिया और भारत पर आक्रमण कर दिया (भारत-चीन सीमा के पूर्वी क्षेत्र में विवादित सीमा मैकमोहन रेखा के ऊपर है। 1913-14 में चीन, भारत और तिब्बत के प्रतिनिधि शिमला में मिले, जहाँ तिब्बत और भारत और तिब्बत और चीन के बीच सीमा के समझौते का प्रस्ताव रखा गया। हालांकि बैठक में चीनी प्रतिनिधियों ने समझौते को प्रारम्भ में स्वीकार कर दिया, लेकिन बाद में उन्होंने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। चीन द्वारा दावा किया गया तवांग मार्ग 1951 में भारत ने अपने अधिकार में ले लिया था)

यद्यपि 12 जुलाई 1962 को ही चीन के सैनिक ने लद्दाख के गलवान घाटी में स्थित भारतीय सेना की चौकियों घेर लिया था किंतु 20 अक्टूबर को चीन की सेना ने पूर्वी और पश्चिमी सेक्टर में नियंत्रण रेखा को पार कर हमला कर दिया।भारत को पराजय का सामना करना पड़ा। जिसके बाद चीन ने भारत के एक बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया था तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के बाद 21 नवंबर 1962 को एकतरफा संघर्षविराम घोषित कर दिया। इस तरह भारत चीन सीमा पर एक अत्यंत ही जटिल स्थिति उत्पन्न हो गयी जिसने सीमा विवाद के रूप में एक द्विपक्षीय प्रारूप को लंबे समय के लिए तैयार कर दिया। भारत चीन सीमा की संपूर्ण लंबाई 4056 किलोमीटर है जिस पर सीमा विवाद कायम है इसमें से पश्चिमी सेक्टर 2176 किलोमीटर,मध्य सेक्टर 554 किलोमीटर और पूर्वी सेक्टर 326 किलोमीटर लंबा है। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश का इलाका कम विवादास्पद है लेकिन दोनों पक्षों के बीच सर्वाधिक विवाद पश्चिमी और पूर्वी सेक्टर को लेकर है। पश्चिमी सेक्टर में चीन ने भारत के जम्मू कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में अक्साई चीन का 48000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र अपने अवैध कब्जे में ले रखा है।

इसके अतिरिक्त पाकिस्तान द्वारा 1963 के चीन पाकिस्तान समझौते के तहत अपने कब्जे वाला कश्मीर का 5180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन को सौंप दिया है। पूर्वी सेक्टर में अरुणाचल प्रदेश के लगभग 90000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर चीन अपना दावा करता है। चीन इस अरुणाचल प्रदेश के तवांग बौद्ध विहार को अपनी सीमा में शामिल करना चाहता है जिसे कि बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा भारत का हिस्सा मानते हैं इस विवाद को सुलझाने के प्रयास 1962 के पश्चात शुरू हो गए थे। परंतु भारत चीन सीमा केवल वार्ता में प्रगति का पर्याय बना हुआ है दोनों देशों के मध्य सीमा विवाद को सुलझाने के लिए 15 बैठकें हो चुकी हैं इन बैठकों में मध्य क्षेत्र के कुछ नमूना मानचित्र के आदान-प्रदान के अतिरिक्त कोई विशेष प्रगति नहीं हो सकी है आधुनिक इतिहास में दो देशों के मध्य सीमा विवाद के अनसुलझे रहने की सबसे लंबी अवधि है।

भारत की जनतांत्रिक शासन प्रणाली चीनी कम्युनिस्ट एवं तानाशाह शासन प्रणाली के बिल्कुल विपरीत है जहां चीन साम्राज्यवादी और उदारवादी नीति का अनुसरण करने कि राजनीति में विश्वास रखती है वहीं भारत पंचशील के सिद्धांतों पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपने संबंध कायम करने में विश्वास रखता है। फलतः दोनों देशों के राजनीतिक दृष्टिकोण में एकरूपता ना होने के कारण इसमें न सिर्फ दोनों देशों की एक दूसरे के प्रति सोच प्रभावित होती है बल्कि क्षेत्रीय सुरक्षा एवं शांति के माहौल पर भी काफी प्रभाव पड़ता है।

