परिस्थितियां कितनी भी विपरीत हों पर हमें हार नहीं माननी चाहिए। यह कहने में तो आसान लगता है पर वास्तविक धरातल पर इसे अपने जीवन में उतारना अत्यंत कठिन है। भारत की भूमि पर ऐसे कई वीर योद्धा पैदा हुए हैं। जो अपनी मातृभूमि औऱ स्वाभिमान के लिए एक बार नहीं अपितु हजारों बार अपने प्राण की आहुति देने के लिए हमेशा तैयार रहे हैं। एक ऐसे ही योद्धा थे मेवाड़ के महान शासक महाराणा प्रताप जिन्होंने अपने जीवन में बिना हार माने अपने स्वाभिमान व अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते रहे।
महाराणा प्रताप का नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया औऱ मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया। हल्दीघाटी युद्ध में भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह की विशाल सेना का सामना किया। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया ओर महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें हजारों लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये पर यह इतना आसान नहीं था।
महाराणा प्रताप ने घास की रोटी खाना औऱ जंगल में रहना स्वीकार किया पर अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया। यह हमारा दुर्भाग्य है कि इतना कुछ करने के बाद भी हमनें अपने इतिहास में उन्हें उतना स्थान नहीं दिया औऱ न ही उनके गौरवपूर्ण इतिहास के अनुरूप सम्मान किया। अतः आवश्यकता है कि हम ऐसे योद्धाओं के त्याग औऱ समर्पण की भावनाओं को समझे औऱ उसे अपने जीवन में चरितार्थ करने का भी प्रयास करें।
आज महाराणा प्रताप जयंती पर पढ़िए उनपर लिखी श्यामनारायण पांडेय की कविताएं जो उनकी उनकी गौरव-गाथा को अजर अमर कर देती है-
●महाराणा प्रताप की तलवार
चढ़ चेतक पर तलवार उठा,
रखता था भूतल पानी को।
राणा प्रताप सिर काट काट,
करता था सफल जवानी को।
कलकल बहती थी रणगंगा,
अरिदल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी,
चटपट उस पार लगाने को।
वैरी दल को ललकार गिरी,
वह नागिन सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो बचो,
तलवार गिरी तलवार गिरी।
पैदल, हयदल, गजदल में,
छप छप करती वह निकल गई।
क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर,
देखो चम-चम वह निकल गई।
क्षण इधर गई क्षण उधर गई,
क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई।
था प्रलय चमकती जिधर गई,
क्षण शोर हो गया किधर गई।
लहराती थी सिर काट काट,
बलखाती थी भू पाट पाट।
बिखराती अवयव बाट बाट,
तनती थी लोहू चाट चाट।
क्षण भीषण हलचल मचा मचा,
राणा कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह,
रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥
●चेतक की वीरता
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर,
चेतक बन गया निराला था।
राणाप्रताप के घोड़े से,
पड़ गया हवा का पाला था।
जो तनिक हवा से बाग हिली,
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं,
तब तक चेतक मुड़ जाता था।
गिरता न कभी चेतक तन पर,
राणाप्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर,
वह आसमान का घोड़ा था।
था यहीं रहा अब यहाँ नहीं,
वह वहीं रहा था यहाँ नहीं।
थी जगह न कोई जहाँ नहीं,
किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं।
निर्भीक गया वह ढालों में,
सरपट दौडा करबालों में,
फँस गया शत्रु की चालों में।
बढ़ते नद-सा वह लहर गया,
फिर गया गया फिर ठहर गया।
विकराल वज्रमय बादल-सा,
अरि की सेना पर घहर गया।
भाला गिर गया गिरा निसंग,
हय टापों से खन गया अंग।
बैरी समाज रह गया दंग,
घोड़े का ऐसा देख रंग।
मातृभूमि के ऐसे वीर सपूत को शत-शत नमन!
(कविताएं एक पत्रिका से)