प्रतीकात्मक तस्वीर

संतोष सारस्वत

नारी शब्द कानों में पड़ते ही आंखों में एक चित्र उभर आता है भारतीय परिधान में लिपटी करुणा ,त्याग ,दया और ममता की मूर्ति ..हम नारी में एक मां ,एक पत्नी, एक बेटी और एक देवी का रूप देखते हैं। लेकिन नारी की यह परिभाषा तो पौराणिक है,साहित्यिक है। वर्तमान यथास्थिति से इसका कोई लेना-देना नहीं है। आज का उपभोक्तावादी समाज नारी को भी उपभोग की एक वस्तु मानता है। एक अकेली नारी परिवार में अपनी अनेक भूमिकाएं निभाती है। वह मां के रूप में हर जरूरतें पूरी करती है।

पत्नी के रूप में गृहस्थी को संभालती है और एक पुत्री के रूप में दिए गए आदेशों का पालन करती है। इन सभी कार्यों के बीच उसकी अपनी जिंदगी कहीं खो जाती है। वह सभी की खुशियां समेट दें, अपनी खुशियों को ही कहीं अंधेरी गलियों में छोड़ आती है। परिवार में सभी को खुश रखना जैसे उसकी तमन्ना बन जाती है और वह उसी को पाने में जी जान एक कर देती है। सुबह से लेकर रात तक सभी कार्य परिवार में खुशियां लाने के लिए होते हैं। वह परिवार की धुरी होती है। लेकिन उसके कार्यों को वो महत्व नहीं मिलता जो मिलना चाहिए। वह तो जैसे परोपकार की प्रतिमूर्ति बनकर रह जाती है। जीवन में जो भी ख़ुशी मिले उसे वह परिवार पर निछावर कर देती है। और बदले में उसे क्या मिलता है? तनाव ,घुटन ,एकांत ,और इन सब को चीरता एक सन्नाटा। वह कभी उपकार नहीं मांगती वह तो सिर्फ सम्मान और समता मांगती है।प्रतिष्ठा से जीना चाहती है। तो क्या उसके उपकारों के बदले उसे यह सब नहीं मिलना चाहिए ? हम उससे थोपे आदर्शों पर चलने और उस उसी में खाक हो जाने को प्रेरित करते हैं की नारी होती करुणा और त्याग की मूरत है। उसका जीवन ममता दया और बलिदान के लिए ही बना है। यह थोड़ी दलीलें सिर्फ नारी के लिए ही क्यों है? पुरुष क्यों नहीं त्याग करता,अपने अहम का ,अपने अभिमान का,और झूठे घमंड का। क्यों नहीं वह करुणा और ममता बन कर बच्चों की संपूर्ण जिम्मेदारी लेता। यह सब एक औरत को ही करना पड़ता है और नारी की महानता तो देखो वह इसे अपना कर्तव्य समझकर बड़ी प्रसन्नता से और उत्साह पूर्वक पूर्ण करती है। इसमें उसके मुंह से आह तक नहीं निकलती बल्कि वह उन्हीं तकलीफों में भी खुशियां ढूंढ लेती है। वह तो पीड़ा में भी बच्चों की किलकारी की कल्पना से आनंद अनुभूति करती है। उसका तो जैसे सारा जीवन ही दूसरों के लिए बना है और परिवार के सपने पूरे करने के लिए जैसे वह धरती आसमान एक कर देती है लेकिन क्या कभी किसी ने उसके सपनों के बारे में सोचा है ? कि उसके भी कुछ ख्वाब होंगे,उसके भी कोई सपने होंगे। जिन्हें उसने बचपन में देखे थे‌। और फिर परिवार के आगे सपनों से समझौता कर लिया तो क्या हमारा फर्ज नहीं बनता कि उसके ख्वाबों को नए पंख लगा दे। उसे भी अपने सपने हकीकत में बदलने में मदद करें। एक औरत पूरे परिवार के सपने साकार कर देना चाहती है। तो क्या पूरा परिवार मिलकर उसी औरत का एक छोटा सा ,सपना साकार नहीं कर सकता। हर औरत चाहती है कि वह स्वावलंबी बने। वह अपनी पहचान चाहती है,वह अपना अस्तित्व और वजूद चाहती है। यह कार्य इतना कठिन भी नहीं है कि किया न जा सके। जरूरत है सिर्फ महसूस करने की,कि हम अपने परिवार की धुरी को कितना महत्व देते हैं। उसकी भावनाओं की कितनी कद्र करते हैं ? यद्यपि आज शिक्षित परिवारों में लड़कियों को पढ़ा कर उन्हें सपने पूरे करने की आजादी दी जा रही है। लेकिन यह आधी आबादी का मात्र 5 से 10% है। आज भी हमारे परिवारों की बहू, माताएं सिर्फ चौकी चूल्हे तक खुद को खपा रही है। जबकि यदि वह चाहे और परिवार मदद करें तो अपनी पहचान बना सकती है। पहचान सिर्फ पढ़ाई से ही नहीं बन सकती। बल्कि और भी बहुत से तरीके हैं खुद को साबित करने की क्योंकि भगवान हर इंसान को किसी खास गुण से नवाजता है। हमारे घर की औरतें बहुत से कार्य में अपने हुनर को दिखाती है। जैसे कोई मेहंदी तो कोई सिलाई कोई कढ़ाई तो कोई बुनाई और कुछ औरतें तो समाज सेवा का कार्य भी बहुत अच्छी तरह से कर सकती है। लेकिन उनकी कला को हम घर के कोने तक सीमित रखते हैं। और उस कला को सिर्फ घर सजाने या अपनी खुशियां समेटने तक उपयोग में लाते हैं जबकि वही कला घर की दहलीज पार करके दुनिया के सामने लाया जाए। तो सभी जान जाए कि घर में ही दुनिया बसाने वाली ,घरेलू औरतें भी अपनी कला से प्रभावित कर ही सकती है, साथ ही साथ परिवार की खुशियों को आर्थिक रूप से भी संभाल रही है ,कई गुना बढ़ा भी देगीऔर इन सबसे बढ़कर एक बात और है कि परिवार की मदद से आगे बढ़ने वाले नारी शिक्षा की मोहताज नहीं होगी। क्योंकि 40 पार की औरतें जो निरक्षर है और अब तक पढ़ नहीं सकती। वह भी अपनी हस्त कला से दुनिया में नई पहचान बनाएगी तो क्या हम अपने परिवार को उसकी गरिमा में नारी की खुशियों में चार चांद लगा कर उसे उड़ने के लिए खुला आकाश और थोड़े से पंख नहीं दे सकते .सोचेगा जरूर………

संतोष सारस्वत

(लेखिका ग्राम विकास अधिकारी हैं और यह उनके निजी विचार है)