1962 के बाद से चीन ने भारत पर भले ही प्रत्यक्ष रूप से सैनिक आक्रमण ना किया हो लेकिन भारतीय भूभाग पर उसकी दृष्टि सदैव बनी हुई है| अक्साई चीन क्षेत्र में करीब 30000 वर्ग किलोमीटर भारतीय भू-भाग चीन के कब्जे में हैं और करीब 90000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर चीन की नजर है पिछले कई वर्षों से निरंतर वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सीमा उल्लंघन के प्रयास चीन द्वारा होते रहे हैं इसमें कोई संदेह नहीं है कि चीन की सामरिक क्षमता काफी मजबूत है लेकिन इसके बावजूद चीन आज इस स्थिति में नहीं है कि 1962 के दौर को एक बार फिर से दोहरा सकें अब काफी कुछ बदल चुका है
भारत-चीन संबंधों के ऐतिहासिक तथ्य स्पष्ट करते हैं कि भारत ने चीन के प्रति सदैव मित्रवत दृष्टिकोण अपनाया है। स्वतंत्रता के पश्चात भारत ने सबसे पहले चीन से अपने राजनीतिक संबंध स्थापित किए उस समय चीन में राष्ट्रवादी सरकार का शासन था परंतु जब 1 अक्टूबर 1949 को साम्यवादियों ने राष्ट्रवादी सरकार को उखाड़ कर फेंक दिया और माओ तुंग के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ तब भी भारत ने अपने पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए यह महसूस किया कि चीन में हुए क्रांतिकारी परिवर्तन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उसके बाद भारत ने चीन की साम्यवादी सरकार को मान्यता दी।

भारत को आशा थी कि मान्यता से भारत व चीन की स्थाई मैत्री को शक्ति प्राप्त होगा तथा एशिया के स्थायित्व और विश्व शांति की स्थापना में योगदान दिया जा सकेगा। अपने इन्हीं संबंधों के कारण कई वर्षों तक भारत ने संयुक्त राष्ट्र में चीन के प्रवेश हेतु प्रबल समर्थन भी दिया परंतु चीन से सदैव पीठ पीछे ही वार किया। भारत ने तिब्बत सीमा विवाद को सुलझाने के लिए दिसंबर 1953 में अपना एक शिष्टमंडल चीन की राजधानी भेजा। इस पहल के परिणामस्वरूप 29 अप्रैल 1954 को दोनों राष्ट्रों के मध्य पंचशील समझौता हुआ। इस समझौते की आड़ में चीन ने अपनी चालें चलना शुरू कर दी थी। उसने सैनिक गतिविधियां भी तेज कर दी थी।

