शिवम
उत्तर प्रदेश सरकार ने श्रम कानूनों में छूट से जुड़े एक अध्यादेश को मंजूरी दी है। इस अध्यादेश में कोरोना वायरस संक्रमण के बाद प्रभावित हुई अर्थव्यवस्था और निवेश को पुर्नजीवित करने के लिए उद्योगों को श्रम कानूनों से तीन साल के लिए छूट का प्रावधान है। इस अध्यादेश में अधिकतर श्रम कानूनों और प्रावधानों को 3 साल के लिए अस्थायी तौर पर रद्द कर दिया गया है। इसमें वे कानून भी शामिल हैं जो श्रमिकों के लिए न्यूनतम वेतन, महिलाओं और पुरुषों के लिए बराबर भुगतान, श्रमिकों की नियुक्ति और बर्खास्तगी की उचित प्रक्रिया और कामगारों की सुरक्षा और काम करने लायक परिस्थितियों की गारंटी देते हैं।
जो कानून और प्रावधान जारी है उनमें मजदूरी भुगतान अधिनियम की धारा 5, कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम1923, बँधुआ मजदूरी प्रथा(उन्मूलन) अधिनियम 1976, भवन एवं अन्य सन्निर्माण कर्मकार अधिनियम 1996 हैं। 38 श्रम कानूनों में से सिर्फ 3 श्रम कानूनों को ही पूरी तरह कार्यान्वित रखा गया है।
भारत में वैसे भी श्रम कानूनों का अस्तित्व सिर्फ कागजों में ही है। जमीनी स्तर पर श्रम कानूनों का कार्यान्वयन आज तक नहीं होता है। जिसका परिणाम हम फैक्टरियों में लगने वाली आग की दुर्घटनाओं, श्रमिकों के प्रवासन, उत्पीड़न और अन्य औद्योगिक दुर्घटनाओं के रूप में देखते ही रहते हैं जिनमें मजदूरों की जानें जाती रहती हैं। कोरोना महामारी के दौरान मजदूरों की समस्याओं को दर-किनार कर बिना पूर्व नियोजित तैयारी के लगाए गए लॉक डाउन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव प्रवासी मजदूरों पर पड़ा है। दिन-प्रतिदिन हम उनकी मौत और लगातार दयनीय दशा में पलायन को देख रहे हैं। इस मार्मिक स्तथि से श्रमिको को राहत पहुँचाने की बजाय सरकारें अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर उनके अंतहीन शोषण की व्यवस्था करने में लगीं हैं। राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, पंजाब की सरकारों ने कार्य-दिवस को 8 घण्टे से बढ़ाकर 12 घण्टे कर दिया है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री का प्रवासी मजदूरों के प्रति असंवेदनशील रवैया तो हम सबने देखा है जिन्होंने ट्रेनों को ही रुकवा दिया था ताकि मजदूर घर न लौट सकें। केंद्र सरकार भी पुराने श्रम कानूनों को खत्म कर श्रम-संहिताएं लागू करना चाहती है। उत्तर प्रदेश सरकार तो मजदूरों को बँधुआ मजदूर बनाने की तैयारी कर चुकी है।
कैसे बँधुआ मजदूरी (उन्मूलन) अधिनियम 1976 के रहते भी बँधुआ हो जायेंगे मजदूर
उत्तर प्रदेश सरकार ने जहाँ बॅधुआ मजदूरी (उन्मूलन) अधिनियम को जारी रखा है वहीं न्यूनतम मजदूरी अधिनियम को रद्द कर दिया है। मान लीजिये निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के अनुसार किसी श्रमिक को 8 घण्टे काम के लिए 150₹ प्रतिदिन दिये जाते हैं, अब इन्हें अगर 150₹ की जगह 80₹ प्रतिदिन 8 घण्टे के लिए दिये जाने लगे तो इस न्यूमतम मजदूरी कानून के रदद् हो जाने पर ऐसी कौन सी कानूनी व्यवस्था होगी कि मजदूर इसका विरोध कर सके। एक्ट के रद्द हो जाने से मजदूर इस अन्याय के खिलाफ कोर्ट में जाकर क्लेम करने का अधिकार भी खो देगा। ऐसी स्तथि में वो मजबूरन बाध्य होगा उसी दशा में, उसी अनुचित मजदूरी/वेतन में कार्य करने के लिये। यही है बँधुआ मजदूरी की स्तथि। लॉक डाउन के दौरान पैदा हुई स्तथि और मजदूर का भूखा पेट और परिवार उसे हर स्तथि में कार्य करने के लिए बाध्य करेंगें। मजदूरों की इस मार्मिक स्तथि का फायदा उठाकर उनका शोषण करने की व्यवस्था कर रही है खुद उत्तरप्रदेश सरकार।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश सरकार ने फैक्ट्री एक्ट को रद्द कर दिया है जो श्रमिकों की सुरक्षा और काम करने लायक उचित परिस्तथियों की गारंटी देता है। जब इस कानून के होने के बाद भी श्रमिकों को नरकीय स्तथि में काम करना पढ़ जाता है तो इस कानून के ही रद्द हो जाने पर क्या स्तथि होगी? इस कानून के कार्यान्वयन में न रहने पर सुरक्षा और कार्यानुकूल उचित परिस्तथियों की माँग भी नहीं की जा सकेगी।
समान वेतन अधिनियम 1976 को भी रद्द कर दिया गया है। जिसमें महिला एवम पुरुष श्रमिकों को बराबर वेतन की गारंटी दी गयी है। जो कानून यह सुनिश्चित करता है कि लिंग के आधार पर वेतन में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। महिलाओं को पुरुषों की अपेक्षा कम आँकना और पुरुषों के मुकाबले कम मजदूरी देना मानवीय श्रम के इतिहास में हमेशा से अस्तित्व में रहा है, अब जब इसको रोकने वाला कानून ही प्रभाव में नहीं रहेगा तो यह भेदभाव और बढ़ेगा।
इस अध्यादेश के लागू होने के बाद अब श्रमिकों के पास न तो नौकरी की सुरक्षा होगी, उन्हें कभी भी नियुक्त/बर्खाश्त किया जा सकेगा। श्रमिक न्यूमतम वेतन की माँग नहीं कर सकेगा और बँधुआ मजदूरी के लिए मजबूर होगा। श्रमिक अपनी सुरक्षा और काम करने के लिए उचित परिस्तथियों की माँग भी नहीं कर सकेगा और नरकीय परिस्तथियों में काम करने को मजबूर होगा। मजदूरी भुगतान में लैंगिक आधार पर किया जाने वाला भेदभाव और बढ़ जायेगा।
औद्योगिक वृद्धि, अर्थव्यवस्था को पुर्नजीवित करने के नाम पर मजदूरों का सरकार प्रायोजित यह अंतहीन शोषण खत्म होने की जगह बढ़ रहा है, यह शर्मनाक है।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान के छात्र हैं।)