झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये तो प्रसिद्ध हैं ही, साथ ही स्वातंत्रता सेनानी नेताओं में सबसे तेज-तर्रार वीरांगना के तौर भी यह दुनिया उन्हें याद करती है। रानी का बखान करते हुए मध्यप्रदेश की प्रसिद्ध कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने लिखा भी है कि ‘बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।’
लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर,1835 को काशी (वाराणसी) में जिला सतारा के एक महाराष्ट्रीयन करहेड ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जन्मतिथि को लेकर मतभेद भी है, कहीं-कहीं 16 नवम्बर, 1828 का उल्लेख मिलता है। उल्लेखनीय है कि रानी के जीवनकाल से संबंधित बहुत कम ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं।
रानी जब चार वर्ष की थीं, उनकी माँ स्वर्गसिधार गयीं। पालन-पोषण का भार पिता मोरोपंत तांबे पर पड़ा। पढ़ाई के दौरान रानी ने घुड़सवारी, निशानेबाजी और तलवारबाजी आदि युद्ध कौशलों का प्रशिक्षण लिया।
वैवाहिक जीवन, वैधव्य, सिंहासन
उनके पिता ने बिठूर में पेशवा बाजी राव द्वितीय के दरबार में काम किया और बाद में झाँसी के महाराजा राजा गंगाधर राव नयालकर के दरबार में गये। 14 वर्ष की आयु में ही लक्ष्मीरबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नयालकर से हुआ।
1851 में रानी लक्ष्मीबाई को एक पुत्र हुआ, जिसकी तीन महीने बाद ही मृत्यु हो गयी। इसके बाद रानी और राजा ने दामोदर राव को गोद लिया। गंगाधर राव 21 नवम्बर,1853 को गुजर गये। दामोदर राव की कम उम्र के कारण रानी ने झाँसी राज्य का कार्यभार संभाला।
झाँसी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का हस्तक्षेप
गंगाधर राव की मृत्यु का समाचार सुनकर ब्रिटिश सरकार सक्रिय हो गई और रानी लक्ष्मीबाई को सूचना दिये बिना एक आदेश पत्र जारी कर दिया गया। तत्कालीन समय लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल था। दामोदर का रानी का जैविक पुत्र न होने का तर्क गढ़कर झाँसी जब्त करने की कार्यवाही डलहौजी ने शुरू कर दी। ईस्ट इंडिया कंपनी राव के अधिकार के दावा को खारिज करते हुए गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी के अधीन डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स को स्थापित करने में सक्षम थी।
किला छोड़ने का फरमान
ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य के गहने जब्त कर लिये। तत्कालीन समय डलहौजी ने आरोप लगाते हुए कहा था कि सिंहासन “व्यपगत” हो गया है और इस तरह झाँसी को अपने “संरक्षण” में रखा गया है। मार्च 1854 में, रानी को 5000 रुपये सालाना की पेंशन दी गई और झाँसी किला छोड़कर रानी महल में स्थानांतरित होने के लिये आदेश जारी किया गया।
झाँसी किसी को नहीं दूंगी
‘एलिन’ नामक अंग्रेज सरकार के अधिकारी ने दरबार में आदेश पत्र रानी को सुनाया था। अंग्रेजों द्वारा जबरदस्ती राज्य को कब्जा में लेने के निर्णय का एक सिंहनी की भांति दहाड़ते हुए उन्होंने प्रतिकार किया और ललकारते हुए कहा कि ‘अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी। ‘हालांकि अंग्रेजों ने झाँसी को अपने अधीन कर लिया और रानी से झाँसी के सारे अधिकार छीन लिये। रानी अब झाँसी के राज्य कार्यों में हस्तक्षेप व दुर्ग में प्रवेश नहीं कर सकती थीं।
