राहुल मिश्रा
मानव अधिकारों से लेकर लोकतंत्र को बचाने का दावा करने वाला और किसी दूसरे देश की सुरक्षा और दंगो को लेकर आलोचना करने में सबसे आगे रहने वाला अमेरिका आज खुद ही कटघरे में खड़ा है।
हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विश्व भर के कई अन्य देशों में भी देखने को मिले हैं। इस विरोध प्रदर्शन को अलग-थलग करने के लिये अमेरिकी सरकार ने भीड़ के ऊपर आँसू गैस के गोले, रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल किया और अमेरिकी राष्ट्रपति ने प्रदर्शनकारियों को ‘ठग’ कहा एवं उन्हें गोली मारने और उनके खिलाफ सेना के इस्तेमाल करने की धमकी दी। हालात इतने बदतर हो गए हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कुछ समय के लिए व्हाइट हाउस के बंकर में छिपना पड़ा। छियालीस वर्षीय जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन को एक अमेरिकी पुलिसकर्मी ने सिर्फ इसलिए काफी देर तक घुटनों से दबाए रखा क्योंकि वह अश्वेत इंसान था वरना अगर उस पर कोई आरोप होता तो क्या उसकी सजा यही थी जो दुनिया को देखने को मिली जब तक जॉर्ज फ्लॉयड की गर्दन को दबाकर रखा गया तब तक वह तड़पता रहा और उसने कई बार कहा कि मैं सांस नहीं ले पा रहा हूं लेकिन गोरे पुलिसकर्मियों ने उसे नहीं छोड़ा। यदि यही विरोध प्रदर्शन किसी गैर-पश्चिमी राष्ट्र में हो रहे होते और वहाँ का राष्ट्रपति ऐसी भाषा का प्रयोग करता तो अमेरिकी विदेश विभाग,ब्रिटिश, फ्रांस और जर्मनी के विदेश कार्यालय तुरंत वहाँ की सरकार की निंदा करते और मानवाधिकारों का सम्मान करने का आह्वान करते तथा अमेरिकी कांग्रेस भी उस राष्ट्र के ‘क्रूर’ शासन के खिलाफ कानून बना देती या उस पर प्रतिबंध लगा देती। किंतु इस बार हिंसक विरोध प्रदर्शन, पुलिस की बर्बरता और राष्ट्रपति की धमकी का गवाह बनने वाला देश स्वयं संयुक्त राज्य अमेरिका है। वर्तमान में जिस तरह से राष्ट्रपति ट्रंप स्थिति को संभाल रहे हैं उससे लगता है कि उनकी तीव्र प्रतिक्रिया सैन्यवादी है जिसने अब तक प्रदर्शनकारियों को उकसाया है और अमेरिकी समाज में विभाजन को गहरा किया है।
पूरे विश्वभर में लोकतंत्र की दुहाई देने वाला देश आज खुद ही ऐसी अमानवीय घटना का जिम्मेदार बनने लगा है कि जिसके चलते वहां की आवाम का अमेरिकी कानून से भरोसा उठने लगा है अमेरिका एक ऐसा देश है जिसे अधिकतर बाहर से आए हुए लोगों ने ही बसाया है चाहे वह इटालियन हो जर्मन हो या फिर एशियाई।
इस घटना के बाद अब अमेरिका में नस्ली हिंसा के इतिहास पर चर्चा छिड़ गई है काले लोगों के खिलाफ पुलिस की बर्बरता ने यह साबित कर दिया है कि प्रशासन में अभी भी नस्ली नफरत भरी हुई है पिछले कई वर्षों से गैर अमेरिकी नागरिकों को मौत के घाट उतारा जा रहा है दुखद बात तो यह है कि एशियाई देशों सहित दूसरे महाद्वीपों से अमेरिका जाकर रहने वाले लोगों ने अमेरिका के विकास में योगदान ही नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से खुद को ही जमीन के साथ जोड़ा है।
बराक ओबामा के कार्यकाल में एक भी गैर अमेरिकी की मृत्यु को गंभीरता से लिया जाता था लेकिन डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में अनगिनत घटनाओं को सामान्य घटना कह कर अनदेखा किया जाता है जिसका नुकसान आज अमेरिका भुगत रहा है। अमेरिका को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि वे दास प्रथा के युग में रह रहे हैं।आज का युग लोकतंत्र व तकनीक का युग है किसी भी अमान्य घटना के लिए अंतरराष्ट्रीय मंच पर अमेरिका को शर्मिंदा होना पड़ सकता है कम से अब अमेरिकी शासकों के पास कोई बहाना नहीं बचा है कि उनके यहां नस्ली हिंसा नहीं होती है।
किसी की भी राष्ट्रीयता को दबाया नहीं जा सकता ,यह कहना भी गलत नहीं होगा कि राजनेता ही अपने हितों की खातिर नस्ली भेदभाव को बढ़ावा देते हैं जो आगे जाकर दर्दनाक घटनाओं का कारण बनती है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अमेरिका के मूल निवासियों का रोजगार बचाने के नाम पर जो रणनीति अपनाई है उससे कहीं न कहीं नस्ली भेदभाव को बढ़ावा मिला है साथ ही साथ यह घटना एक ऐसे समय में हुई है जब देश में कोरोना महामारी के कारण 1 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है और 4 लोग करोड़ों लोगों की नौकरियां जा चुकी है और कोरोना महामारी से देश में सबसे बुरी तरह से प्रभावित लोगों में अल्पसंख्यक अश्वेत समुदाय के लोग शामिल हैं। वर्ष 1929 की महामंदी (Great Depression) के