जबतक जातिवाद के नाम पर हिन्दू जातियां एक दूसरे से लड़ने में, एक दूसरे को नीचा दिखाने में, अलग अलग जातिवादी खेमों में बंटकर कभी ब्राह्मणवाद के विरोध में तो कभी दलितों के विरोध में, कभी अलग अलग जातिवादी मोर्चा बनाकर आपस में ही लड़ते रहेंगे और अपनी जाति को अन्य से उच्च साबित करने का प्रयास करते रहेंगे, तब तक हिन्दू समाज में कोई भी सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकता।
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सामाजिक परिवर्तन केवल संवाद से ही आ सकता है। यह एक दूसरे के जातिगत वैचारिक मतभेदों को किनारे कर एक साथ बैठकर मतभेद के मुख्य बिंदुओं को इंगित करते हुए उसके निदान के लिए सामुहिक प्रयत्न की रुपरेखा को तय करने से आयेगा। विभिन्न विश्वविद्यालयों, राजनीतिक रैलियों और जातिगत सम्मेलनों में लगने वाले नारे यथा “हम लड़कर लेंगे, ब्राह्मणवाद की क़ब्र खुदेगी, जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी, हम देखेंगे” जैसे नारे लगाने में और सुनने में कुछ पल के लिए कानों को सुख प्रदान करते होंगे लेकिन। सच यही है कि संघर्ष और उन्माद के बदले मोहब्बत और बराबरी नहीं मिल सकती। उसके लिए सभी हिन्दू समाज की जातियों को एक दूसरे के प्रति वैमनस्यता एवं ऊंचे नीच का भाव छोड़कर समाज में व्याप्त जातिगत विभेद की समस्या को समाप्त करने के लिए सामुहिक प्रयत्न करना पड़ेगा।
डॉ रविन्द्र प्रताप सिंह (अभाविप)
भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद नई दिल्ली