यशवंत सिंह

मेरे प्रिय मित्र,
मैं आज फेसबुक पर जुड़े सभी अनुज, अग्रज, सहपाठी, मित्र और रिश्तेदार का ध्यान चाहूंगा!
शब्दों के बाजार में सबसे घृणित और दुःखदायी शब्द माना जाता है, जाना। जाना हिंदी की सबसे दर्दनाक क्रिया है। तब तो दुःख की सीमाएं कल्पना के बाहर होती है जब कोई अचानक से हमें छोड़ जाता है। अगर वो जिंदा रहे तो संतोष जताया भी सकता है किंतु वह मानव शक्तियों के परिधि के बाहर चले जाएं तो नितांत अभाव और खुद को असहाय महसूस होता है। सुशांत सिंह राजपूत सिनेमा जगत के वो सितारें थे जो अपने दम से कीर्तिमान स्थापित कर रहे थे। ईश्वर उनके आत्मा को शांति प्रदान करें।

जामिया की बात है। एक लड़का है, एकदम उसी की तरह जो आपके जीवन में सिर्फ इसलिए है ताकि उसको देखकर आप मुस्कुरा सके। वो इसलिए ताकि आप मोमो खाएं, इसलिए है ताकि आपके चाय के बदले पैसा वो दे। वो इसलिए भी क्योंकि उसके ना होने से आप हंसना भूल जाते है। नाम नही बताऊंगा क्योंकि नाम से लिंग, जात, धर्म और ना जाने क्या क्या सोचा जा सकता है।
जब बनारस थे तो लंका के बाजार में सुकुन मिलता था। लंका वो बाजार है जहां लफ्फजियाँ बेची जा सकती है। जामिया में लंका ना मिला क्योंकि घास के मैदान में पत्थर की कीमत बढ़ती है। जहां कंक्रीट का शहर हो, वहाँ पेड़ पौधे ही अमूल्य संसाधन है। जामिया में।मास कम्युनिकेशन विभाग में हर शाम लोग इसीलिए ताकि उनको अपने जीवन का लंका प्राप्त हो सके।
जिनको मालूम है, उन्हें यह पता है बिसलेरी की बोतल में अगर बकार्डी लाइम डाल दिया जाए तो जबतक ढक्कन ना खुले, कोई यह अंतर नही कर सकता है कि भीतर क्या है! तहतक भीतर रहस्य कैद रहता है। उसी प्रकार के बिसलेरी की बोतल लिए मित्र मंडली बैठी और दो घूंट पूरे होने पर देह और आत्मा, दोनों की प्यास बुझ गयी। सब हल्के नींद में डूबते गए। उस मुस्कुराते हुए चेहरे ने अचानक बोला कि मैं कल नस काटने की कोशिश किया! साहित्य का श्रृंगार करना हो तो यह कहा जाएगा कि तुन्द्रा भंग हो गई, निंद्रादेवी दूर भाग गई लेकिन व्यवहारिक तौर पर बोलू तो फट के फ्लावर हो गया। दो घूंट और लेते हुए उसने बताया कि वजीराम एन्ड रवि में यूपीएससी की फीस दो लाख रुपये के करीब है। दो बार वजीराम के कुल लाभ में उसका योगदान है और एकतरफ उसके घरवाले है जो यह मानने को तैयार नही है कि उनके लाल के बस में लाल स्याही नहीं है।

