मिथिलेश नन्दिनी शरण

महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में एक विलक्षण प्रसङ्ग लिखा है। इस प्रसङ्ग में श्रीराम के परधामगमन से गतश्री हुई अयोध्या कुश के पास जाकर अपने उद्धार की प्रार्थना करती है।

कालान्तरश्यामसुधेषु नक्तमितस्ततोरूढ़तृणाङ्कुरेषु।
त एव मुक्तागुणशुद्धयोऽपि हर्म्येषु मूर्च्छन्ति न चन्द्रपादाः॥

(समय के फेर से जिनके भव्य भवनों के चूने काले पड़ गये हैं और जगह-जगह घास उग गयी है ऐसे महलों में अब रात्रि में चन्द्रकिरणों की लड़ियाँ प्रकाशित नहीं होतीं।)

बलिक्रियावर्जितसैकतानि स्नानीयसंसर्गमनाप्नुवन्ति।
उपान्तवानीरगृहाणि दृष्टवा शून्यानि दूये सरयूजलानि

(स्नानार्थियों के समागम से शून्य हुये घाटों और स्नानोपरान्त होने वाले दानादि कर्म के अभाव में उदास पड़ी खाली झपोड़ियों को देखकर मैं दुखी हूँ। )
–सोलहवाँ सर्ग , श्लोक संख्या 20-21

सौभाग्य ये कि तब महाराज कुश अपनी राजधानी कुशावती वेदज्ञ विप्रों को सौंपकर अयोध्या की श्री-समृद्धि के लिये यहाँ आ गये थे।

समय की अव्याहत गति में बहुत कुछ बह-बदल गया , किन्तु अयोध्या बनी रही , यह अपराजिता जो ठहरी। काल के प्रबल थपेड़ों के चिह्न लेकर भी ये विद्यमान रही,लुप्त न हुई।

कालक्रम से भग्न हुई इस अष्टचक्रा नवद्वारा देवताओं की पुरी को कभी महाराज युधिष्ठिर ने बसाया,तो कभी महाराज विक्रमादित्य ने इसका उद्धार किया।

परन्तु वाह रे कालगति! आज हम किससे ये अपेक्षा कर सकते हैं। आज अयोध्या किसके आगे जाकर रो सकती है।

बौद्धों के द्वारा विरूपित , यवन-म्लेच्छों के आघात से क्षत-विक्षत इस पुरी को हमारे पूर्वजों ने अपने शास्त्र और शस्त्र दोनों की सेवायें प्रदान कीं। किन्तु उन सबने यहाँ अपनी मूर्तियाँ लगाने के बजाय श्रीराम की अयोध्या को प्रकाश में लाने का काम किया। वेद-लोक वन्दिता अयोध्या को उद्भासित किया। पर उनके अभागे वंशज श्रीराम की इसी पुरी को मकबरे और अफीमकोठी का कलंक देने वालों की धरोहर मानने लगे।

वेद-पुराण-आगम और परम्पराप्राप्त कथाओं तथा विश्वासों ने इस पुरी को आध्यात्मिक पहचान के साथ वैकुण्ठ होने का गौरव-बोध भी दिया। परन्तु,बीते कई दशकों में इस गौरव-बोध को जैसे ग्रहण लग गया है। श्रीरामजन्मभूमि विवाद के राजनैतिक परिप्रेक्ष्यों के कारण अयोध्या इतिहास-भूगोल से अधिक संविधान का मुद्दा होती गयी है। जन्मभूमि परिसर को विवादित परिसर कहने की सांस्कृतिक परिपाटी सी स्वीकृत हो गयी।

