स्रोत : गूगल

पंकज गौतम

“बेकार आदमी कुछ किया कर,कपडे उधेड़ कर सिया कर!”

मज़े की बात ये है कि हमें न कपडे उधेड़ना आता है न बुनना। Quarantine में इतना तो समझ आ गया है कि संन्यासी होने से कहीं ज़्यादा कठिन है गृहस्थ होना। जब से हमें घर में रहने की हिदायत दी गयी है, तभी से दिमाग में था कि अपने विचार कहीं लिख लूँ। क्योंकि खाली बैठे दिमाग में विचार उसी तरह आ रहे हैं जैसे मैक्स पर सूर्यवंशम आती है।

जिस दिन भारत में पहला केस मिला, उस दिन से ही जब भी ख़ासी या छींक आती तो दिमाग में बस यही आता कि “गए बेटा! बस हे राम बोलने का समय आ गया है।” फिर twitter पर पढ़ा –

“हर चमकती हुई चीज़ सोना नहीं होती, हर छींक कोरोना नहीं होती!”

हंसी में उड़ा दिया मैंने,हम सबने। पर मन में कहीं न कहीं एक डर है। वो डर ये नहीं है कि ख़ुद को कोरोना हो जाये, बल्कि ये कि कहीं हम ये रोग किसी सगे सम्बन्धी को न लगा दें। क्या मस्त चीज़ है यार ये वायरस। आँखों से दिखता नहीं है। पर आँखों से दिखने वाली किसी भी चीज़ से ज़्यादा ख़तरनाक है। और हम समझते रहे कि हमारा सबसे बड़ा दुश्मन पाक़िस्तान है। LOL…

काश कोई जल्दी ही इस वायरस पर सर्जिकल स्ट्राइक करे। क्योंकि अभी हमारा जोश बड़ा LOW हो चुका है।

घर रहकर सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि मेरे जैसे नौसिखिये Netflix देखकर काम चला लेंगे। पर पापा लोग घर बैठने के आदि नहीं। जो इंसान नौकरी में छुट्टी भी तब लेता हो जब घर पर कोई काम हो, तो वो खाली कैसे बैठे। फिर जावड़ेकर जी ने बेहतरीन उपाय निकाला। रामायण, महाभारत और कई पुराने धारावाहिक टीवी पर फिर से प्रसारित करने का निर्णय लिया गया। ऐसा लगा जैसे माँ बाप की गर्मी की छुट्टियां पड़ गयी हो। Binge watch करना क्या होता है, कोई सीखे इनसे!

जब दुखों का पहाड़ सिर पर फूटे, तो भी कुछ न कुछ करके इंसान ख़ुशी का रास्ता ढूंढ ही लेता है।

हर रोज़ कोरोना के केस बढ़ रहे हैं। कोई किसी देश को दोष दे रहा है, कोई किसी धर्म को। लोग मर रहे हैं। हम लड़ रहे हैं। सूनामी की लहर जैसे दूर से दिखाई पड़ रही है। हम तट पर खड़े इस बात पर झगड़ रहे हैं कि पहले कौन डूबेगा।

भई सैलाब में सब मरेंगे,त्रिवेदी भी!

क्या मरने से पहले हमें शालीन नहीं हो जाना चाहिए? इरफ़ान दुनिया को अलविदा कह गए। आखिरी बार किसी गैऱ के मरने पर इतना दुःख तब हुआ था जब कलाम साहब दुनिया छोड़ कर गए थे। 2020 पहले ही हमसे काफ़ी कुछ छीन चुका है। जो लोग अब तक मरे वो अपने ही थे। पर इरफ़ान को अपनी आँखों से हँसते हुए देखा था। इसलिए उनके जाने पर रोना लाज़मी है।

हम सबसे साफ़दिल तब होते हैं जब हम पैदा होते हैं। क्योंकि तब न किसी से बैर, न किसी से जलन। खाओ पियो और Potty कर दो। अगर कोरोना से ज़िंदा बचे, तो ये एक नए जीवन की शुरुआत होगी। जैसे एक नया जन्म। तो एक नवजात इंसान की तरह पेश आने के लिए हमें अपनी नफ़रत और ईर्ष्या छोड़नी होगी। नहीं छोड़ोगे, तो कोई फायदा नहीं कोरोना से बच के। आज नहीं तो कल, कोरोना नहीं तो कोई और रोना होगा जिसकी वजह से मरेंगे सब।

जब बाहर रहते थे, तो जीवन की आपाधापी में दो पल सुकून के ढूंढते थे। अब जब वो पल हैं, तो सब ठीक कर लो जो भी खराब था। पंखे साफ़ कर लो, और मन भी। रोशनदान से जाले उतार दो, और आँखों से पर्दा भी। पुरानी किताबों से मिट्टी हटा दो, और रिश्तों पर जमी धुल से भी। कुछ वक़्त एक दूसरे के साथ बैठो और पुराने दिनों को याद करो।

बहुत छोटा हूँ मैं, पर जानता हूँ कि आपस में बात करते रहेंगे तो ये वक़्त कट जाएगा। और एक दूसरे से कट के रहेंगे तो उदासी और उदासीनता से जीवन ऐसे भर जाएगा जैसे Lays के पैकेट में हवा भरी होती है।

घर से दफ़्तर का काम करने के बाद शाम को कुछ वक़्त छत पर खड़े होकर आसमान को देखता हूँ मैं। कितनी सही चीज़ है ये आसमान! आपका भी है और मेरा भी। कभी लगता है कि जिस पल मैं आसमान को देख रहा हूँ, उस वक्त कोई और भी उसी आसमान को देख रहा है। कहीं पढ़ा था कि जो सितारे हम अभी देख रहे हैं, वो उस जगह कई प्रकाश वर्ष पहले थे। बल्कि कुछ तो कब के ख़त्म हो चुके हैं पर उनकी रौशनी अब जाकर हम तक पहुंची है तो वो हमें अब भी दिख रहे हैं। शायद जब हम नहीं रहेंगे तब भी आज से कई वर्षों बाद हम किसी को चमकते हुए दिखेंगे।

सही लिखा था शैलेन्द्र ने –

“कल खेल में हम हो न हो, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा।”

(लेखक साफ्टवेयर इंजीनियर हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)

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