वार्ता का प्रयास
रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के सामने अपने राज्य की सारी घटना का लेख प्रस्तुत किया और लंदन में अपील दायर कीं। डालहौजी को भी पत्र भेजा, लेकिन याचिका खारिज कर दी गयी। इसके साथ ही अन्य राज्यों पर भी अंग्रेजों का कब्जा होते देख उन्होंने राजाओं को संगठित करने का प्रयत्न करना प्रारंभ किया। तीर्थयात्रा के बहाने वह राजाओं से मिलने लगीं। अवध की राजधानी लखनऊ में तो शानदार जुलूस निकला।
सेना का गठन
अंग्रेजों की यह तानाशाही रानी लक्ष्मीाबाई को स्वीकार नहीं था। उन्होंने अपनी सुरक्षा को मजबूत किया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया। महिलाओं को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया गया। रानी की सेनाओं में गुलाम गौस खान, दोस्त खान, खुदा बख्श, लाला भाऊ बख्शी, मोती बाई, सुंदर-मुंदर, काशीबाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह सहित योद्धा शामिल थे। झलकारी बाई जो उनकी हमशक्ल थीं, को अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।
1857 संग्राम में लक्ष्मीबाई शामिल, अंग्रेजों से किला छुड़ाया
मेरठ से शुरू हो चुके 1857 संग्राम की चिंगारी झाँसी पहुँची। धीरे-धीरे यह राज्य क्रांतिकारियों का प्रमुख केन्द्र बन गया। रानी को यह जानकारी मिली कि क्रांतिकारी अंग्रेजों का विरोध कर हैं, यह उनके लिये सुनहरा पल था और वह भी क्रांतिकारियों के साथ हो लीं। क्रांतिकारियों से मिल जाने का समाचार सुनते ही अंग्रेजों ने रानी पर आक्रमण कर दिया, लेकिन रानी और क्रांतिकारी जमकर प्रतिकार करते हुए युद्ध लड़े, परिणामस्वरूप अंग्रेजों को झाँसी किला छोड़कर भागना पड़ा। पुन: झाँसी पर रानी ने अपना शासन वापस पा लिया। 1858 तक रानी ने झाँसी पर शासन किया।
23 मार्च, 1858 युद्ध, किला पर अंग्रेजों का कब्जा
झाँसी राज्य खोने के बाद लेफ्टिनेंट वॉकर ने 23 मार्च, 1858 व इसके बाद सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में झाँसी की सीमाओं में प्रवेश कर आक्रमण कर दिया। जनवरी, 1858 में ब्रितानी सेना झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दी और मार्च महीने में शहर को घेर लिया। दो सप्तााह की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। यह युद्ध 31 मार्च, 1858 तक चला।
सर ह्यूज रोज की अगुवाई में अंग्रेजों ने 23 मार्च, 1858 को झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी आत्म-समर्पण नहीं करने का फैसला कीं। तत्कालीन समय लगभग दो सप्ताह तक युद्ध चला।
झाँसी की सेना में महिलाएँ भी गोला-बारूद ले जा रही थीं और सैनिकों को भोजन दे रही थीं। रानी लक्ष्मीबाई स्वयं शहर की रक्षा का निरीक्षण कर रही थीं। तात्या टोपे की अध्यक्षता में 20000 सेना लक्ष्मीबाई के लिए भेजी गई थी। 30 मार्च को भारी बमबारी की मदद से अंग्रेज किले की दीवार में सेंध लगाने में सफल हो गये।
दामोदर राव को लेकर कालपी की ओर प्रस्थान
रानी लक्ष्मीेबाई दामोदर राव को लेकर अपनी सेनाओं के साथ कालपी की ओर प्रस्थान कीं, जहां वह तात्या टोपे सहित अन्य सेनानी बलों में शामिल हो गईं। रानी और तात्या टोपे ग्वालियर चले गये, ग्वालियर के महाराजा की सेना को पराजित किया। उन्हें तात्याय टोपे, राव साहब, नाना साहब, बांदा के नवाब तथा बालापुर के राज व ग्वालियर की सेना का सहयोग मिला।
लेफ्टिनेंट वॉकर का वध
रानी का अंग्रेजों ने पीछा करना शुरू कर दिया। सौ मील की यात्रा के कारण रानी का घोड़ा थककर भूमि पर गिर गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। रानी घोड़े को छोड़कर आगे बढ़ीं, लेकिन यमुना तट पर पहुँचते ही अंग्रेजी सेना ने रानी को घेर लिया। बंदी बनाने का प्रयास किया, पर उन्होंने हिम्मत से काम लिया और अंग्रेजी अधिकारी लेफ्टिनेंट वॉकर को वहीं मार डाला।
15 जून, 1858 का युद्ध, स्मिथ को पराजय
अंग्रेजी सेना का संचालन जनरल स्मिथ कर रहा था। सेनापति स्मिथ ने क्रांतिकारियों पर कोट की सराय नामक स्थान पर हमला किया। कोट की सराय की सुरक्षा का भार रानी पर था। वह अपनी दो सखियों मन्धर तथा काशी के साथ क्रान्तिकारियों का नेतृत्व करते हुए सेनापति स्मिथ का सामना करने मैदान में आईं। स्मिथ को पराजय स्वीकार कर भागना पड़ा। यह युद्ध तीन दिन और तीन रात 18 जून तक चला।
ह्यूरोज से युद्ध
स्मिथ के पराजय के बाद ब्रितानी जनरल ह्यूरोज रानी से युद्ध करने आया। स्मिथ के साथ चले तीन दिन के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई थककर चूर थीं। रानी की हालत देख अंग्रेज सेना उनको घेरने लगी। यह देख उन्होंने ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया। अपनी तेज तलवार से शत्रुओं को काटते-काटते वह अचानक एक नाला के पास पहुँच गयीं, जिसे पार करना कठिन था। नया घोड़ा नाला पार नहीं कर सका।
रानी का बलिदान
18 जून, 1858 को ग्वालियर के फूल बाग क्षेत्र के पास कोट का सराय में ह्यूरोज के साथ लड़ाई के दौरान रानी ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। दरअसल एक शत्रु सिपाही ने उनके सिर पर वार किया, जो बहुत गहरा था। दूसरे शत्रु सिपाही ने मौका पाकर रानी लक्ष्मीबाई के पेट में गोली मार दी। तीसरे शत्रु सिपाही ने उनकी छाती पर किरिच घोंप दी। इतने सारे घाव के कारण रानी निढाल हो गईं। उनका आधा शरीर लटक गया था। सिर पर लगे वार से इस साहसी वीरांगना की एक आँख कट कर बाहर आ गई थी।
उस समय रानी के साथ राजपूत सेना की ओर से रामचन्द्र राव देशमुख लड़ रहे थे तथा उनकी रक्षा का भी प्रयास कर रहे थे। उन्होंने देशमुख से कहा कि”सरदार अब मेरा बचना असंभव है। म्लेच्छ मेरे शरीर को स्पर्श न कर सकें, तुम्हें इसका प्रबंध करना है। मेरे गिरते ही तुम मेरे निर्जीव शरीर को एकांत में ले जाकर जला देना। यह दायित्व तुम्हारा ”इतना कहते ही रानी ने पुन: हूँकार भरते हुए उन तीनों शत्रु सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
रामचन्द्र राव देशमुख ने बड़ी सावधानी से अमर वीरांगना रानी को उठाया और सुनसान जगह पर चिता तैयार कर उन्हें अंतिम विदाई दी। 23 वर्ष की आयु में इस महाशक्ति ने देश के लिये अपना बलिदान दे दिया।
अंग्रेजों ने तीन दिन बाद किला पर कब्जा कर लिया। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोजने टिप्पणी की कि”रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, क्रांतिकारी नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।”
कुछ दिनों बाद रानी के पिता को बंदी बना लिया गया और उन्हें फाँसी दे दी गई। उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश सरकार द्वारा पेंशन दी गई, हालांकि उनकी विरासत कभी नहीं मिली।
(रानी लक्ष्मीबाई से जुड़े ये तथ्य सेंटर फॉर सोशल स्टडीज, भोपाल से जारी हैं।)