ऐसे बहुत से किस्से है। एक लोग हाथ काट लिए, एक लोग के चक्कर में लड़की ट्रेन के आगे अपना नसीब रोकने चली गई।
मैं यह बताना चाहता हूं कि “अवसाद” किस तरह मनुष्यों के सबसे कमजोर पहलू के रूप में विकसित हुआ है। तमाम जिजीविषा बदल गए, सामाजिक प्रजनन हुआ और संरचनाये बदल गई लेकिन आज भी मानसिक तनाव और अवसाद को देखने का चश्मा हमारे पास रूढ़िवादी ही है। हम आज भी मानते है कि कर्ज के चलते लोग अवसाद में होते है, बॉलीवुड ने यह दिखा दिया कि लड़की या लड़के द्वारा प्रेम प्रस्ताव स्वीकार ना होने पर लोग मरते है, नसे काटते है। पूंजीवाद का एक आलोचक हर्बर्ट मार्कयुसे कहता है पूंजीवाद के चलते हमारे पास सोचने की, इच्छाएं निर्मित करने की सीमाएं भी तय है। हम यह देखते है कि बारह में पास होने के बाद बच्चे बुलेट की मांग करते है, जो छोटे है वो पब्जी खेलने के लिए बढ़िया प्रोसेसर वाले फोन की मांग करते है। जो राजनीतिक रूप से उपेक्षित है, वो राजनीतिक बदलाव को लेकर चिंतित है। बाजार, व्यवहार और समाज के तरीके बदलने के साथ अवसाद सशक्त हुआ है। आज पूंजीवाद की जिद्द है कि परिवार में हर व्यक्ति कमाए और उसके वजह से परिवार जैसे संस्थान कमजोर हुए है। माँ बाप के पास बच्चों के लिए वक़्त है। बाजार के रास्ते इच्छाएं भी दिमाग में डाली गई है कि बड़े शहरों में बढ़िया जिंदगी है, वेकेशन के लिए दुबई से बढ़िया कोई स्थान नही है। इन मांगों को पूरा करने के लिए व्यक्ति जद्दोजहद कर रहा है लेकिन वो झूठी चेतना में मेहनत कर रहा है कि हर मेहनत के लिए अवसर है। यह दिमाग की कपोल कल्पना है। यह मिथ्या है। यह जग झूठ है। जब दिमाग के आदर्शलोक का पतन होता है तो दुःख में आदमी ऐसे कदम उठाता है।

“मानसिक दर्द शारीरिक दर्द की तुलना में कम नाटकीय है, लेकिन यह अधिक सामान्य है और सहन करना भी कठिन है। मानसिक पीड़ा को छुपाने की लगातार कोशिश से बोझ बढ़ता है: “मेरा दिल टूट रहा है” कहने की तुलना में “मेरा दांत दुख रहा है” कहना आसान है। – सी लुईस

आज इसीलिए भी कई लोग अवसाद में है क्योंकि उनके तमाम मेहनत के बावजूद उनके यूट्यूब चैनल पर लोग कम आ रहे है, फेसबुक पोस्ट पर लाइक कम आ रहे है। हमारे दिमाग में यह अवसाद नही, बेवकूफी का पैमाना है। जिसके साथ हो रहा है उसके लिए यह बीमारी है। वो इन्ही के चक्करों में लोगों से नफरत करना शुरू करता है। पागल हो जाता है।

आज जब कोरोना वायरस से पूरा विश्व जूझ रहा है। तमाम आर्थिक सपने टूट रहे है। तमाम लोगों के मेहनत पर पानी दिख रहा है। जिजीविषा को समाप्त के तरीके बदल रहे है। हमें यह समझना होगा कि कोरोना से बड़ा वैश्विक महामारी आने वाली है। अवसाद नामक उस बीमारी का कोई इलाज नही है। सुशांत सिंह हो या बहुत से सिने जगत के लोग हो, वो ऐसा क्यों कर रहे है? इसीलिए क्योंकि जितनी ज्यादा आय बढ़ रही है, उससे ज्यादा इच्छाएं पैदा हो रही है। अगर यह कारण नही है तो दिमाग में और व्यवहार में पूंजीवादी सोच नही है। सम्भव है कि सुशांत वहां मां के प्यार के बारे में चिंतित है, जहां पाउडर से गोरा होने पर आपको सेलिब्रिटी माना जाता है। जहां अंग्रेजी बोलना आपके समग्र विकास और ज्ञानार्जन का प्रमाणपत्र है। आप के विचार स्थापित अवधारणा से लड़ रहे हो। बहुत सी सम्भावनाएं है लेकिन कोरी आंखों से सरल व्यक्तित्व को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है।