वर्ष 1988 में भारतीय प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने द्विपक्षीय संबंधों के सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू करते हुए चीन का दौरा किया। दोनों पक्ष सीमा विवाद के प्रश्न के पारस्परिक स्वीकार्य समाधान निकालने तथा अन्य क्षेत्रों में सक्रिय रूप से द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करने के लिये सहमत हुए। वर्ष 1992 में, भारतीय राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन भारत गणराज्य की स्वतंत्रता के बाद से चीन का दौरा करने वाले प्रथम भारतीय राष्ट्रपति थे। वर्ष 2003 में भारतीय प्रधानमंत्री वाजपेयी ने चीन का दौरा किया। दोनों पक्षों ने भारत-चीन संबंधों में सिद्धांतों और व्यापक सहयोग पर घोषणा (The Declaration on the Principles and Comprehensive Cooperation in China-India Relations) पर हस्ताक्षर किये।  वर्ष 2008 में भारतीय प्रधान मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने चीन का दौरा किया। दोनों सरकारों द्वारा ’21 वीं सदी के लिये एक साझा विज़न’ पर सहमति व्यक्त की। वर्ष 2011 को ‘चीन-भारत विनिमय वर्ष’ तथा वर्ष 2012 को ‘चीन-भारत मैत्री एवं  सहयोग का वर्ष’ के रूप में मनाया गया। दोनों पक्षों ने पीपल-टू-पीपल संपर्क तथा सांस्कृतिक विनिमय गतिविधियों की एक श्रृंखला आयोजित की तथा ‘भारत-चीन सांस्कृतिक संपर्क विश्वकोश’ के संयुक्त संकलन के लिये एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये। वर्ष 2015 में भारतीय प्रधानमंत्री ने चीन का दौरा किया इसके बाद चीन ने भारतीय आधिकारिक तीर्थयात्रियों के लिये नाथू ला दर्रा खोलने का फैसला किया। भारत ने चीन में भारत पर्यटन वर्ष मनाया। वर्ष 2018 में चीन के राष्ट्रपति तथा भारतीय प्रधानमंत्री के बीच वुहान में ‘भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। उनके बीच गहन विचार-विमर्श हुआ और वैश्विक और द्विपक्षीय रणनीतिक मुद्दों के साथ-साथ घरेलू और विदेशी नीतियों के लिये उनके संबंधित दृष्टिकोणों पर व्यापक सहमति बनी। अनौपचारिक बैठक ने दो नेताओं के बीच आदान-प्रदान का एक नया मॉडल स्थापित किया और द्विपक्षीय संबंधों के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया। वर्ष 2019 में प्रधानमंत्री तथा चीन के राष्ट्रपति बीच चेन्नई में ‘दूसरा अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ आयोजित किया गया। इस बैठक में, ‘प्रथम अनौपचारिक सम्मेलन’ में बनी आम सहमति को और अधिक दृढ़ किया गया। वर्ष 2020 में भारत और चीन के बीच राजनयिक संबंधों की स्थापना की 70 वीं वर्षगांठ है तथा भारत-चीन सांस्कृतिक तथा पीपल-टू-पीपल संपर्क का वर्ष भी है।

अनुच्छेद 370 को लेकर चीन की प्रतिक्रिया

जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 ख़त्म करने के भारत सरकार के फ़ैसले के ख़िलाफ़ चीन ने अपनी चिंताएँ जाहिर की थी। चीन का विरोध विशेष तौर पर लद्दाख क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर से हटाकर केंद्र शासित प्रदेश बनाने का था। वांग यी के साथ अपनी बैठक में विदेश मंत्री जयशंकर ने स्पष्ट कर दिया कि जम्मू कश्मीर पर भारत का फैसला देश का आंतरिक मामला है। इसका भारत की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं और चीन से लगी वास्तविक नियंत्रण रेखा के लिए कोई कोई मायने नहीं है।

भारत को एनएसजी का सदस्य बनने से रोकना: परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का सदस्य बनने में भी चीन भारत की मंसूबों पर पानी फेर रहा है। नई दिल्ली ने जून 2016 में इस मामले को जोरदार तरीके से उठाया था। तत्कालीन विदेश सचिव रहे एस जयशंकर ने एनएसजी के प्रमुख सदस्य देशों के समर्थन के लिए उस समय सियोल की यात्रा भी की थी।

भारत के खिलाफ आतंकवाद का समर्थन: एशिया में, चीन भारत को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और साथ ही OBOR प्रॉजेक्ट में चीन को पाक की जरूरत है। पाकिस्तान में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश कर रखा है। चीन-पाक आर्थिक गलियारा और वन बेल्ट वन रोड जैसे उसके मेगा प्रॉजेक्ट एक स्तर पर आतंकी संगठनों की दया पर निर्भर हैं। ऐसे में चीन कहीं ना कहीं भारत के खिलाफ आतंकवाद का पोषक बना हुआ है। मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित कराने में चीन की रोड़ेबाजी इसी का एक मिसाल कही जा सकती है। हालंकि बाद में भारत को इस मामले में सफलता मिल गई थी।

