प्रगतिशीलता बड़ी ही परिवर्तनशील अवधारणा है। यह देश-काल सापेक्ष होती है। एक समाज में जो कुछ प्रगतिशीलता का चिह्न माना जाता है कोई आवश्यक नहीं कि किसी दूसरे समाज में भी वह उतना ही प्रगतिशील हो। इसीलिए एक समय की प्रगतिशीलता और आधुनिकता के प्रक्षेपण का प्रयास किसी अन्य समय में करना उचित नहीं होता। एक समय में भारतीयों में अपेक्षाकृत कम कपड़ों का चलन था। गर्म देश था, सिलाई इस तरह सुलभ नहीं थी। और हाँ, आज के तरह हर साल फैशन नाम की वस्तु अपडेट नहीं होती थी। हड़प्पा की खुदाई में एक हँसली मिली थी। एक हँसली हमारी दादी दहेज में लेकर आईं थीं। अब आप समझ सकते हैं। उसी समय के इंग्लैंड में लोग कपड़ों से ढके रहते थें। कपड़ों के कई स्तर होते थें….. एक स्तर के ऊपर दूसरा फ़िर तीसरा स्तर। विक्टोरियन समाज के अंग्रेजों के लिए हमारा वस्त्र-विन्यास आधुनिक नहीं था…. पिछड़ा था। इस लिहाज से देखें तो आज लगभग पूरी दुनिया पिछड़ती जा रही है। अब उस समाज की जो प्रगतिशीलता थी, जो फैशन था, आज क्या है हमारे लिए? आज किन्हीं देवीजी या किन्हीं महानुभाव पर विक्टोरियन काल के कपड़ों का बोझ लादने का प्रस्ताव भी रखकर देखिए! आज के समाज में हल्के और खुले-खुले वस्त्र आरामदायक हैं, मॉडर्न हैं… तथा प्रगतिशील भी हैं। अब आज के लोग चाहें तो अंग्रेजों को रूढ़िवादी ठहरा सकते हैं। उन्होंने हमें भी ठहराया था किसी समय में।
कई बार ऐसा होता है कि हम अपने किसी पूर्वपुरुष के कृत्यों का आँकलन अपनी वर्तमान समझ के आधार पर करने लगते हैं। अपने समय की प्रगतिशीलता को उनके ऊपर थोपकर देखने लगते हैं। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एक महान समाज-सुधारक हैं। पूरे देश में नवजागरण पहले बंगाल में आया। उसी नवजागरण के अग्रदूतों में से एक विद्यासागर जी भी हैं। जिस प्रकार सतीप्रथा के उन्मूलन का श्रेय राजा राममोहन राय को जाता है, उसी प्रकार विधवा पुनर्विवाह हेतु जागृति लाने के लिए विद्यासागर जी अविस्मरणीय रहेंगे। लेकिन आज का कोई भी स्त्रीविमर्शकर्ता उनके विषय में कह सकता है कि वे नारी मुक्ति के विरोधी थे। एक बन्धनस्वरूप विवाह से मुक्त हुई नारी को पुनः दूसरे बंधन में जकड़ने की वकालत कैसे सुधार हो सकता है? इतना ही सुधार करना था तो स्त्रियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का जतन करतें। ऐसे में विद्यासागर जी को स्वयं आकर कहना पड़ जाएगा- ‘खमा करुन मोहशय! जितनी समझ होगी उतना ही तो कर सकूँगा!’
आज से दो साल पहले मैं कविकुलगुरु कालिदास के मेघदूतम् को आधार बनाकर एक निबन्ध लिख रहा था। तब मुझे मेघदूतम् पढ़ने की ज़रूरत महसूस हुई। पूर्वमेघ तो नहीं लेकिन उत्तरमेघ पढ़ने के क्रम में जब ठोस और मांसल शृंगारिक वर्णन आने लगें तब मैं असहज हो गया। शृंगार में सूक्ष्मता और वायवीयता के आग्रही मेरे मन को वे अंश जमे नहीं। मैंने उन्हें छोड़कर अपनी तरफ से काफ़ी कुछ सूक्षम और वायवीय बातों को निबन्ध में यक्ष-कथन के रूप में भर दिया। अब थोड़ी दुनिया देखने के बाद, समझ के दायरे के थोड़े और विस्तार के बाद सोचता हूँ तो लगता है कि पिछड़ापन लेकर तो मैं ही कालिदास के पास गया था। वे तो मुझसे कहीं अधीक मानवीय और प्रगतिशील थें।
ये सही है कि उनके साहित्य में बहुत कुछ ऐसा भी तो त्याज्य है या कहूँ कि उतना प्रांसगिक नहीं है। लेकिन उससे कहीं अधीक वो सब कुछ है जो मानवीयता के लिए सदैव स्पृहणीय और ग्राह्य बना रहेगा……. जो सदैव सुन्दर रहेगा। अब यदि मैं उनके साहित्य के केवल रूढ़िवादी और सामंतवादी पक्ष को ही देखकर उनका मूल्यांकन करूँ तो आप मुझे क्या कहेंगे?
