इस संसार मे कुछ अलौकिक शख्स आते हैं औऱ अपने कार्यों से अमर हो जाते हैं। आज ही के दिन 7 मई को ऐसे ही एक प्रभावशाली शख्सियत का जन्म हुआ था जिनका नाम देश का बच्चा-बच्चा जानता है। हम बात कर रहे हैं बहुआयामी प्रतिभा के धनी साहित्यकार, दार्शनिक, नाटककार, संगीतकार ,चित्रकार औऱ नोबेल-पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की जो भारत औऱ बांग्लादेश के राष्ट्र-गान के रचयिता भी हैं।
टैगोर के अनुसार देखने में समुद्र एक जैसा लगता है,पर इनके लहरों को देखे तो अलग-अलग स्वरूप। लहरें उसी समुद्र के रूप है जो उनसे निकलती हैं और उसी में विलीन हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे मनुष्य उस पर ब्रह्मा से निकलता है एवं उसी में विलीन हो जाता है।वह एक ऐसे बालक हैं जिनको स्कूल के कमरे काटने को दौड़ते हैं ,शिक्षक जिसे आजादी पे अंकुश लगाने वाले लगते हैं, जिन्होंने चारदीवारी छोड़ प्रकृति को अपना गुरु चुना एवं बाद में शिक्षा निकेतन कि स्थापना की।
समकालीन समय के जितने भी चिंतक हैं,वैसे तो ज्यादातर चिंतन ईश्वर या फिर अतिजागतिक रहस्यों के इर्द-गिर्द घुमा करते है,परन्तु टैगोर ने मानव महत्ता कि समझा एवं मनुष्य को केंद्र में रखकर अपने दर्शन का विकास किया। उनका मानना था कि “प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।इस तरह से उस तरह के लोग जो यह मानते हैं कि दुनिया में सब कुछ बुरा ही बुरा है उनको गलत साबित करते हुुुए दिखाते हैं किस तरह हमें अभी भी एक दूसरे की सहायता कर इस मानव पीढ़ी को बचा सकते हैं।
टैगोर मानव के दो पक्ष को स्वीकार करते हैं- असीम एवम् ससीम। ससीम को देखते हैं जो भी मनुष्य का देहधारी,हाड़ मांस का शरीर जीव की तरह व्यवहार है जो जैविक, शारीरिक,भौतिक है।इसके अलावा मनुष्य का असीम पक्ष ही है जिससे वो ईश्वर-प्राप्ति के लिए सहायक बन पाता है। हर एक मनुष्य को अपने को छोड़ पराए के लिए सत्कर्म करने की उत्कंठा रहती है।आज जब किसी को चोट लगती है उसकी हम सहायता करते हैं। किसी वृद्ध व्यक्ति की सहायता या किसी गरीब को भोजन ऐसा कर हम स्वार्थ त्याग परार्थ को स्वीकार करते हैं। यही मनुष्य का पक्ष उस ईश्वर के करीब के जाता है।
उनके अनुसार धर्म हमारे अंदर ही छिपा हुआ है जिसे पहचानने कि जरूरत है। यह धर्म स्वतंत्र एवं सभी के लिए समान है,सभी को एक रास्ता दिखाता है। ईश्वर-विचार में तो क़भी ईश्वर मानव तो क़भी मानव ईश्वर बन जाता है। उन्होंने देवता का मानवीकरण किया गया है,इसका मतलब है कि ईश्वर मनुष्य में ही है।
जीवन-देवता मनुष्य में छिपा हुआ दैवीय स्वरूप है।मनुष्य जब अपने प्रयासों के द्वारा सच्ची सेवा करता हो ,वहीं आंतरिकता मनुष्य में छिपी हुई जीवन-देवता है। हम आज भी ईश्वर को खोजने का न जाने कितना प्रयत्न करते हैं पर टैगोर ने हमें दिखाया कि कैसे उसकी चिंगारी हमारे अंदर ही छिपी हुई है जो सीधे उस असीमित सत्य से टकराती है।