भारत में संसाधनों की जंग है। अवसर कम और प्रतिभागी के संख्या में जमीन आसमां का अंतर है। यहां तो बीमारी इस कदर आएगा कि तबाही होगी। हो ही रही है, हम ध्यान नही देते। एक व्यक्ति मुझे सहज याद आ जाता है। टेंट का काम करता था। इतना गजब का व्यवहार की आप सम्मान दीजिये, या टुच्चई कीजिये, आपको एक प्रकार की प्रतिक्रिया प्राप्त होगी।
इस झूठे अवधारणा से हम मुक्त कैसे हो? यहां राज्य और उसके जनता, दोनों को अपना किरदार निभाना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी सबसे पहले तो यह करें कि खबर और समाचार के नाम पर जो अवसाद बेचा जा रहा है, उसे खत्म करे। जमीनी हकीकत यह है कि आज भी इस देश में मानव से मानव का संबंध बहुत बढ़िया है। मैं दलित लड़के के साथ बैठकर आये दिन खान पान करता रहता हूँ। मुसलमान दोस्त की संख्या अब दहाई और सैकड़े के बीच मेम है लेकिन जिस वक्त मैं टीवी खोलता हूँ, मैं पाता हूँ कि खबर की मुख्य पंक्ति यह है कि अमरोहा जिले में मुस्लिम ने हिन्दू को मारा। स्वर्ण ने हिन्दू को मारा। लड़ाई का कारण, प्रेम प्रसंग, पैसा, प्रॉपर्टी, कुछ भी होता है लेकिन तुंरत वो साम्प्रदायिक तनाव हो जाता है और मेरे साथ प्रत्यक्ष बीती चीज, झूठ हो जाती है। मैं ऐसा नही कह रहा हूँ कि ऐसी चीजें नही होती है लेकिन इतनी भी नही होती है, जितनी जुम्मन मिया की दोस्ती है। खबर आये दिन बॉर्डर पर युद्ध करते है। शब्द के तोप दस गुने दस के कमरे से चलाना आसान है। सुरक्षा के जो प्रथम प्रहरी है, उसके और उसके परिवार पर अनायास ही दबाव निर्माण किया जाता है। खबर प्रेम दिखाना शुरू करें। कम से कम न्याय करते हुए जितने देर नफरत चला रहे है, उतने ही देर प्रेम भी दिखाए। हमारे न्यूज चैनल के खबर से लेकर एप नोटिफिकेशन तक नफरत से भरे हुए हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर, जिसका मकसद सामाजिक होना था, वहां भी वर्गवाद चरम पर है। आज चार पुलिस को देखकर हम डर जाते है, सहम जाते है। कुछ राज्यों में हर दस व्यक्ति पर एक बंदूक है। आज कोई हादसा होता है तो न्याय फैसला सुनाए, इससे पहले मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है। याद है अशोक सिंह? रयान स्कूल का बस ड्राइवर जिसको मीडिया ने बच्चे का हत्यारा साबित कर दिया था! कोर्ट ने उसे बाद में निर्दोष पाया था। राज्य आगर चाहे तो यहां से शुरुआत कर सकती है।