2.साम्प्रदायिकता और जातिवाद हमारे समय का कटु यथार्थ है। ऐसे समय में जब देश की आधे से अधिक जनसंख्या विशेषरूप से युवापीढ़ी अपने अतीत और वर्तमान से अनभिज्ञ रहकर सोशल मीडिया की निराधार सूचनाओं के आधार संचालित हो रही है और स्वयं से भिन्न समुदाय के प्रति विषवमन कर रही है, तब ऐसे में मुझे व्यक्तिगत रूप से किसी भी प्रकार की जातीय या साम्प्रदायिक पहचान से परहेज रखने में ही भलाई दिखती है। जब हम कहते हैं कि मैं हिन्दू हूँ तब परोक्ष रूप से सामने वाले के मन में भी हम ये बोध जागृत कर देते है कि वह मुसलमान, सिख, ईसाई आदि है। अतः हमसे भिन्न है। यह भिन्नता की भावना हमारे समाज के लिए बड़ी घातक है। हम सबसे पहले मानव हैं और फ़िर भारतीय। इतनी ही पहचान मैं पर्याप्त मानता हूँ। लेकिन इसी सामाजिक सौहार्द की आवश्यक्ता को ध्यान में रखकर यदि हम इतिहास लिखने लगें, उसकी मनमानी व्याख्याएँ करने लगें, तथ्यों से आँख बचाने लगें या फ़िर फतवे जारी करने लगें तो इसे भी मैं सही नहीं मान सकता।
जहाँ तक मेरा मानना है (और मेरा मानना गलत भी हो सकता है) हिन्दू-मुस्लिम एकता की अवधारणा उत्तर मुग़लकालीन अवधारणा है। इसके लिए प्रयास भले मुग़लकाल से ही प्रारंभ हो गए हों। लेकिन यह संभव हुआ यूरोपीय शक्तियों के आगमन के बाद। पहले आपसी संघर्ष था। जब एक बाहरी शत्रु आया जिससे दोनों के अस्तित्व को संकट था, तब दोनों ने साथ मिलकर एक समान शत्रु (common enemy) के विरुद्ध संघर्ष छेड़ा। 1857 की क्रांति उसी संघर्ष का प्रतिफल था। अंग्रेज इससे इतने आतंकित हुए कि इस एकता को भंग करना उनकी भारतीय सामाजिक नीति का केंद्रबिंदु ही बन गया। उन्हीं के विषबीज वपन का परिपक्व फल था धर्म के नाम पर देश का विभाजन। आज हमें साम्प्रदायिक सद्भाव की आवश्यक्ता है…. हिन्दू-मुस्लिम एकता ज़रूरी है। लेकिन इसके साथ ही इस बात से को भी नहीं झुठला सकते हैं कि कभी संघर्ष हुआ था। और इसे भी समझना ज़रूरी है कि संघर्ष जिनसे हुआ वो अलग लोग थें और सद्भाव जिनके साथ आवश्यक है वो अलग लोग हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे लॉर्ड क्लाइव विदेशी था और टॉम ऑल्टर (श्वेत बॉलीवुड अभिनेता) भारतीय हैं।
आज के समय में मध्यकाल के विषय में कुछ भी ‘हिन्दू-मुस्लिम’ के मुहावरे में कहने पर आप तुरन्त ‘साम्प्रदायिक’ और ‘जातिवादी’ बन जाते हैं। किसी समय में भारतेन्दु ने बहुत भावविभोर होकर रसखान आदि मुसलमान भक्तों के विषय में कहा था….’ इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दू वारीये।’ अब यहीं चूक हो गई उनसे… मुसलमान कह दिया! अब हिंदी की महान मेधाओं की दृष्टि में तो भारतेन्दु भी ‘साम्प्रदायिक’ और ‘जातिवादी’ ठहरेंगे। यही हाल प्रेमचन्द, प्रसाद और निराला जैसे साहित्यकारों का होगा। क्योंकि इनके साहित्य में आपको बड़ी सरलता से ये मुहावरा मिल जाएगा। और उन्हीं के क्यों? चंदबरदाई, जगनिक, विद्यपति, खुसरो, कबीर, तुलसी, जायसी, कुंभनदास, रहीम, रसखान आदि सबके यहाँ मिल जाएगा। इस तरह तो ये सब ‘साम्प्रदायिक’ और ‘जातिवादी’ हैं। अकेडमिया को तुरन्त इन सब की रचनाओं का विकल्प खोजकर इनकी रचनाओं को संग्रहालय में डाल देना चाहिए। आचार्य शुक्ल का तो कहना ही क्या! उनके इतिहास के विरोध में तो फतवा भी जारी हो चुका है।
