राहुल कुमार दोषी

भगत सिंह बोल गए हैं- “इश्क लिखना भी चाहूँ तो इंकलाब लिख जाता हूँ, इस कदर वाकिफ है मेरी कलम मेरे जज्बातों से।” भगत सिंह को कौन नहीं जानता! भारत के क्रांतिकारियों में सबसे विशिष्ट थे भगत सिंह। कुव्यवस्था से टकराने की जो क्षमता भगत सिंह में थी, वैसी क्षमता विरला ही किसी और में आजकल है। महज 23 वर्ष की आयु में ही देश के लिए शहीद हो गया था भगत सिंह।

लाहौर में साण्डर्स की हत्या का जिक्र हो या दिल्ली की सेण्ट्रल असेम्बली में बम-विस्फोट करके ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह को बुलन्दी प्रदान करने का, भगत सिंह क्रांतिकारी नज़र आता है। और जब यह पता चलता है कि असेम्बली में बम फेंककर भागने से मना कर दिया, तब भगत सिंह का असली रूप सामने आता है। कथनी और करनी एक हो, यही तो है योद्धा की पहचान। भगत सिंह का सिद्धांत/दर्शन और वास्तविक जीवन के प्रयोग दोनों एक समान है।

भगत सिंह का मानना था- “जो भी व्यक्ति विकास के लिए खड़ा है, उसे हर एक रुढ़िवादी चीज की आलोचना करनी होगी, उसमें अविश्वास करना होगा, तथा उसे चुनौती देनी होगी।” इस प्रकार के क्रांतिकारी विचारों के लिए भगत सिंह को इधर-उधर भटकने के अलावा जी भरके अध्ययन करना पड़ा। दरअसल असली युवा दिमाग देश-दुनिया-समाज और किताबों से सीखता है। भगत सिंह खुद को तराशने के लिए किताबों में डूबा रहता था। इतिहासकारों का मानना है कि भगत सिंह के पास हमेशा कोई ना कोई किताब रहती ही थी।

लाल लाजपत राय का पुस्तकालय द्वारकादास लाइब्रेरी मानो भगत सिंह का घर ही बन गया था। किताबों से घोर लगाव था उन्हें। पढ़ना, लिखना और चिंतन करना उन्हें खूब भाता था। एक अल्पायु बहादुर/क्रांतिकारी दिलोदिमाग में देश-समाज के लिए तीव्र चिंता और मौलिक चिंतन के लिए गहरी आस्था का होना अचंभित तो करता ही है। भगत सिंह जेल के जिस भी कोठरी में रहता था- उसे वह पुस्तकालय में बदल देता था।

दरअसल जब आप स्वतंत्र होकर सोचते हैं तब आप अपने अंदर की काबिलियत का सदुपयोग कर पाते हैं। स्वच्छंदता में स्वाभाविकता निवास करती है। स्वाभाविक होना यानी शुद्ध सोना होना। भगत सिंह का व्यक्तित्व और उनका विचार शुद्ध सोना ही तो है। अशुद्ध व्यवस्था में शुद्ध लोग बर्दाश्त नहीं किए जाते हैं। इसलिए भगत सिंह और उनके साथी बर्दाश्त नहीं किए गए।

समझौतावादी होना यानी अन्तरात्मा की आवाज़ को कुचल देना,भगत सिंह रत्तीभर भी समझौता नहीं किया। देशहित में जितनी कोशिशें 23 वर्ष का एक नौजवान करता है वह भारतीय नौजवानों के लिए मिसाल ही तो है।

अन्तरात्मा की आवाज़ को बचाए रखने के लिए गांधीवादी राष्ट्रवाद को छोड़कर क्रांतिकारी रास्ता अपनाया, सेंट्रल असेम्बली में बम फेंकर भागने से मना कर दिया और हँसते-हँसते फाँसी के फंदे को चूम लिया। लाहौर उच्च न्यायालय में अपने मुकदमे की सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने दहाड़ते हुए कहा
“क्रांति की तलवार विचारों की सान पर ही पैनी होती है।”

भगत सिंह कहते हैं- “तूफानों तथा आंधियों में अपने पांव पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है।” यहाँ बच्चों का खेल से तात्पर्य ईश्वर की सांत्वना और आश्रय से है। भगत सिंह नास्तिक था। कटु सच को स्वीकारना, तर्क-वितर्क करना, विश्लेषण करना, तथ्यात्मक जानकारियों से परहेज ना करना, विज्ञान को मानना और सच्चा ज्ञान का उच्च स्तर ही नास्तिकता है। भगत सिंह ने कहा भी- ” भगवान से मनुष्य को गहरी सांत्वना और आश्रय मिल सकता है। किंतु अपनी स्वयं की आंतरिक शक्ति पर निर्भर रहना आसान काम नहीं है।”

