महेंद्र पाण्डेय
अकारण ही केरल में गर्भवती हथिनी को क्रूरतम तरीके से मार डाला गया। मारने वाले मनुष्य देह धारी प्राणी थे। प्रश्न यह है कि वे राक्षस कैसे बन गए! उनमें सहज मानवीय करुणा का भाव क्यों नहीं था ?
दरअसल,हम मार्क्स के भ्रमित अनुयाई बनकर धर्म के मूल तत्वों और उनसे मिलने वाली शिक्षाओं से किनारा कर चुके हैं। अतः धर्म जनित इस मानवीय समाजीकरण से हम बहुत दूर हो चुकें हैं।
दूसरे,अब सामाजिक स्तर पर भी हम मानवीय मूल्य गृहण नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि सामाजिकता का बहुतायत भाग व्यवसायिक लेन देन से ओतप्रोत हो चुका है, जहां हम ख़तरनाक चतुरता और चापलूसी ही सीख रहे हैं।
तीसरे, शिक्षा द्वारा भी हम मानव नहीं बन पा रहे हैं, क्योंकि पश्चिमी ढर्रे पर संचालित शैक्षणिक गतिविधियां हमें संसाधन समझकर विकसित कर रही हैं,अर्थात वर्तमान शिक्षा का लक्ष्य भी व्यवसायिक ही है न कि उत्तम चरित्रवान मानव निर्माण।
चौथे, राज्य की विधिक व्यवस्था द्वारा भी हम सच्चे अर्थों में नागरिक नहीं बन पा रहे हैं, क्योंकि राज्य मूल रूप में स्थाई तत्व होते हुए भी राजनीतिक दलों की गतिशीलता और वैचारिकता का गुलाम है, अतः राज्य द्वारा हम नागरिकता बोध के स्थान पर दलीय संस्कार सीख रहे हैं अर्थात् नागरिक बनने से पहले नेता(छद्म) बन रहे हैं।
अब यक्ष प्रश्न यह है कि जब सामाजीकरण के विभिन्न रास्तों से परिवार और माता/पिता का विमर्श ख़तम ही हो चुका है, क्योंकि अब हम एक व्यक्ति(individual) बन गए हैं, हमारे प्राथमिक समूह कमजोर हो चुके हैं, हम मात्र द्वितीयक समूहों के प्रथक सदस्य बचे हैं, हमारी सामूहिक पहचान और चेतना हमारे द्वितीयक समूह ही हो गए हैं, तो हम मानव कब और कैसे बनेंगे ? हमें मानव बनाने के साधन क्या होंगें ?
क्या अब वह समय आ गया है कि जब हम पूर्ण मन से यह स्वीकार कर लें कि प्रगति पथ चलते चलते अब हम स्व विकास की उस दशा में पहुंच चुके हैं, जब हम मात्र एक “संसाधन” हैं, एक “उपभोक्ता” हैं, एक “आर्थिक वस्तु/साधन” हैं ?
यहां तक तो ठीक है लेकिन क्या अब हम यह भी मान लें कि हम एक “राक्षस(परपीड़क)” भी हैं ?