बाद से अमेरिका में सबसे बड़ी आर्थिक मंदी देखी जा रही है। अश्वेत नागरिक फ्लॉयड की मौत ने अमेरिकी जनता के गुस्से के लिये एक चिंगारी का काम किया तो वहीं राष्ट्रपति ट्रंप की भड़काऊ भाषा ने इन प्रदर्शनों को हिंसक रूप दे दिया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अतीत में कई बार नस्लीय हिंसा देखी है जिनमें अधिकतर विरोध प्रदर्शन स्थानीय स्तर के ही होते थे। किंतु वर्तमान में हो रहे विरोध प्रदर्शन वर्ष 1968 के विरोध प्रदर्शनों जैसे हैं। जिसे न्यू यॉर्कर (New Yorker) के संपादक ‘डेविड रेमनिक’ ने इसे ‘एक अमेरिकी विद्रोह’ (An American Uprising) कहा था।
वहीं दूसरी तरफ अमेरिका में प्रदर्शन कर रहे लोगों को विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है न्यूजीलैंड में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के बाहर लोगों ने प्रदर्शन किया वहीं दूसरी तरफ रूस ने कहा है कि अमेरिका में नस्लीय भेदभाव की समस्या वास्तव में मानव अधिकारों से जुड़ी हुई है, उत्तर कोरिया ने भी अश्वेत व्यक्ति की हत्या की निंदा की है वहीं दूसरी तरफ अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव भी नजदीक है इसलिए जहां राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रवाद की भावना को हवा दे रहे हैं वहीं उनके विरोधी चुनाव में श्वेत और अश्वेत के मुद्दे को लेकर भावी राष्ट्रपति चुनाव की दिशा को प्रभावित करने का प्रयास कर रहे हैं अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी को अश्वेतों का और रिपब्लिकन पार्टी को श्वेतों का समर्थक माना जाता है।
वहीं दूसरी तरफ यह भी माना जा रहा है कि अमेरिका में हो रही यह विरोध प्रदर्शन सिर्फ अश्वेत नागरिक की हत्या का कारण नहीं बल्कि दंगों के माध्यम से जो हालात सामने आए हैं वह हजारों अमेरिकियों का गुस्सा है जो एक ही समय में कई बाधाओं से लड़ रहा है वहीं दूसरी तरफ अमेरिकी इतिहास में वर्ष 1968 और वर्ष 2020 के बीच काफी समानताएं हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की मृत्यु से पूर्व संयुक्त राज्य अमेरिका पहले से ही बड़े पैमाने पर आर्थिक एवं स्वास्थ्य संबंधित संकटों से जूझ रहा था। COVID-19 महामारी से अश्वेत समुदाय को काफी दिक्कत हुई जिसमें अब तक 100,000 से अधिक अमेरिकी नागरिकों की मौत हो चुकी है। जानकर बताते हैं कि आगामी राष्ट्रपति पद के लिये होने वाले चुनाव के कारण राष्ट्रपति ट्रंप स्पष्ट रूप से पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की बनाई रेखा का अनुसरण कर रहे हैं।
वर्ष 1968 में हुए विरोध प्रदर्शनों के बाद रिचर्ड निक्सन ने अपने चुनावी अभियान में ‘लॉ एंड ऑर्डर’ का आह्वान किया। यह एक नस्लीय संदेश था जिसने अश्वेत नागरिकों द्वारा की गई हिंसा के समक्ष श्वेत नागरिकों के वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया।‘लॉ एंड ऑर्डर’ अभियान ने निक्सन के राजनीतिक भाग्य में एक नई जान फूंक दी, जिसे लिंडन बी. जॉनसन ने कभी ‘जीर्ण प्रचारक’ (Chronic Campaigner) कहा था। निक्सन ने उस वर्ष राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि आगामी चुनाव में ट्रंप फिर से अर्थव्यवस्था पर दाँव नहीं लगा सकते क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था अत्यंत नाज़ुक स्थिति में है।
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पहले डेमोक्रेट्स थे हालांकि अब वे रिपब्लिकन है इसलिए समझा जा सकता है कि अमेरिका में हो रहे हैं प्रदर्शनों में वहां की राजनीति भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है लेकिन जिस तरह पुलिस ने टॉर्च लाइट को सड़क पर उसकी गर्दन को अपने घुटने से दबाए रखा। इस बात से अमेरिकी पुलिस का अमानवीय चेहरा सबके सामने आ गया है। अमेरिका अपने आप को विश्व का सबसे मजबूत व्यक्तित्व ,लोकतांत्रिक देश भले ही मानता हो लेकिन अश्वेतों के प्रति वहां की सरकारों की जो भी नीति थी और जो भी नीति आज वर्तमान में भी है उससे स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका में अश्वेतों को आज भी दूसरे दर्जे का नागरिक ही समझा जाता है। अमेरिका के विकास में अश्वेतों का भी उतना ही योगदान है जितना श्वेतों का।
अमेरिका प्रशासन व अमेरिका के गोरे लोगों को यह बात मालूम होनी चाहिए कि नस्ली भेदभाव को मिटाने के लिए उनके ही महान नेता इब्राहिम लिंकन ने 19वीं सदी में दास प्रथा का अंत करने का गौरव प्राप्त किया था।