टैगोर मानवता से बढ़कर कुछ भी नहीं मानते हैं, जिसका आधार सभी जीवों व प्रकृति से प्रेम था जो विश्व प्रेम की ओर अग्रसर होता था। टैगोर मात्र कवि ,संगीतज्ञ मात्र के रूप में नहीं जाने जाते अपितु इन्होंने कई देशों की यात्रा की एवं इन्होंने एक दूसरे की सहयोग एवं पारस्परिक-संबंध पर जोर दिया।इनका मानववाद मनुष्य की सच्ची सेवा करना एवम् मनुष्य को केंद्र में रख उसकी उचित पहचान दिलाना है। दीन-दुखिओं कि सेवा एवम् शोषितों कि सेवा भी इनके विचार नहीं अपितु कार्य में भी झलकता है।
प्रेम ही जीवन का आधार है, उनकी खोज अनंत यात्रा की थी औऱ वह स्वंय को एक ऐसा प्रेमी मानते हैं जो अपनी प्रिय की खोज में है।
उनके अनुसार “केवल प्रेम ही वास्तविकता है, ये महज एक भावना नहीं है, यह एक परम सत्य है जो सृजन के ह्रदय में वास करता है।
संसार में व्याप्त अशुभ औऱ बुराइयों को वह स्वीकार करते हैं। वह मानते हैं कि असत्य के कारण ही सत्य की महत्ता है,इसलिए हमें निरंतर अच्छाइयों की औऱ अग्रसर होना चाहिए। वह कहते भी हैं “हम यह प्रार्थना न करें कि हमारे ऊपर खतरे न आएं, बल्कि यह प्रार्थना करें कि हम उनका निडरता से सामना कर सकें।
टैगोर ही थे जिन्होंने गाँधी को पहली बार महात्मा कहा था, कुछ विषयों पर वह एक-दूसरे से सहमत नहीं थे परंतु एक-दूसरे का बहुत सम्मान करते थे। वह राष्ट्रवाद एवं मानवतावाद में मानवतावाद को ज़्यादा महत्व देते हैं, उनके अनुसार “देश का जो आत्माभिमान, हमारी शक्ति को आगे बढ़ाता है, वह प्रशंसनीय है,पर जो आत्माभिमान हमें पीछे खींचता है, वह सिर्फ खूंटे से बांधता है, यह धिक्कारनीय है।”
आज के इस संकट की घड़ी में भी टैगोर के विचार उतने ही प्रांसगिक हैं, वह कहते हैं “मैंने स्वप्न देखा कि जीवन आनंद है, मैं जागा और पाया कि जीवन सेवा है। मैंने सेवा की और पाया कि सेवा में ही आनंद है। आज निस्वार्थ भाव की सेवा की बहुत आवश्यकता है, जो हमें आनंद के मार्ग पर ले जाती है। अपने दर्शन के द्वारा उन्होंने मानव-मूल्यों की सभी विधाओं पर प्रकाश डाला जोकि शिक्षा के बिना नहीं समझा जा सकता है, वह कहते हैं कि “उच्चतम शिक्षा वो है, जो हमें सिर्फ जानकारी ही नहीं देती, बल्कि हमारे जीवन को समस्त अस्तित्व के साथ सद्भाव भी लाती है।
हम कह सकते हैं कि मानव अपनी मानवता को जागृत कर के देवत्व की प्राप्ति कर सकता है। यह मार्ग कठिन अवश्य है पर गुरुदेव टैगोर के विचारों से यह मार्ग सरल हो जाता है।
अतः आवश्यकता है अपनी आत्म-शक्ति को जागृत करने की, अपने शुभत्व को पहचानने की एवं निरंतर आगे बढ़ने की क्योंकि “सिर्फ खड़े होकर पानी को ताकते रहने से आप समुंद्र को पार नहीं कर सकते हैंं।”
(लेख के कुछ अंश कमलेश यादव के हैं जो काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं)