सुमंत भट्टाचार्य

जिन्हें ब्रिटिश कानून व्यवस्था की तनिक भी समझ है वो जानते हैं, सावरकर जी का “माफीनामा” बर्तानवी हुकूमत का एक “सेट फॉर्मेट” था,जो “कालापानी” यानी “सैल्यूलर जेल” भेजे गए हर कैदी से रिहाई के वक्त भरवाया जाता था। क्यों ना इस आधार पर कालापानी की सजा पाए हर संग्रामी को बर्तानवी हुकूमत के सामने “घुटनाटेक” घोषित कर दिया जाए? अलबत्ता जो जेल में मर-खप गए या आजादी के बाद छूटे, उन्हें जरूर “सन्दिग्ध सूची” में रख सकते हैं मेरे वामपन्थी मित्र। बाकी अंग्रेजी दौर के सेल्यूलर रिहाइयों पर तो बात हो ही सकती है ना?

और दरअसल यह माफीनामा भी नहीं था, बरतानवी हुकूमत के प्रति “निष्ठा शपथपत्र” ज्यादा था। आज के जेल मैन्युअल के तहत भी ऐसे हलफनामे लिए जाते हैं। पेरोल या सजा मियाद कम किए जाने की स्थिति में।

फिर भी यदि सावरकर से “खासकर” माफीनामा लिया गया तो यह मुद्दा इतिहास के लिए विशेष अनुसंधान का विषय है, क्यों ब्रिटिश सरकार ने सावकरजी को चिन्हित किया? क्या कारण थे? इन प्रश्नों की जवाबदेही भी वामपन्थी इतिहासकारों पर है।

जाहिर सी बात है, किराए के वामपन्थी इतिहासकार “सिलेक्टिव” इतिहास लेखक हैं, सावरकर जी पर मुखर हैं, तो बाकी पर क्यों चुप हैं? इस बिन्दू पर “व्यवस्थागत पड़ताल” के पक्ष में क्यों नहीं हैं?

वामपन्थी इतिहासकार ऐसा कर भी नहीं सकते, क्योंकि इससे आजादी की लड़ाई के “असल और फर्जी योद्धाओं” के बीच “विभाजन रेखा” खिंच उठेगी। जिसे झेल पाने की कूवत वामपंथियों में नहीं है।

मुझे वाकई हैरानी होती है राष्ट्र्वादी इतिहासकारों की अल्पज्ञता और मूढमति पर। सोचना चाहिए, यदि सावरकर से अकेले “कथित माफीनामा” लिया गया तो किसके आदेश से? क्या जेल अथॉरिटी को यह “विशेषाधिकार” था? तो जेल मैन्युअल क्या कहता है ?

पता नहीं राष्ट्रवादी इतने भोले, नादान और काफी हद तक अफीमची क्यों होते हैं? जो फलक बड़ा ही नहीं कर पाते? कृपया ध्यान रखें, “सब्सटेंसियल एविडेन्स” यानी “पूरक प्रमाण” के बिना इतिहास में कोई तथ्य मान्य नहीं होता। और सावरकर के “कथित माफीनामे” पर जारी “नजरिए का युद्ध” बिना “बरतानवी जेल मैन्यूअल” को बीच विमर्श में रखे हो रहा है। असल मुद्दा, बरतानवी जेल मैन्युअल है।

अब सर सैयद, शौकत अली, मोहम्मद अली, जिन्नाह, गांधी, अंबेडकर, नेहरू को कभी ब्रिटिश हुकूमत ने “खतरा” माना ही नहीं, सो कभी कालापानी नहीं भेजे गए। अब काला पानी नहीं भेजे गए तो माफीनामा क्यों भरते ? इनमें जो जेल गए भी, वो ब्रिटिश सरकार के “प्रिविलेज्ड प्रिजनर” यानी विशिष्ट अधिकार-सुविधा प्राप्त कैदी थे, लिहाज ये भारत मां के सच्चे सपूत? परम बलिदानी! यही ना?

अपन ने इंडियन एक्सप्रेस में रहते हुए एक रिपोर्ट की थी। गोवा के बास्को जेल के कैदी सुधीर शर्मा पर। आपको जानकर हैरानी होगी, सत्तर साल बाद भी स्वतन्त्र भारत के गोवा राज्य में “पुर्तगाली हुकूमत” का जेल मैन्युअल” चल रहा है। बाबा साहब के संविधान के इतर। और सुप्रीम कोर्ट भी गाफिल है। गूगल करेंगे तो शायद वह स्टोरी मिल जाए। मुझसे तो नहीं हुआ।

दो निवेदन है,किसी भी मुद्दे पर रक्षात्मक होने की होने की जरूरत नहीं। हर मुद्दे पर फलक बड़ा कीजिए। खींच कर मैदान में लाइए, फिर पटक कर मारिए। दूसरे,औपनिवेशिक व्यवस्था की समझ विकसित कीजिए।

वाकई दुःखद है, आज तक “ब्रिटिश जेल मैन्यूअल” को बीच में रख सावरकरजी के “कथित माफीनामे” पर कभी चर्चा नहीं हुई। कथित राष्ट्रवादी भी इस बिन्दू पर स्वतः पराजित हैं।

(लेख में लेखक के निजी विचार हैं।)