मन्दिरों,घाटों और कुण्डों के अभिधान बड़ी खामोशी से रेड जोन,येलो जोन और बूथ नम्बर की भेंट चढ़ गये। सिविल पुलिस, पीएससी,सीआरपी और आरएएफ जैसी जाने कितनी पहचानों में अयोध्या का पीताम्बर,श्वेताम्बर या दिगम्बर खोता चला गया। बेल्ट-बूट और बन्दूकों ने सुरक्षा की जो छाया अयोध्या को दी उससे इसकी मुस्कान छीन ली। हर दिन निर्धारित होते नये सिक्योरिटी माड्यूल और बन्द होते रास्तों ने हमें अपनी जानी-पहचानी अयोध्या से बेगाना बना दिया। हर दिन किसी न किसी चेक पॉइन्ट पर खुद को प्रमाणित करने के सवाल ने हमें अपने बारे में ही सन्देहशील बना दिया।

कनक भवन,हनुमान गढ़ी या अपने अन्य दैनिक दर्शन की यात्राओं में पहुँचना अब अपनी उपासना तक ही न रहा ये पुलिस की परमिशन का भी मामला हो गया है। तीन दशक तक अयोध्या में रहकर आज किसी को ये बताने में स्वयं को सहज नहीं पाता कि कनक भवन के लिये किधर से जा सकते हैं। अपनी सुपरिचित शैली में आपसे कहीं भी पूछा जा सकता है कि “आपके माथे पर लिखा है क्या कि आप आतंकवादी नहीं हैं।” और आप ये भी नहीं पूछ सकते कि भाई! माथे पर लिखने का काम भी अब ब्रह्मा से जिला प्रशासन ने ले लिया है क्या।

भला हो उन दयालु महानुभावों का जिनको फोन करके अथवा जिनसे फोन कराके अयोध्या में इधर से उधर चलना हो पाता है।

दिन-ब-दिन दुनिया अधिक जागरूक हो रही है , लोग अपने मौलिक अधिकारों-अपनी सुविधाओं के बारे में सजग हो रहे हैं पर अयोध्या एक निरस्त नागरिकता की भूमि बनती जा रही है। और सबसे बड़ी बात तो ये कि यहाँ के लोग इस बात से विचलित भी नहीं हैं। एक बैरियर पर डाँट खाकर दूसरे से आ जाते हैं और खुश रहते हैं कि हमें बहुत रास्ते पता हैं। अधिग्रहण के व्याघ्रमुख में गये महत्त्वपूर्ण मठ-मन्दिरों को छोड़ भी दें तो असंख्य ऐसे स्थान हैं जिनका रास्ता अधिगृहीत है। वशिष्ठकुण्ड , गोकुलभवन , त्रिदण्डिदेव संस्कृतमहाविद्यालय , कोसलेश सदन , वेदमन्दिर , रंगवाटिका तथा श्रीरामकृष्ण मन्दिर समेत चौबुर्जी जैसे प्रसिद्ध स्थानों तक के मार्ग पास से ही अनुमन्य हैं। और इनमें प्रायः मन्दिर नित्ययात्रा के नहीं हैं आने वाले यात्री पास ले-लेकर आयेंगे ऐसा सम्भव नहीं है। भजन और वैराग्य की इस विश्वविश्रुता पुरी में समान्य रहनी के लिये भी पुलिस अधिकारियों के नम्बर रखना या उनकी पहचान में होना नियति सी बन गयी है। और ऐसा न होने पर आपके अयोध्यावासी होने का गौरव कभी भी किसी भी चेक पॉइण्ट पर चूर हो सकता है।

मानता हूँ कि हर समाज और शासन-व्यवस्था में निषिद्ध-क्षेत्र हो सकते हैं , होते ही हैं , उनकी स्वाभाविकता को लेकर कोई आपत्ति भी नहीं। पर वे निषेध किसी जगह की वहाँ के मूल अधिवासियों की पहचान ही विलोपित कर दें , निषेध उस जगह की इतिहास-भूगोल से प्राप्त संस्कृति का ही अपहरण कर लें यह दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। मैं नहीं जानता की महर्षि वाल्मीकि के ‘मुदित जनपद कोसल’ की राजधानी और गोस्वामी तुलसीदास की ‘सदैव सुहावनी पुरी’ अयोध्या धारा 144 के अभिशाप से कब मुक्त हो पायेगी। मुझे यह भी अनुमान नहीं कि ये व्यवास्थायें लागू करने वाले कभी इस तरह सोचते भी हैं या नहीं , पर मैं ये जरूर निवेदन करना चाहूँगा कि मछली , मुर्गी , मधुमक्खी और सूअर-बकरीपालन का अनुसन्धान करने वाली सत्तायें यदि थोड़ा संस्कृति-सभ्यताओं के पालन-संरक्षण को लेकर भी गम्भीर हो जायें तो हो सकता है कि अयोध्या की खोयी हुई मुस्कान फिर से वापस आ जाये। रम्या अयोध्या पुरी पुनः बस सके , यही तो महर्षि वाल्मीकि ने श्रीमद्रामायण की फलश्रुति में भी कहा है।

