मिथिलेश नन्दिनी शरण

श्रीरामजन्मभूमि का निर्माण प्रारम्भ हो रहा है। पहले भूमिपूजन और अब उसके शिलान्यास की तिथि घोषित हो गयी है। माननीय प्रधानमन्त्री समेत देश के अनेक विशिष्ट महानुभावों की उपस्थिति में यह ऐतिहासिक शिलान्यास-कार्यक्रम सम्पन्न होना है।

परन्तु इन्हीं सब मङ्गल साज-समाजके बीच “चोरहि चंदिनि राति न भावा” का दृश्य उपस्थित हो गया है। कार्याकार्य के तात्त्विक विवेक से रहित शब्दमात्र प्रमाण को लेकर कुछ पण्डितम्मन्य लोग विवाद खड़ा करने में लगे हैं। तर्क ये है कि शिलान्यास का मुहूर्त्त नहीं है,और मुहूर्त्त न होने को अशुभङ्कर सिद्ध करने की होड़ लगी हुई है।

श्रीरामजन्मभूमि,जो सदियों का विकल इतिहास है। जो आकुल हिन्दू-आस्था की चिरन्तन प्यास है। जो सम्राट् विक्रमादित्य के धर्मध्वजा का प्रसार है। जो गोस्वामीतुलसीदासजी की आहत पुकार है। जो जनान्दोलन का अद्वितीय उदाहरण है। जो जटिल न्यायालयीय पेचबाजियों के बीच न्याय की प्रतिष्ठा का प्रमाण है। जो कारसेवा की अद्वितीय अवधारणा से विश्व को आन्दोलित करने वाली है। जो अयोध्या के अपराजिता होने का ज्वलन्त उदाहरण है। जो इस कठोर कलियुग में भी श्रीरामत्व का वरण है और जो असंख्य मनुष्यों का स्वप्न है उस भूमि पर श्रीराममन्दिर के शिलान्यास को मुहूर्त्त की युक्ति से अशुभ बताने वालों की बुद्धि मन्थरा हो गयी है ऐसा प्रतीत होता है।

श्रीअयोध्या समेत देश भर में अनेक सन्त-भक्त जो पद नित्य गाते हैं और सन्त-समाज में जिसे ग्रहोपचार के रूप में स्वीकार किया जाता है , गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का वह पद “जब जानकीनाथ सहाय करें तब कौन बिगार करे नर तेरो।” पत्राधारियों की आस्था का विषय नहीं। इनका वश चले तो श्रीरामजन्मभूमि की शुचिता पर ही प्रश्न खड़े कर दें। ऐसे ज्योतिषी साथ होते तो समुद्रलङ्घन के लिये छलाँग लगाते श्रीहनुमान जी को रोककर राहुकाल और चौघड़िया दिखाने लगते।

यहाँ समझने लायक बात यह भी है कि मुहूर्त्त का उपद्रव करने वाले लोगों का वास्तविक दुःख क्या है। शुभ मुहुर्त्त का न होना या फिर शिलान्यास-कार्यक्रम में उनका निमन्त्रण न होना।

यह ठीक है कि,सामान्य रूप से भवन आदि के निर्माण में देश-काल की शुद्धि का विचार किया जाता है,और होना भी चाहिये। परन्तु श्रीरामजन्मभूमि का शिलान्यास क्या साधारण प्रसङ्ग है। तोड़ी गयी प्राचीन श्रीरामजन्मभूमि से लेकर आगामी पाँच अगस्त तक विराट जन समूह के द्वारा जो प्रार्थनायें,जो बलिदान,जो माङ्गलिक अनुष्ठान किये गये और अब तक जो इतिहास बीता है उसको देखते हुये मुहूर्त्त की युक्ति के आधार पर शिलान्यास को टालने की बात करना मूर्खतापूर्ण ही नहीं असंख्य श्रीरामभक्तों की आस्था के साथ भी खिलवाड़ होगा।

अमङ्गल की आशङ्का पाप के कारण होती है। जो श्रीरामजन्मभूमि के निर्माण में अशुभता और अमङ्गल की घोषणायें कर रहे हैं उन्हें पहले अपनी कुण्डली देखननी चाहिये। प्रभु श्रीराम की ऐहिक लीला प्रायः संघर्षपूर्ण रही। जो तथाकथित पण्डित इससे श्रीराम के जीवन में धर्म और पुण्य की हानि बतायें उनपर तरस खाने के सिवा क्या किया जा सकता है, विशेषतः तब,जबकि श्रीराम स्वयं धर्मविग्रह हैं।

जिन्हें इतना भी विचार नहीं है कि सूर्य पूर्व में उदय नहीं होता अपितु जिस दिशा में सूर्योदय होता है उसे ही पूर्व कहते हैं उनके शास्त्रवाद को बालकेलि से अधिक क्या माना जा सकता है।

अनेक पोथी-पण्डितों ने प्रमाणों की दुहाई दी है और ऐसा करते हुये वे भूल गये हैं कि श्रीराम अप्रमेय हैं। फिर,शास्त्र कल्पवृक्ष हैं। वहाँ प्रत्येक को अपनी कामनानुसार कुछ न कुछ मिल जाता है। अभी कुछ ही दिन पूर्व एक विश्वस्तरीय कथावाचक ने भगवान् श्रीकृष्ण को द्वारिका में धर्मस्थापना करने में ‘टोटली फेल’ बताया था। वो भी कह रहे थे कि ऐसा शास्त्र में लिखा है। तो , मुहूर्त्त के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही प्रमाण उद्धृत किये जा सकते हैं , और लोग कर भी रहे हैं। पर सोचना ये है कि क्या यही शास्त्रों की चरितार्थता है।

