प्रतीकात्मक तस्वीर (getty images)

शिवम सिंह

‘भारतीय इतिहास में इस्लाम का आगमन एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना थी। शुरू शुरू में ऐसा लगा कि उसकी मूल भावनाओं का मेल नहीं बैठगा। पर धीरे धीरे भारतीय मनीषा ने उसके साथ समझौता किया। दोनों धर्म के मूल तत्वों को खोज निकाला गया और मध्यकाल के संतों ने दोनों के भीतर सेतु निर्माण का कार्य किया।’ आज स्थिति इससे कहीं भिन्न है। समय के प्रवाह में वह सेतु टूटकर कहीं बह गया है। वह युग समाप्त हो चुका है। युग का समाप्त होना,नए के आगमन का सूचक होता है। लेकिन किसे पता था,जिस सेतु का निर्माण मध्यकालीन सन्तों की समन्यव साधना का परिणाम था। उसको इतने निर्मम तरीके से तोड़ दिया जाएगा। वह भी किसलिए,बस अपने निहीत हित के लिए,घर जोड़ने की माया के लिए या खुद के बौने स्वार्थ के लिए।
‘इतिहास अपने पास कुछ शेष नहीं रखता। ‘सभ्यता के उषःकाल से लेकर आधुनिक काल के आरंभ तक हमारे देश में विभिन मानव समूह की धारा निरन्तर चली आ रही हैं।’ इसमें सभ्य,असभ्य, और बर्बर श्रेणी के मनुष्य आये।’ शक ,हूण ,मंगोल,किन्नर,गन्धर्व आदि सभी आए। इस देश पर कितने आक्रमण हुए और वह आक्रमण महज राजनैतिक नहीं थे। सांस्कृतिक ,धार्मिक और आर्थिक भी थे। हम फिर भी अविचल रहे। इतने आघातों-प्रत्याघातों को सहन करने के बाद भी हम अविकल अविचल खड़े रहे। क्योंकि हमारी शक्ति ऐसी ही विषम परिस्थितियों में प्रकट होती है और इसी शक्ति की परिणति भारतीय परंपरा और उसकी संस्कृति है। जिसे किसी एक व्यक्ति ने नहीं बनाया। यह समय की आंच से तपकर निकला सोने जैसा खरा है।
कितनी ही जातियों का आगमन इस भारतभूमि पर हुआ। प्रत्येक की आचार- विचार पद्धति एक दूसरे से भिन्न रही। समय ने इन सभी के अंतर्विरोधों को समाप्त कर दिया। इसके लिए अनेक संघर्ष अवश्य हुए ,जिसमें आर्य और द्रविड़ का संघर्ष महत्वपूर्ण रहा ,अन्य का भी रहा। परन्तु लुटरे और आततायीयों का एक झुंड भारत पर आक्रमण करता है,जो खुद को मुसलमान कहता । जिसने भारतीय जनमानस की नींव हिला दी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने निबन्ध,’भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या’ में लिखते हैं-मुसलमानों के आने से पहले इस देश में नाना विश्वासों और आचार-विचारों के भेद से नाना प्रकार के धर्म-मत प्रचलित थे। परंतु जीवन के प्रति उनकी दृष्टि में विशेष प्रकार की एकरूपता थी। इस एकरूपता के कारण ही नाना मतों के मानने-वाले, नाना स्तरों पर खड़ें हुए,नाना मर्यादाओं में बंधे हुए अनेक जनवर्ग एक सामान्य नाम से पुकारे जाने लगे । यह नाम था’ हिन्दू’। हिन्दू अर्थात् भारतीय।’ भारतीय परम्परा उस समुद्र के समान है जिसमें अनेक नदियों का जल है ।इसलिए इसे कविंद्र रवींद्र ने ‘महामानव समुद्र’ कहा। अनेक परम्परा और संस्कृति के सम्मिलन के उपरांत ही भारतीय जनमानस की दृष्टि का विकास हुआ। यह अनेक होकर एकत्व होने की भावना ही भारतीय दृष्टि का मानदण्ड है।
भारतीय वाङ्गमय को समझना जितना कठिन है ,उतना सरस भी है। भारतीय कला दृष्टि की यात्रा लोकमानस की यात्रा है। निरा पोथियों का ज्ञान कला को समझने का साधन हो सकता है साध्य नहीं। भारतीय जनमानस की दृष्टि का विकास अनेक अंतर्विरोधों का विकास है और अंतर्विरोधों से उपजा साहित्य समन्यव का आपार धैर्य धारण किये रखता है लेकिन समझौते का नहीं।