भारत के उत्तर-पूर्व में भी चीन पहले कई आतंकवादी संगठनों की मदद करता रहा है। बीबीसी की एक ख़बर के मुताबिक कुछ अर्से पहले पूर्वोत्तर भारत में नगा विद्रोही गुट एनएससीएन (यू) के अध्यक्ष खोले कोनयाक ने ये दावा किया था। बक़ौल खोले “यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा प्रमुख परेश बरुआ पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय चरमपंथी संगठनों को चीनी हथियार और ट्रेनिंग मुहैया करा रहें है।”

BRI परियोजना भी विवाद का एक अहम बिंदु

BRI -बेल्ट एंड रोड इनिसिएटिव परियोजना चीन की सालों पुरानी ‘सिल्क रोड’ से जुड़ा हुआ है। इसी कारण इसे ‘न्यू सिल्क रोड’ और One Belt One Road (OBOR) नाम से भी जाना जाता है। BRI परियोजना की शुरुआत चीन ने साल 2013 में की थी। इस परियोजना में एशिया, अफ्रीका और यूरोप के कई देश बड़े देश शामिल हैं। इसका उद्देश्य दक्षिण पूर्व एशिया, मध्य एशिया, गल्फ कंट्रीज़, अफ्रीका और यूरोप के देशों को सड़क और समुद्री रास्ते से जोड़ना है।
भारत चीन की इस परियोजना का शुरू से ही विरोध करता है। साल 2017 में हुए पहले ‘BRI सम्मेलन’ में भी भारत ने भाग नहीं लिया था। भारत के BRI परियोजना का विरोध के चलते चीन ने 2019 के ‘BRI सम्मेलन’ में BCIM यानी बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार गलियारे को अपनी अहम परियोजनाओं से हटा दिया है। चीन अब दक्षिण एशिया में CMEC-चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारे, नेपाल-चीन गलियारे (Nepal-China Trans Himalayan Multi-Dimensional Connectivity) और चीन पकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर पर ही काम करेगा।

भारत और चीन के बीच आपसी सहयोग

भारत और चीन दोनों ही देश उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह ब्रिक्स (BRICS) के सदस्य हैं। ब्रिक्स द्वारा औपचारिक रूप से कर्ज देने वाली संस्था ‘न्यू डेवलपमेंट बैंक’ की स्थापना की गई है। भारत एशिया इन्फ्राट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) का एक संस्थापक सदस्य है। गौरतलब है कि चीन भी इस बैंक का एक समर्थक देश है। भारत और चीन दोनों ही देश शंघाई सहयोग संगठन के तहत एक दूसरे के साथ कई क्षेत्रों में सहयोग कर रहे हैं। चीन ने शंघाई सहयोग संगठन में भारत की पूर्ण सदस्यता का स्वागत भी किया था। दोनों ही देश विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के सुधार और उसमें लोकतांत्रिक प्रणाली के समर्थक हैं। संयुक्त राष्ट्र के मामलों और उसके प्रशासनिक ढांचे में विकासशील देशों की भागीदारी में बढ़ोत्तरी बहुत जरूरी है। इस मामले में दोनों देशों का ऐसा मानना है कि इससे संयुक्त राष्ट्र की कार्यप्रणाली में और बेहतरी आएगी। WTO वार्ताओं के दौरान भारत और चीन ने कई मामलों पर एक जैसा रुख अपनाया है जिसमें डब्ल्यूटीओ की दोहा वार्ता भी शामिल है।