अपने देश-काल की प्रगतिशीलता किसी और देश-काल में प्रक्षेपित एक प्रकार का फाँसीवाद कार्य है। बाकी लोग स्वयं समझदार हैं।
3.अंत में सारा विवाद जिस एक पंक्ति के कुपाठ से प्रारंभ हुआ उस पर प्रकाश डाला देना उचित होगा। ‘कुतुबन मिया एक ऐसी कहानी लेकर जनता के सामने आए जिसके द्वारा उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अपने मनुष्य होने का परिचय दिया।’ यहाँ शुक्ल जी का तात्पर्य यह कत्तई नहीं है कि मुसलमान मनुष्य नहीं होते हैं। यदि आचार्य शुक्ल द्वारा की गई कविता की परिभाषा याद रह जाती तो संभवतः ये विवाद न खड़ा होता नाही फतवा जारी करना पड़ जाता।
आचार्य शुक्ल ‘कविता क्या है’ नामक निबन्ध में स्पष्ट कहते हैं कि ‘जब तक कोई अपनी सत्ता की भावना को ऊपर किये इस क्षेत्र के नाना रूपों और व्यापारों को अपने योगक्षेम, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि से सम्बद्ध करके देखता है तब तक उसका हृदय एक प्रकार से बद्ध रहता है।…… हृदय की इसी मुक्ति के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे ही कविता कहते हैं।’ इसमें ध्यान देने वाला शब्द है ‘बद्ध’ अर्थात स्वयं के पृथक अस्तित्व के भाव में बँधा हुआ। अब कुतुबन के विषय में जो पंक्ति कोट की गई है उससे आगे देखिए। ‘इसी मनुष्यत्व को ऊपर करने से हिन्दूपन, मुसलमान, ईसाईपन आदि के उस स्वरूप का प्रतिरोध होता है, जो विरोध की ओर लेकर जाता है।’ यहाँ सबसे पहले मैं ये कहूँगा की जो लोग आचार्य शुक्ल का विकल्प प्रस्तुत करने की बात कर रहे हैं वो पहले एक ही पंक्ति में ‘प्रतिरोध’ और विरोध’ का इतना सुन्दर प्रयोग करना सीख लें।
भारतीय कलादृष्टि का आदर्श रहा है अहं का इदं में पर्यावसान। अपनी व्यक्तिगत सत्ता को भूलकर लोकसामान्य भाव-भूमि का स्पर्श। कुतुबन ने ऐसा ही किया। इसी काम के लिए आचार्य शुक्ल उनकी प्रसंशा कर रहे हैं। उन्होंने प्रेम की कथा लिखी। पूरी दुनिया के साहित्य में प्रेम सबसे प्रधान काव्य विषय है। प्रेम किसी देश,जाति या सम्प्रदाय का नहीं होता….. प्रेम सबका होता है। लोक-सामान्य की भाव-भूमि का होता है….. मनुष्यता की भाव-भूमि का होता है। इसीलिए कुतुबन ने मनुष्यता का परिचय दिया। इसका उल्लेख इतना आवश्यक क्यों लगा शुक्ल जी को? तो इसलिए कि कुतुबन ने हिन्दू पात्रों को लेकर कथा लिखी है और हिन्दू रीति-नीति का बड़ा सुन्दर चित्रण किया है। सभी जानते हैं कि प्रेममार्गी कवियों ने अपनी कथाओं में हिन्दुओं की दिनचर्या का, त्योहारों का, मान्यताओं का यहाँ तक कि भावनाओं का भी बड़ा सुन्दर और वास्तविक चित्रण किया है। ये अंश अचंभित करते हैं। इन्हीं में जो मार्मिक प्रसंग है वो विह्वल कर देते हैं। नागमती वियोग खण्ड में नागमती कोई हिन्दू रानी नहीं रह जाती। वह एक सामान्य विरहणी नारी बन जाती है। यही मनुष्यता का परिचय देना है। यही अपनी indivisual identity को किनारे रखकर लोग-सामान्य भाव-भूमि का स्पर्श है। इसी बात के लिए शुक्ल जी कुतुबन की प्रसंशा कर रहे हैं। यदि कोई हिन्दू इसी प्रकार मुसलमान कथानक को आधार बनाकर कुछ लिखता तो इसी मुहावरे में उसकी भी प्रसंशा की जाती कि ‘हिन्दू होते हुए भी मनुष्यता का परिचय दिया।’