पतंजलि पाण्डेय

नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल का पहला वर्ष पूरा कर लिया है। पिछले वर्ष इसी मास भारतीय राजनीति में उस दौर की प्रस्थापना हुई जो वास्तव में भारत मे वैचारिक राजनीति का प्रतिनिधित्व करती है।

2014 के चुनाव परिणाम के बाद एक विदेशी समाचार पत्र ने चुनाव परिणामों के विश्लेषण का जो निष्कर्ष “2014 का चुनावी जनादेश इतिहास में उस दिन के रूप में याद किया जाएगा,जिस दिन अंग्रेजो ने वास्तव में भारत छोड़ा था” को निष्पादित किया था,वह वास्तविकता को सत्यावरण पहनाता है।

2014 के चुनाव और 2019 के चुनाव की रणनीति के आधारों में व्यापक अंतर था। 2014 और 2019 के चुनाव परिणामों में साम्य होते भी कुछ मौलिक भिन्नतायें थी।

2014 का जनादेश मोदी के प्रति आशाओं का ज्वार था,तो 2019 का जनादेश मोदी सरकार के आधारभूत कार्यो पर जन मन की सशक्त अभियक्ति थी। नरेंद्र मोदी की सरकार चलाने की अपनी एक विशिष्ट शैली है,तो चुनाव लड़ने की अद्वितीय पद्धति भी है।
नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में ही जनता के मन मे यह तथ्य सुस्पष्ट कर दिया कि उनके नेतृत्व में सरकार सप्रंग सरीखी नीतिगत पंगुता की जगह निर्णायक और प्रभावी रूप से काम करेगी।

नोटबंदी,जीएसटी और सर्जिकल स्ट्राइक ऐसे फैसले रहे जिसमें प्रधानमंत्री मोदी के शासन का बदले स्वरूप को दिखा दिया।
नरेंद्र मोदी ने 2013 में ही यह भली-भाँति जान लिया था,कि शासन को अगर लंबे समय तक स्थापित करना है तो सरकार,संगठन और जनमन तीनों पर व्यापक प्रभाव और नियंत्रण स्थापित करना होगा। 2014 के बाद ही नरेंद्र मोदी ने अमित शाह को संगठन की कमान सौंप कर संगठन में नई ऊर्जा और दूरदर्शी संगठनात्मक ध्येयों को तय कर दिया।

अमित शाह की संगठनात्मक कला और राजनीतिक समझ 2014 मे उत्तर प्रदेश में 72 सीटों की विजय ने ही सिद्ध कर दी थी ।अमित शाह के नेतृत्व ने बीजेपी को राज्यो में भी मजबूती से प्रस्थापित किया।

2019 के चुनाव के पहले भी अमित शाह हमेशा कहते आ रहे थे “हम उत्तर प्रदेश में 50% मतों की लड़ाई लड़ने जा रहे है।” राजनीतिक पंडितों को यह आकलन विश्वास से अधिक अभिमान नजर आता था। सपा और बसपा के गठबन्धन ने तो एक विचारधारा के राजनीतिक विश्लेषकों के तथ्यों को गढ़ने के लिए नई संजीवनी प्रदान कर दी। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चक्रव्यूह और रणनीति का मुकाबला न उन राजनीतिक पंडितों के गढ़े तथ्य कर सकते थे और न तो जनता के मन में से दूर हुआ विपक्ष ही।

परिणाम जब आये तब भाजपा ने इन राज्यो में 50% से अधिक मत अकेले प्राप्त किये

अरूणांचल प्रदेश-58.2%
चंडीगढ़-50.6%
छत्तीसगढ़ -50.7%
गोवा-51.2%
गुजरात 62.2%
हरियाणा-58%
हिमांचल प्रदेश-69.1%
झारखंड-51%
कर्नाटक-51.4%
मध्यप्रदेश-58%
दिल्ली-56.6%
राजस्थान-58.5%
त्रिपुरा-49%
उत्तर प्रदेश-49.6%
उत्तराखण्ड-61%

उत्तर प्रदेश के परिणामों ने यह बता दिया कि लुटियन परिचर्चाओं से दूर एक करिश्माई नेतृत्व,जनता के बीच काम और गरीबो तक योजनाओं की पहुँच किसी भी राजनैतिक अभियांत्रिकी पर कहीं अधिक भारी है।

