इरफान खान

गौरव शुक्ला। 

कितना अजीब संयोग था.. कि उसकी अम्मी ने उसका नाम इरफान रखा था इरफान का मतलब पता है? विवेक, ज्ञान, इनलाइटमेंट और उसके अब्बू उसे पठानों के घर का ‘ब्राह्मण’ कहते थे।

अभी हफ्ते भर पहले खबर आयी थी कि उसकी अम्मी का इंतकाल हो गया था, खबर सुनकर थोड़ा असहज हो उठा था मैं। उसकी अम्मी की वो लड़खड़ाती आवाज याद आ गयी थी, जो किसी टीवी पर सुनी थी कभी।
“मिंया इरफान आपसे इतनी दूरी हो जायेगी पता होता तो आपको इस फिल्मी दुनिया में जाने की इजाजत कभी न देती।”
मुझे माँओं का कहा याद रहता है वजह हमारे मध्यम वर्गीय समाज में माँ बेटे का संबंध मानवीय से ज्यादा दैवीय होता है।
सोच रहा था कि एक बीमार पर पड़े इंसान को कैसे लगी होगी ये खबर…उसके चार दिन बाद ही इरफान की तबीयत खराब हुई और फिर …एक बुरा आभास होने लगा था …फिर आयी मौत की खबर।
एक प्रतिक्रिया रहित शून्य में था… समझ न आया क्या गिनाऊँ, क्या कहूँ सब तो कहा जा चुका।
मगर अपना हिस्सा तो अपना ही होता है न…

एक कलाकार की जिंदगी से कोई क्या सीख सकता है भला? बल्कि क्या कोई किसी से भी कुछ सीख सकता है क्या? पता नहीं…
मगर हाँ! मगर वह उसको जान सकता है, उसके अपने हिस्से का जान सकता है, उस हिस्से के तमाम किस्सों को जान सकता है जो शायद कभी किसी काम आ सकें हमारे।

वो कहता था कि परंपरा तोड़ना जन्मसिद्ध अधिकार है उसका।
जब सिनेमा का कार्पेट ‘खान-त्रयी’ हो… उस कार्पेट का आभामंडल ‘कपूरमयी’
हो वहाँ किसी भी ‘इरफान’ की बात बेमानी होती ।
उसका कोई मकबूल न होता गर वो जिद्दी न होता वो जिद जो छोटे शहरों के अधिकांश पिता अपनी औलादों को एकमात्र विरासत के रूप में दे पाते हैं।
उसी जिद के सहारे वो एक ‘अनकन्वेंशनल-लुक’ लेकर समंदर उस पार भी जा पहुंचा क्योंकि उसके पास प्रतिभा का वो टिकट था जो सिनेमा के लंबरदारों के मँहगे वीजा पर भारी था।
हो सकता है हमें उससे अपेक्षाएं न रहीं हों इस वजह से उसकी सीमित सफलता ही हमें अतिउत्साहित करती रही है। मगर शायद वो इससे ज्यादा खोज रहा था हमसे…
वह उस समंदर की तरह था हमारे लिए जिसके पानी से हमारा कोई राबता नहीं था मगर उसकी वृहदता हमें अनायास अचंभित करती रही हो।
भारतीय सिनेमा का दर्शक कुछ सस्ती सी मैंगजीनों का छिद्रान्वेषण करने में ऐसा मशगूल रहा कि उसने एक चलती फिरती इनसाक्लोपीडिया को नजरअंदाज कर रखा।
ऐसी इनसाक्लोपीडिया जिसे दसवीं पास के ये सुपरस्टार अपना सबकुछ बेचकर भी हासिल नहीं कर सकते। वो संभवतः भेंड़-बकरियों के बीच दौड़ता छुट्टा सांड़ जैसा था…सिनेमा के भेड़चाल कल्चर से लड़ता एक ‘बीहड़ का बागी’।
फिल्में देखना लगभग डेढ़ साल से छोड़ दिया है। मगर जब देखता भी देखा तो चुनाव का तरीका थोड़ा अटपटा था… फिल्म देखने से पहले उस कलाकार का साक्षात्कार खोज के पढ़ता हूँ… जमा तो ठीक वरना फिल्म वहीं रिजेक्ट अपनी ओर से।
इरफान का एक साक्षात्कार देखा था एक बार…वो कहता है कि
“इस दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज जो हो सकती है वह है अनिश्चितता। मेंरी माँ की कोख में मेंरा ही आना, मेंरे शरीर के अंगों का अपने हिसाब से ही चलना…सब अनिश्चित है, हमारा इसपर कोई नियंत्रण नहीं शायद यही खूबसूरती है। अगर मैं खुद को ज्यादा गंभीरता से लूँ तो यह अनिश्चितता के खिलाफ होगा।
… हो सकता है कि कोई ईश्वर है तो उसे आने दो मैं उसे देखूँगा उसे जानूँगा उसे समझा तो पा लूँगा ,यह हम दो लोगों के बीच की बात है मुझे कोई जल्दी नहीं है मुझे इस अनिश्चितता में रहने दो।

बड़ी कोफ्त होती है ये सोचकर कि इतने संजीदा इंसान को वो नहीं मिला जो उसे मिल सकता था। हमने इस मीडियोकर दुनिया में न जाने कैसे और कितने इरफान गँवा दिये होंगे। ये सब ऐसा था मानो एक अष्टधातु से बनी कुदाल से मैने मिट्टी खोदते देखा हो और उसपे ताली भी बजाई हो।
एक संभावना का उपहास किया है हमनें।किसी गहरे जलस्रोत से अंजुल भर पानी लेकर हमनें उसकी समग्रता का पान समझ लिया।
हमने इस स्टीरियोटाइप दुनिया में ‘मिथ-ब्रेकर’ का जीता जागता ग्रंथ अपठित रहने दिया। इरफान के न रहने का दुख नहीं है बल्कि क्षोभ है ,ग्लानि है कि संभावनाओं से भरे किसी कलाकार को हमने अपने रची एक पूर्वाग्रह की महामारी में ‘दफ्न’ कर दिया।
“i think we forget things if their is nobody to tell them”
जिगर मुरादाबादी का लिक्खा है कि..
“अल्लाह अगर तौफीक न दे इंसान के बस का काम नहीं
फैजान-ए-मोहब्बत आम सही इरफान-ए-मोहब्बत आम नहीं”

उसे पतंग उड़ाने का अनहद शौक था पूरे-पूरे दिन उड़ा सकता था..उसे भी शायद उड़ना पसंद था, शायद वो इस मीडियोकर दुनिया को जानता था कि साला! कोई आकर डोर काट देगा कभी न कभी, तब तक उड़ लो जितना ऊँचा उड़ सकते हो।
अलविदा इरफान… तुम्हारी वो अल्हड़ हँसी याद आयेगी