प्रभु श्रीराम के वनगमन के पश्चात्,जब श्रीचक्रवर्ती जीमहाराज की अन्त्येष्टि का विधान सम्पन्न हो चुका तो श्रीवशिष्ठ जी ने श्रीभरत जी महाराज को अयोध्या के सिंहासन पर आरूढ़ होने का प्रस्ताव किया। उनकी रुचि न देखते हुये गुरुदेव वशिष्ठ ने श्रुति-स्मृति और सदाचार के प्रमाण उद्धृत किये। किन्तु श्रीभरतजी की मति अनन्य श्रीरामपरायणा है,वो शास्त्र की युक्तियों से विचलित न हुई। उन्होने सारे प्रमाणों से आगे बढ़कर श्रीराम की सन्निधि में जाने का प्रस्ताव किया। सारे प्रमाण धरे रह गये। देवता मुँह ताकते रह गये। श्रीरामविरहविधुरा समूची अयोध्या श्रीभरत जी की अनुगामिनी हुई। स्वयं गुरुदेव भी। और परिणाम ये हुआ कि देवता श्रीभरत जी का निहोरा करते हैं- ‘सब सुर काज भरत के हाथा।” ज्योतिष में बड़े प्रभावशाली देवगुरु बृहस्पति देवराज को चेतावनी देते हैं-“मनहुँ न आनिअ अमरपति रघुपति भगत अकाजु।” हम श्रीभरत जी से किसी सामान्य जन की तुलना नहीं कर रहे किन्तु हमारी निष्ठा का प्रमाण श्रीभरत जी से बढ़कर कौन हो सकता है।

आज जब श्रीअयोध्या सहित सम्पूर्ण विश्व का आस्तिक समाज श्रीरामजन्मभूमि के निर्माण की आतुर प्रतीक्षा कर रहा है तब कुछ कुचाली लोग विघ्न मना रहे हैं।

कोई मन्दिर के स्वरूप से असन्तुष्ट है,किसी को न्यास के स्वरूप पर आपत्ति है,कोई मुहूर्त्त को लेकर आन्दोलन चला रहा है। एक मानसिक रोगी तो न्यायलय तक पहुँच गया स्थगन आदेश माँगने।

एक मान्य धर्माचार्य ने मुहिम चला रखी है। शास्त्रार्थ के आयोजन का प्रस्ताव कर रहे हैं। साईं बाबा के विरुद्ध बोलकर देशभर में जूते से सत्कार पाया तब शास्त्रार्थ नहीं करवाया, शबरीमला प्रसङ्ग पर शास्त्रार्थ नहीं करवाया,चारों पीठों पर चार मान्य महापुरुषों की निर्विवाद प्रतिष्ठा पर शास्त्रार्थ नहीं करवाया, धर्मान्तरण,धर्माचार्यों की कुत्सित राजनैतिक संलिप्तता पर शास्त्रार्थ नहीं कराया,देश में अविवाहित यौन व्यापार को वैधानिक मान्यता (लिव इन रिलेशन) और समलैंगिक विवाह पर शास्त्रार्थ नहीं कराया लेकिन श्रीरामजन्मभूमि निर्माण को बाधित-विलम्बित कराने के लिये शास्त्रार्थ का प्रस्ताव कर रहे हैं।

शास्त्र दुधारी तलवार हैं,अनाड़ी के हाथ में हों तो उसी को घात पहुँचाते हैं,वही प्रस्तुत प्रसङ्ग में भी प्रत्यक्ष हो रहा है।

पेट के लिये ज्योतिष पढ़कर जो सोशल मीडिया पर दैवज्ञ बने हैं उनसे भी अनुरोध है कि वाक्यसमूह भर ही शास्त्र नहीं हैं। केवल ज्ञान की युक्तियों से ईश्वरता की अवज्ञा करने वाले नरकगामी होते हैं।

श्रीराम की प्रतिष्ठा में बाधक बनकर कपट-योजना का हिस्सा मत बनिये।

श्रीरामजन्मभूमि-निर्माण को रोकने में जो लोग लगे हैं,उन्हें समय दिलाने के लिये जो मुहूर्त्त न होने की वितण्डा प्रचारित है,उसके निहितार्थ को समझिये।

मुहूर्त्त,ज्योतिष और शास्त्रों की अपनी चरितार्थता है। उनपर प्रश्न नहीं,किन्तु उन्हें हथियार बनाकर किसी महान् संकल्प में विक्षेप उत्पन्न करना,विराट लोक आस्था की अवज्ञा कर तर्क-युक्तियों से महामंगल में अमंगल की भ्रान्ति फैलाना दोषपूर्ण है। और इसका स्वागत नहीं किया जा सकता।

मुहूर्त्त न होने से अभी शिलान्यास का अनौचित्य बताने वालों को ‘अपवित्रः पवित्रो वा’ और ‘तदेव लग्नं सुदिनं तदेव’ का अर्थानुसन्धान भी करना चाहिये।

अस्तु,अन्ततः हम सभी महानुभावों से यही निवेदन करते हैं कि अपनी चिरपोषित कुण्ठाओं से बाहर निकलिये। श्रीहनुमानजी महाराज की छलाँग लग चुकी है सुरसा और सिंहिका मत बनिये। मैनाक बनिये,धर्म और यश का प्रसाद लीजिये। श्रीरामकार्य हुये बिना विश्राम नहीं होने वाला है।

(लेख़क अयोध्या के सन्त हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)