प्रचंड राजनैतिक जनमत के साथ दुबारा सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी ने उस जनमत के पीछे की आकांक्षा ,परिश्रम और कठिनाईयों को यथोचित समझा, इसे इसी बात से समझ सकते हैं विजय के पश्चात भाजपा कार्यालय पर भाषण देते हुए अमित शाह ने बंगाल और केरल में बलिदान हुए अपने कार्यकर्ताओं को बार-बार याद किया।

मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल मात्र सँख्यात्मकता की वजह से भिन्न नही था अपितु दूसरे कार्यकाल में मोदी और उनकी कार्यप्रणाली के आधारों में भी परिवर्तन आने जा रहा था।
स्व०अरुण जेटली जैसे संकटमोचक और स्व० सुषमा स्वराज जैसी विदुषी स्वास्थ्य कारणों से इस सरकार का अंग न थे। पहले कार्यकाल में स्व०जेटली जी के तर्को ने हमेशा लुटियन बुद्धिजीवियों को ध्वस्त किया वहीं सुषमा जी की संवेदनशीलता और कूटनीतिक समझ ने उस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि विदेश नीति के स्वरूप को नई दिशा दी थी।

दूसरे कार्यकाल में प्राप्त जनादेश ने मोदी सरकार को लुटियन आलोचना की चिन्ता से मुक्त कर दिया और विजय उपरांत ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि पहला कार्यकाल बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति का था वहीं दूसरा कार्यकाल वैचारिक प्रतिबद्धताओ को पूर्ण करने का है।

अमित शाह के गृहमंत्री बनते ही यह तय हो गया था कि सरकार मजबूती के साथ अपने वैचारिक और देश के आंतरिक मुद्दों को सुलझाने वाली है। भाजपा ने कार्यकाल को ऐतिहासिक बनाने के लिए न तो समय की प्रतीक्षा और न ही आलोचनाओं की परवाह ही करने वाली थी। 5 अगस्त को जब गृह मंत्री सदन में पहुचें तो भाजपा जिसे वर्षो से अभिशाप मानती थी उस अनुच्छेद 370 का निर्मूलन का मंत्र लेकर प्रस्तुत हुए। यह कदम भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय और आंतरिक दोनो स्तरों पर साहसिक था। मोदी सरकार इसके लिए लंबे समय से कुशल रणनीति और गोपनीयता के साथ कार्य कर रही थी।

इसके तुरंत बाद सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक को भी तमाम प्रश्नों और आलोचनाओं के बावजूद पारित कराया। देश भर में इसके विरुद्ध हिंसक प्रदर्शन हुए और लंबे समय तक चले भी,लेकिन सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं से तनिक भी पीछे नही हटेगी।गृह मंत्री ने इसे लेकर एक निजी चैनल पर कहा था “हम इससे (CAA) से इंच भर भी पीछे नही हटेंगे।”

जहाँ एक तरफ मोदी सरकार आक्रमक रूप से अपने वैचारिक मुद्दों की तरफ मजबूती से बढ़ रही थी वही दूसरी तरफ विपक्ष नेतृत्व विहीन,विचारशून्यता की व्याधि से ग्रस्त था। विपक्ष न तो मोदी सरकार की रणनीतियों को भांप पा रहा था और न ही जनता के मन की अभिव्यक्ति को समझ पा रहा था। विपक्ष के नेता,न तो एक मंच पर आ पा रहे न तो जनता के मुद्दों को ही समझ पा रहे है।2019 के चुनाव के समय ही मानो ऐसा लग रहा था कि विपक्ष की कोशिश मोदी सरकार को पराजित करने की नही अपितु उसे ‘बहुमत से रोकने’की थी।
सीएए,अनुच्छेद 370 निर्मूलन पर विपक्ष का वैचारिक मतिभ्रम ही दिखा। वह सरकार का विरोध करते-करते राष्ट्रीय हितों पर भी कुठाराघात करते नहीं चूक रहा था।
कांग्रेस के साथ ही अन्य विपक्षी राजनीति दल भी यह तय नही कर पा रहे कि आखिर मोदी का मुकाबला किन आधारों और मुद्दों से किया जाए। Covid-19 के महामारी काल मे भी मोदी की कार्यशैली ने जनता के हृदय में उन्हें मजबूत ही किया है इसका एक महत्वपूर्ण कारण भी विपक्ष की धरासायी विश्वसनीयता है।

(लेखक वाचाल के संपादक हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं।)