हम ऊपर बता आये हैं इस देश में अनेक जातियाँ का आगमन हुआ। कुछ विद्वानों का मानना है कि आर्य भारत के बाहर से आये थे,यह विवाद का विषय है। इस देश में आर्य आये या आर्येतर जितनी प्रजातियां का आगमन होता रहा। सब इस भारत भूमि की संस्कृति का हिस्सा बनते गए। ऐसा नहीं है कि यहाँ के मूल निवासियों ने ही उन्हें प्रभावित किया
अनेक आचार या विचार पद्धतियाँ हमने भी ग्रहण की। समय छोटे छोटे रन्ध्रों को भर देता है। आज सभी के सभी एक धागे में पिरोये गए हैं। जिन्हें पृथक करना मुश्किल है।
भारत में मुसलमानों के आगमन की घटना आकस्मिक तो थी ही। उससे कहीं अधिक चौकाने वाली बात उनकी मजहबी कट्टरता और गजवा-ए-हिन्द का स्वप्न। मजहबी कट्टरता ,दूसरे धर्म के प्रति विद्वेष,सभी को काफिर कहना ,इस धर्म का मूल चरित्र रहा है और वर्तमान स्थिति इससे भिन्न नहीं है। इसे कुछ वामपंथी मित्र या अपने को लिबरल कहने वाले झुठलाए। लेकिन समय समय पर इनका वह चरित्र सामने आ ही जाता है। आज सदियां बीत गयी ,मध्यकाल से आधुनिक काल में आ गए। फिर भी तुम अपने मूल चरित्र का त्याग न कर सके। जिनके आश्रय में रहे म,उन्हीं से घात किया। किसी का विरोध या किसी का मारना एकमात्र मार्ग नहीं है। अपने और दूसरे के बीच अभेद को स्थापित करना ही एकमात्र मार्ग है। वही एक मात्र उपाय भी।
इस महामानव समुद्र में कितनी नदियों का पानी मिलकर एक हो गया। सबने अपने हिस्से का कुछ दिया और दूसरे हिस्से का कुछ लिया। परस्पर विरोधी विचारों की टकराहट के बावुजूद हमने शांति का मार्ग निकाला। मध्यकाल में इसका प्रयास हमारे महान कवियों ने किया है इसकी चर्चा हो चुकी है। अब जिसके मानस का आधार ही दूसरे का अहित करना हो,उससे उम्मीद लगना भी व्यर्थ है।
हम सभी को एक षडयंत्र की और ध्यान देना होगा। जो हमारे विरुद्ध हो रहे हैं। मानवता ,धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता जैसे शब्दों को लेकर। सर्वेश तिवारी ‘श्रीमुख जी का एक व्यक्तव्य है – ‘सहिष्णुता और मानवता हमसे आरंभ होकर हमीं पर क्यों समाप्त हो जाती है।’मानवता क्या बस हमारे लिए है। धर्मनिरपेक्षता क्या बस हमारे लिए है जिसका सही सही अर्थ कोई नहीं बता पाया। क्या काषाय वस्त्र धारण करने से हम कम्युनल हो जाते हैं। आप टोपी पहन और लुंगी पहन लें तो सही है। आप गजवा-ए-हिन्द की बात करें तो विमर्श कर रहे हैं और उस बखत हिन्दू खतरे में नहीं आता और हम हिन्दू राष्ट्र की बात कर दे ,मुसलमान खतरे में आ जाता है,इस्लाम खतरे में आ जाता है और कुछ वामपंथी के हिसाब से देश में फांसीवाद आ जाता है।
हम सभी को एक राष्ट्र की आवश्यकता है न कि किसी गजवा-ए-हिन्द की या किसी हिन्दू राष्ट्र की। एक अखण्ड भारत जिसका स्वप्न हम सभी देखते हैं । इसका एक उपाय है,’शांति’। ‘शांति कोई प्रस्ताव नहीं है।’ जिसपर वाद-विमर्श हो। वह युग की आवश्यकता है। शान्ति लोकमन का सामगान है।
यह निर्णय आपका है कि आपका पक्ष कौन सा है । एक राष्ट्र के लिए अब किसी मध्यममार्ग की आवश्यकता नहीं है। मध्यमार्ग ने इस देश को दो भागों में विभक्त किया।
अब और एक पाकिस्तान की आवश्यकता नहीं है।

शिवम सिंह

(लेखक, काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र हैं)