तर्कसंगत जीवन जीने को लेकर भगत सिंह में जबरदस्त उत्साह था। इसलिए उन्होंने ” मैं नास्तिक क्यों हूँ!” नामक लेख भी लिखा। अंधविश्वास, रूढ़िवादी मान्यताओं और फर्जी विश्लेषण को लेकर भगत सिंह में थोड़ी भी आस्था नहीं थी। इसलिए उन्होंने लिखा- “मनुष्य अपने जीवन को भी नियंत्रित नहीं रख सका और ना ही अपनी कमियों को दूर कर सका। तब ईश्वर एक लाभदायक मिथक बन गया। यह मिथक प्राचीन युग में समाज के लिए लाभदायक था।” भगत सिंह धर्म को मनुष्य द्वारा अपने प्राकृतिक वातावरण, सामाजिक गतिविधियों और सामाजिक संगठनों को पूर्णतः ना समझने की अयोग्यता का परिणाम मानता था। विचार करें तो तार्किक रूप से यह सच भी है।

भगत सिंह का मानना था- “किसी ने सच ही कहा है, सुधार बूढ़े आदमी नहीं कर सकते। वे तो बहुत ही बुद्धिमान और समझदार होते हैं। सुधार तो होते हैं युवकों के परिश्रम, साहस, बलिदान और निष्ठा से, जिनको भयभीत होना आता ही नहीं और जो विचार कम और अनुभव अधिक करते हैं।” है ना मौलिक चिंतन?

भगत सिंह का आखिरी चिट्ठी पढ़िए और सोचिए- आखिर क्यों भगत सिंह जैसा कोई और नहीं! –

कॉमरेड्स,
जाहिर-सी बात है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना भी नहीं चाहता। आज एक शर्त पर जिंदा रह सकता हूँ। अब मैं कैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता। मेरा नाम हिन्दुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है। क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊँचा उठा दिया है। इतना ऊँचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊँचा मैं हरगिज नहीं हो सकता।

आज मेरी कमजोरियाँ जनता के सामने नहीं हैं। यदि मैं फाँसी से बच गया तो वे जाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धम पड़ जाएगा। हो सकता है मिट ही जाए। लेकिन दिलेराना ढंग से हँसते-हँसते मेरे फाँसी चढ़ने की सूरत में हिन्दुस्तानी माताएं अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की आरजू किया करेंगी और देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद या तमाम शैतानी शक्तियों के बूते की बात नहीं रहेगी।

हां, एक विचार आज भी मेरे मन में आता है कि देश और मानवता के लिए जो कुछ करने की हसरतें मेरे दिल में थीं, उनका 1000वां भाग भी पूरा नहीं कर सका अगर स्वतंत्र, जिंदा रह सकता तब शायद उन्हें पूरा करने का अवसर मिलता और मैं अपनी हसरतें पूरी कर सकता। इसके अलावा मेरे मन में कभी कोई लालच फाँसी से बचे रहने का नहीं आया। मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा, आजकल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है। मुझे अब पूरी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है, कामना है कि ये और जल्दी आ जाए।
तुम्हारा कॉमरेड,
भगत सिंह।

भगत सिंह धर्म और अंधविश्वास के खिलाफ थे। उनके तमाम विचार तर्कसंगत जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं। इतिहासकार बिपिन चन्द्र ‘भारत का स्वतंत्रता संघर्ष’ में लिखते हैं- “भगत सिंह धर्म और अंधविश्वास की जकड़न से जनता को मुक्त करने पर बहुत ज़ोर देते थे।”

लब्बोलुआब यह है कि भगत सिंह कम उम्र में ही ऐसी-ऐसी वैचारिक लकीरें खींच गए हैं जो तथाकथित देशभक्तों/बुद्धिजीवियों को भी बौद्धिक रूप से लहूलुहान करते रहते हैं। भगत सिंह के विचारों को पचाना बहुत मुश्किल होता है। 23 वर्षीय नौजवान से आधुनिक नौजवान, तथाकथित देशभक्त और बुजुर्ग भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। भगत सिंह, उनके विचारों और उनकी तर्कसंगत ज़िन्दगी को सलाम।

(यह लेखक के निजी विचार है।)