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भारत और चीन दोनों ही देश जी-20 समूह के सदस्य हैं। पर्यावरण को लेकर अमेरिका और उसके मित्र देशों द्वारा भारत और चीन दोनों की आलोचना की जाती है। इसके बावजूद दोनों ही देशों ने पर्यावरणीय शिखर सम्मेलनों में अपनी नीतियों का बेहतर समन्वयन (coordination) किया है।
दोनों देशों ने उच्च-स्तरीय यात्राओं का लगातार आदान-प्रदान किया है। राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के बाद से 16 द्विपक्षीय बैठकें कीं, राजनीतिक आपसी विश्वास को बढ़ाया, मतभेदों को ठीक से प्रबंधित किया, व्यावहारिक सहयोग का विस्तार किया ताकि द्विपक्षीय संबंधों के बेहतर और अधिक स्थिर विकास का मार्गदर्शन किया जा सके। चीन और भारत द्वारा अंतर-संसदीय मैत्री समूह स्थापित किए जाते हैं। दो संसदों के नेतृत्व और विशेष समितियों के बीच नियमित संपर्क और आदान-प्रदान बनाए रखा जाता है। दोनों देशों के 20 से अधिक सांसदों ने हाल के वर्षों के दौरान यात्राओं का आदान-प्रदान किया है।

स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स

‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ भारत को घेरने के लिहाज से चीन द्वारा अपनाई गई एक अघोषित नीति है। इसमें चीन द्वारा भारत के समुद्री पहुंच के आसपास के बंदरगाहों और नौसेना ठिकानों का निर्माण किया जाना शामिल है।

नदी जल विवाद

ब्रह्मपुत्र नदी के जल के बँटवारे को लेकर भी भारत और चीन के बीच में विवाद है। चीन द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपरी इलाके में कई बांधों का निर्माण किया गया है। हालांकि जल बंटवारे को लेकर भारत और चीन के बीच में कोई औपचारिक संधि नहीं हुई है।

डोकलाम विवाद

भारत और चीन के मध्य 2017 में डोकलाम का विवाद की काफी तनावपूर्ण रहा था। तभी भारत व चीन 73 दिन एक दूसरे के सामने डटे रहे थे। डोकलाम में भारत भूटान के हितों की खातिर चीन के सामने डटा था क्योंकि भूटान की अपनी कोई फौज नहीं है भूटान की सुरक्षा जरूरतों को भी भारत ही पूरा करता है।

अर्थव्यवस्था एवं व्यापार

21 वीं सदी के प्रारंभ से अब तक भारत और चीन के बीच होने वाला व्यापार 3 बिलियन डॉलर से बढ़कर लगभग 100 बिलियन डॉलर (32 गुना) हो गया है। वर्ष 2019 में भारत तथा चीन के बीच होने वाला व्यापार की मात्रा 92.68 बिलियन डॉलर थी। भारत में औद्योगिक पार्कों, ई- कॉमर्स तथा अन्य क्षेत्रों में 1,000 से अधिक चीनी कंपनियों ने अपना निवेश किया है। कंपनियाँ भी चीन के बाज़ार में सक्रिय रूप से विस्तार कर रही हैं। चीन में निवेश करने वाली दो-तिहाई से अधिक भारतीय कंपनियाँ लगातार मुनाफा कमा रही हैं। चीन के स्टेट काउंसिल के डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर ने भारत के नीति आयोग के साथ 4 दौर के संवाद आयोजित किए हैं, जो  दोनो  देशों के सतत और उच्च-गुणवत्ता वाले आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, वैश्विक बहुपक्षीय व्यापार तंत्र की सुरक्षा पर सहमति बनाने, सुधार को बढ़ावा देने के लिए वैश्विक शासन प्रणाली और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और वित्तीय जोखिमों के खिलाफ सुरक्षा  दृष्टिकोण से आयोजित किये गए। 2.7 बिलियन से अधिक लोगों के संयुक्त बाज़ार तथा दुनिया के 20% के सकल घरेलू उत्पाद के साथ, भारत तथा चीन के लिये आर्थिक एवं व्यापारिक सहयोग में व्यापक संभावनाएँ  हैं। भारत में चीनी कंपनियों का संचयी निवेश 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक है। भारत में शीर्ष 5 स्मार्टफोन शिपमेंट में से 4 पर चीनी ब्रांड प्रभावी है ,चीनी ब्रांड के स्मार्टफोन भारतीय लोगों के साथ लोकप्रिय हैं।
भारत इस बात को जनता है कुछ मामले शांति से बैठ कर ही निपटाए जाते है,नियमित तमाशे के लिए पाकिस्तान है ही |