शासन-प्रशासन के प्रति कोई आक्षेप न करते हुये , कुछ स्वाभाविक चिन्ताओं को लेकर पूरी विनम्रता से कुछ प्रश्न रखना चाहता हूँ-

  • क्या अयोध्या केवल एक जिला भर है या उससे बढ़कर कोई पहचान है इसकी।
  • दशकों से चल रहे सुरक्षाजाल के बावजूद स्थानीय प्रशासन ने अबतक क्या स्थनीय साधु-सन्त-नागरिकों के दैनिक आवागमन और जीवन-चर्या के सौविध्य को लेकर कोई रूपरेखा बनायी है।
  • अयोध्या के अनेक पौराणिक स्थानों और पारम्परिक मार्गों को लगातार बन्द रखने में क्या अयोध्या की स्वाभाविकता का नाश आपको नहीं दीखता है।
  • क्या नगरीय विकास और आध्यात्मिक-सांस्कृतिक केन्द्रों के विकास में कोई सैद्धन्तिक भेद है या नहीं।
  • क्या बजट देकर ही पुरातत्त्विक और मूल्यकेन्द्रित निधियों के संरक्षण का काम पूरा हो सकता है।

यह पीड़ा पुरानी है किन्तु लॉक डाउन के दिनों में धुआँधार बिक रही शराब और खुल रहे बाजार के बावजूद कनकभवन के मुख्यद्वार में लगे ताले और सरयूतट से इक्का-दुक्का स्नानार्थियों को गालियों और लाठियों से भगाये जाने के दृश्य असह्य लगे तो ये सब कहना पडा़।

जब व्यवस्था विधायक निकाय शराब को सदाचार की तुलना में प्राथमिक मानने लगें,जब अध्यात्म अवसर का मोहताज हो जाये और धार्मिक मूल्य सत्ताओं के सौविध्य से निर्धारित होने लगें तो सिवाय सर धुनने के बचता भी क्या है।

भीष्म साहनी ने अपने उपन्यास ‘तमस’ में एक जगह कहा है कि —मानवीय मूल्यों का कोई महत्त्व नहीं होता वास्तव में महत्त्व शासकीय मूल्यों का होता है।

तो क्या हम अबतक ‘तमस’ में ही जी रहे हैं !

हालाँकि , इसे सम्बद्ध लोग सुनेंगे या फिर जो सुनेंगे वे सोचेंगे इसकी बहुत आशा नहीं रखता , तो भी ‘कह तो सकते हैं कहकर ही कुछ जी हल्का कर लेते हैं।’

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज ने एक विशिष्ट सन्दर्भ में कहा था कि “अञ्जन कहा आँखि जो फूटै..” उस अञ्जन का क्या अर्थ जो आँख का रोग दूर करने की जगह आँख ही फोड़ दे। विनय पत्रिका की प्रसिद्ध पंक्ति है। परन्तु आज ये उक्ति कई सन्दर्भों में उल्लेखनीय हो गयी है। सुरक्षा-व्यवस्था का जो ढाँचा अयोध्या को मिला है , वह एक पुराने ढाँचे के टूट जाने पर भी अयोध्या का ग्रहण बना हुआ है।

(यह लेख फेसबुक पेज ‘इदमित्थम्’ से लिया गया है।)