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भोपाल, 10 नवम्बर। उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष और भारतीय दर्शन के प्रख्यात विद्वान श्री हृदयनारायण दीक्षित ने कहा कि विश्व में भारतीय दर्शन ही एकमात्र ऐसा दर्शन है, जिसमें पूर्ण विराम नहीं है। इसमें ज्ञान, अनुभव और अनुभूति की अनंत यात्रा है। इसमें विश्व के लोक मंगल करने की अभिलाषा है।

श्री दीक्षित मंगलवार को दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान द्वारा आयोजित चतुर्थ श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी स्‍मृति राष्ट्रीय व्याख्यानमाला – 2020 के अंतर्गत ‘भारतीय दर्शन की लोकाभिव्यक्ति’ विषय पर विशेष व्याख्यान दे रहे थे। इस अवसर पर श्री दीक्षित ने भारतीय दर्शन की महत्ता और उपादेयता पर विस्तार से प्रकाश डाला। श्री ठेंगड़ी जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए कहा कि उन्होंने राष्ट्र के लिए सर्वस्व जीवन न्यौछावर कर दिया। वे वैदिक ऋषियों की तरह विश्व के कल्याण के लिए सोचते थे।

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विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि भारतीय दर्शन के लोक संबंध गहरे और वे अविभाज्य हैं। भारतीय दर्शन का संपूर्ण विकास लोक के भीतर ही हुआ है। यह भारतीय दर्शन ही है, जो कहता है कि कर्म का परिणाम व्यक्तिगत नहीं होता। भारत में एकेश्वरवाद का भाव अनूठा है। भारत के समस्त दर्शन जैसे न्याय, मीमांसा, सांख्या, सभी में लोक मंगल की कामना की गई है। उनका उद्देश्य लोकमंगल ही है। अद्वैत का सिद्धांत भारतीय दर्शन की अनूठी अभिव्यक्ति है। पाश्‍चात्‍य विद्वान मैक्समूलर ने भी अपने अनुभव में ज्ञान प्राप्ति के लिए भारत की ओर ही इशारा किया है। उन्होंने कहा कि आज जिस तनाव से दुनिया गुजर रही है, उसे दूर करने का उपाय भारतीय दर्शन में ही उपलब्ध है।

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उन्होंने कहा कि भारत में दर्शन की उपस्थिति हर पल दिखाई देती है। हर व्यक्ति दार्शनिक अनुभव से प्रेरित है। भारतीय दर्शन अंग्रेजी के ‘फिलॉसफी’ का अनुवाद अवश्य लगता है, लेकिन यह इससे अलग है| फिलॉसफी का अर्थ है ‘ज्ञान से प्रेम’ हैं, लेकिन भारतीय दर्शन लोक जीवन से जुड़ा हुआ है। वह लोक जीवन में व्याप्त है। हमारी लोक संस्कृति भारतीय दर्शन से ही विकसित हुई है। विश्व में धर्म, पंथ, व्यक्तियों से उद्घोषित है, लेकिन भारतीय दर्शन भारतीय धर्म परंपराओं से हुआ उद्भूत है और इसने हमारे जीवन का मार्गदर्शन किया है। भारतीय दर्शन लोक को सींचता, खींचता और प्रतिष्ठित करता है। पाश्चात्य लोग भारतीय दर्शन के इस मर्म को नहीं समझते कि भारत की सभी दार्शनिक धाराओं में समभाव है।

लोक साहित्य संवादहीनता को तोड़ता है : डॉ. विन्दु सिंह

लोक साहित्य की प्रसिद्ध अध्येता डॉ. विद्या विन्दु सिंह ने ‘राष्ट्रीय अस्मिता और लोक-साहित्य’ विषय पर अपने उद्बोधन में कहा कि लोक संस्कृति के संरक्षण के लिए आज प्रतिरोध की आवश्यकता है। लोकगीतों ने जनता के दर्द को व्यक्त किया है। श्रीमती बिंदु सिंह ने कहा कि लोकगीत, लोक धुनें समाप्त हो रही हैं। लोक धुनों में एक तरह का लचीलापन है, उनमें माटी की सुगंध भी है। लोकगीत हमारे मेलों, यात्राओं से जुड़े हुए हैं। लोकोक्तियां, मुहावरों में वेदों उपनिषदों का सारतत्व है। उन्हें सरक्षण की आवश्यकता है। इनका न सिर्फ संरक्षण करें बल्कि जीवन व्यवहार में भी उतारें।

उन्होंने कहा कि हमें लोक संस्कृति को बचाने के लिए भाषा को सम्मान देना होगा। हमारा लोक साहित्य वैदिक ज्ञान का प्रतिबिम्ब है। वेद संस्कृति के आधार हैं| लोक साहित्य में वेदों के ज्ञान को ही सहज, सरल रूप में व्यक्त किया गया है। उन्होंने कहा कि जब रचयिता का विलय हो जाता है, तब लोकगीत बनता है। लोक संस्कृति हमारी अस्मिता की पहचान है। लोक संस्कृति, लोक साहित्य मनुष्य को हिंसा की प्रवृत्ति से रोकने का कार्य करते हैं। आज साहित्य, राजनीति और पत्रकारिता को हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को बनाए रखने के लिए प्रयास करना होगा। भाषा हमारी अस्मिता है, जिस देश को संस्कृति के प्रति गौरव बोध नहीं, उसकी पहचान खत्म हो जाती है। उन्होंने कहा कि लोक साहित्य संवादहीनता को तोड़ता है और समाज को कुरीतियों से बचाने की चिंता करता है।

दत्तोपंत ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डॉ. मुकेश कुमार मिश्रा ने प्रस्तावना में कहा कि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने विश्वकर्मा जयंती के दिन राष्ट्रीय श्रम दिवस की प्रतिष्ठा कर राष्ट्रीय अस्मिता को स्थापित किया। डॉ मुकेश ने बताया कि 11 नवम्बर को सायं 04 बजे प्रख्यात लोक गायिका पद्म श्री मालिनी अवस्थी कार्यक्रम का समापन करेंगी। सत्रों के अंत में संस्थान के सचिव श्री दीपक शर्मा ने आभार व्यक्त किया।