व्यक्ति क्या करे? व्यक्ति पहले तो स्वार्थ त्यागे। यह भरम त्यागे कि जबतक एक सितम खुद के ऊपर नही आता है, तबतक वो कहीं और नही हो रहा होगा। हम एक खास वक़्त में एक खास जगह पर मौजूद रहे सकते है। हर जगह की कल्पना करें। मानवतावादी सोच यही से विकसित होती है। दूसरा यह कि अहंकार त्यागे। आज तमाम ऐसी फेसबुक और इंस्टाग्राम आईडी है जो स्वघोषित कट्टर हिन्दू शेर है, हिन्दू हृदय सम्राट है और पापा की परी है। असल में कही कोई ठेले पर सब्जी बेच रहा होगा और कहीं कोई गोबर पाथ रही होगी। सिर्फ इसलिए कि एक कृत्रिम रूप से बनाये समाज में आप के ज्यादा फॉलोवर और इंगेजमेंट है, आप अपने से किसी को छोटा मत आंकिये। किसी लड़के के लिए आप छात्र नेता है तो उसके पचास आते मैसेज को अपनी शेखी ना समझिए, ये कुछ काम नही आने वाला, उसको जवाब देकर प्रोत्साहित कीजिये। कोई लड़का लिखता है तो उसको उसकी कमियां बताकर पीछे मत हटिये। उसको बताइए कि वो सही कहाँ होगा। आज जब हम राष्ट्रीय दर्शन और अवधारणा की ओर लौट रहे है तो हमें यह समझना चाहिए कि इस देश के गौरवशाली इतिहास में चिंतन और मनन है। हम उस दर्शन में विश्वास रखते है कि जब पंच का भला होगा तो अपना हो ही जाएगा। एकात्म मानववाद यहाँ से शुरू होगा। जो लोग अविवाहित है और पढ़ाई कर रहे है, अपने बड़े भाई बहन या मां बाप से यह बताये कि आज मेरे साथ ऐसा हुआ, वैसा हुआ। आज के ज्यादातर समस्याओं का जड़ संचारिक अभाव है। हम बात करना बंद कर दिए है। व्यवहार में यह लाइये कि उतने घण्टे ही हम बाजार के होंगे जितने परिवार के होंगे। मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगर सुचारू रूप से बातचीत होते रहे तो घर के क्लेश खत्म होंगे, ऑनर किलिंग खत्म होंगे। आज व्यक्ति अपनी बहन से महीनों ढंग से बात नही करता है, अचानक से मालूम होता है कि बहन किसी लड़के से बात कर रही है। भाई बहन का दुश्मन हो जाता है जबकि कृत्रिम दुनिया में वह सैकड़ो लड़की से उनके अफेयर की बात करके सामाजिक बन रहा होता है। पैसा सब कुछ नही है। परिवार अंतिम सत्य है। एक ईरानी कहावत है कि यह मत भूलो की जनाजे के वक़्त कौन रहेगा और किसके बगल में ताबूत खुदेगी। यह कोशिश कीजिये कि सबकी हर बात भले न मालूम हो, सब सदस्यों के बारे में बहुत कुछ मालूम हो।

जो लोग विवाहित है, रोजगार वाले है। वो अपने बच्चे की अच्छे से परवरिश करें। उसकी हर मांग पूरी करना जरूरी नही है लेकिन उसको समझना बहुत जरूरी है। परिवार के साथ समय दें क्योंकि अंत में जब सबकुछ ठीक नही होता है तो व्यक्ति अपने ऊर्जा का स्रोत ढूंढने लगता है। कोशिश रहे कि परिवार वो ऊर्जा बने। एक जमाने में मैं सारे अपराध कर चुका हूं लेकिन आज गलती सुधारते हुए मैं हर लड़के से बात कर लेता हूँ, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मुझसे जुड़े रहे है। बोलना सीखिए। जितना बोलना सीखिए, उतना ही सुनने की क्षमता विकसित कीजिये। बीच में जब फेसबुक बंद किये थे तब भी कई लोगों से बराबर जुड़ाव बना रहा है। लोगों से बात करना शुरू कीजिए, जैसे पहले पकड़ी के नीचे होती थी। जैसे कॉलेज में होती है। कोई नही है तो आप मुझसे कहिये। मैं सुनने के लिए हूँ। मेरे भैया आशुतोष सिंह, मेरे मन को भांप लेते है। समस्याओं में घिरा मन खुलकर अपना दर्द बयां नही कर सकता है। उससे यह बार बार कहिये कि मैं सुनने के लिए मौजूद हूँ। समस्या में फंसे हर व्यक्ति को परिवार की तरह लें और उसे समझाए।
बल का केंद्र अगर लोग रहेंगे तो इंसान मेहनत से सुशांत सिंह राजपूत बन सकता है लेकिन कोशिश रहे कि उनके तरह अवसाद से मृत्यु ना हो।

(लेखक जामिया विश्वविद्यालय के छात्र हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)