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भोपाल, 11 नवंबर। पद्मश्री से सम्मानित प्रख्यात लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने कहा कि भारतीय संस्कृति में लोकगीत व लोक आख्यानों में लोकमंगल और सबके कल्याण की कामना की गई है। सामान्य जन को जीवन मूल्य और संस्कार देने के लिए ही हमारे आख्‍यान रचे गए हैं। आज आवश्यकता इस बात की कि हम लोक परंपरा, रीति, नीति और संस्कृति से बच्चों को परिचित कराते रहें। लोक परंपराओं में प्रचुर ज्ञान है और हर युग में यह सार्थक रहा है। आख्‍यान हमें संस्‍कारित करते हैं और जीवन दृष्टि देते रहते हैं।

पद्मश्री मालिनी अवस्‍थी बुधवार को श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित चतुर्थ दत्तोपंत ठेंगड़ी स्‍मृति राष्ट्रीय व्याख्यानमाला के समापन सत्र में ‘लोक आख्यानों में जीवन दृष्टि’ विषय पर बोल रही थीं। उन्होंने कहा कि भारत में लोक गीतों की समृद्ध परंपरा रही है। भारत की स्त्रियों ने सैकड़ों वर्षों तक इन लोकगीतों को अपने कंठ में सुरक्षित रखा है। इनमें सबके मंगल की कामना, प्रकृति पूजा, समरसता, सामाजिक संदेश और जीवन मूल्य छुपे हुए हैं। आज हम कोरोना काल में तुलसी को दवाई के रूप में ग्रहण कर रहे हैं। हमारे यहां तो जल में तुलसी को मिलाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता रहा है। हमारे आख्‍यानों में ऐसे संतान को सार्थक माना गया है जो विश्‍व को आनंद प्रदान कर सके।

उन्होंने कहा कि हमारे लोक आख्‍यान मात्र मनोरंजन के लिए नहीं हैं अपितु वे प्रामाणिक इतिहास हैं। इनकी दृष्टि समानता की दृष्टि है। लोक गीतों से संस्कृति को सुदृढ़ करने की कोशिश की गई है। यही कारण है कि इतने हजार वर्षों की गुलामी के बावजूद भी हमारे समाज ने उन मूल आदर्शों को बनाए रखा, जिन्हें वैदिक ऋषियों ने प्रतिष्ठित किया था। यहाँ लोक आख्‍यानों में ऐसे उद्धरण भी मिलते हैं कि अपने मंगल के समय में भी किसी का अमंगल न हो, इसका भी ध्यान रखा जाए। लोक आख्‍यान हमेशा समाज का पथ प्रदर्शन करते रहे हैं। इनमें प्रश्‍न और उनके उत्‍तर भी मिलते हैं। देश में पराधीनता के बाद गुरुकुल नष्ट हो गए, लेकिन शास्त्रीय परंपराओं को लोगों ने लोक आख्यान और गीतों के माध्यम से सुरक्षित रखा।

समापन अवसर पर श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के समिति के अध्यक्ष अशोक पांडे ने कहा कि हमारे लोक आख्यानों में प्रकृति, समरसता, पारस्परिक संबंध भारतीय जीवन मूल्य से जुड़े श्रेष्ठ विचार हैं। आज आवश्यकता है कि हम नई पीढ़ी से उन्हें परिचित कराएँ। आज इस परंपरा को प्राणरस मिलना बंद हो गया है। हमारी नई पीढ़ी स्वयं के लिए और सिर्फ शरीर के लिए जी रही है, लेकिन हमारे समाज का यह उद्देश्य नहीं था।

प्रारंभ में संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश मिश्रा ने विषय का परिचय दिया। उन्होंने कहा कि आख्‍यान हमारी परंपरा में शास्‍त्र और लोक दोनों रचे गये हैं, जो वाचिक तथा लिखित रूपों में विद्यमान हैं। आख्‍यान हमारी विराट संस्‍कृति के स्रोत हैं।

इस ऑनलाइन आयोजन में देश एवं प्रदेश के अनेक लोक संस्‍कृति के अध्‍येताओं ने सहभागिता की। अंत में समिति के सचिव दीपक शर्मा ने आभार व्यक्त किया।