प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी,
आशा है कि सब कुशल मंगल होगा। दो बार खुद से लॉकडाउन लगाने के बाद तीसरी बार आप सरकारी दस्तावेजों से लॉकडाउन लगाए तो मैं समझा कि आपको अब हमसे कोई रिश्ता नही रखना है। मैं भी बढ़िया हूँ। मैं भी महानगर से ही लौटा हूँ लेकिन पैदल आने की नौबत नही पड़ी, नाही मुझे पैरों में चप्पल के बदले पानी का बोतल लगाने की आवश्यकता हुई। पैर भी इतने स्वस्थ है कि सरकारी व्यवस्था के सैकड़ो चक्कर लगा सकता हूँ। मेरे पास पहनने के लिए जूता था, जूता जरूरी है क्योंकि जूते पैर भी पहन रहे है और मुंह भी। खैर, कोरोना संकट के लिए यह पत्र नही लिखा हूँ।
कल शिक्षा मंत्री डॉ निशंक जी भारत के विश्वविद्यालयों को रैंक बांट रहे थे। यह बहुत ही अच्छा तरीका है विभिन्न प्रकार के समस्याओं को शांत करने के लिए। 2015 से 2018 तक मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र रहा हूँ जिसको तीसरा स्थान प्राप्त हुआ है और अभी मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पढ़ाई कर रहा हूँ जिसे दसवां स्थान प्राप्त हुआ है। प्रधानमंत्री जी मैं जानता हूँ कि बहुत से लोग बहुत ज्यादा खुश है। आसाढ़ में पैदा सियार, माघ के बरसात को बोलता है कि ऐसा बाढ़ तो हम कभी देखे ही नही है। गांव का रमेशवा आपको पैर छूकर प्रणाम बोल रहा है। उसको आपसे दो समस्याएं है। पहला यह कि कमला पसंद बाजार में क्यों नही आ रहा है? लॉकडाउन में भी बहार खाना पड़ रहा था और अभी भी खाना पड़ रहा है। दूसरी समस्या उसको यह है कि देश के सबसे बड़ी संख्या को शिक्षा देने वाला, हर विषय पर लोगों को ज्ञान देने वाला विश्वविद्यालय सूची में क्यों नही है। जबकि राजनीति के ही लोग उस विश्वविद्यालय को चला रहे हैं? बस इसीलिए क्योंकि आधारभूत सुविधाओं के बगैर व्हाट्सएप विश्वविद्यालय चल रहा है, आपने उसे सूची से निकाल दिया?
क्या इस विश्वविद्यालय के प्रति यही सम्मान है? रमेशवा के कपार पर ठोढ़ी मारते हुए सुरेशवा कह रहा है की ‘अरे ये पकौड़े का सम्मान है’!
सुरेशवा पूछ रहा है कि अगर इतना ही टॉप का विश्वविद्यालय है तो कोरोना संकट में टॉप के एक भी विश्वविद्यालय से कुछ चमत्कार क्यों नही हुआ है? वैक्सीन छोड़िये, उसको रोकने तक का इलाज नही मिल पा रहा है। सवाल बड़ा है इसलिए सुरेशवा डर के कह रहा है। बड़ा इसलिए है क्योंकि जल जंगल जमीन की बात करना तो बीते दौर की बात हो चुकी है। अब उसपर बात करना निरर्थक भी है और सरकारी तंत्र में इस बात को गांधी, नेहरू, अंबेडकर, शास्त्री समेत फेंक दिया गया है। देश का एक सामान्य जनमानस होने के नाते मैं दो बिंदुओं पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं। मैं व्यवस्था से क्लांत एक छात्र के रूप में भी आपसे प्रश्न करना चाहता हूं।
मुझे समझ नहीं आता है कि विश्वविद्यालय के स्तर पर रैंकिंग क्यों होती है। क्या ऐसा नही होना चाहिए कि विभागीय स्तर पर रैंकिंग प्रणाली विकसित हो? मैं ऐसा क्यों कहा रहा हूँ क्योंकि हमें यह तो मालूम है जेएनयू श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है किंतु यह अभी भी नही मालूम है कि बायो टेक्नोलॉजी में देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थान कौन से है। अगर ऐसा मालूम होता तो जैसे दुनिया भर के संस्थानों की ओर कोरोना संकट के इलाज हेतु देखा जा रहा है, वैसा ही हम उस संस्थान की ओर देखते। मैं जानता हूँ कि यह एक बढ़िया तरीका है जिससे हर विश्वविद्यालय में कचरे के रूप में पड़े कई विभागों की साख को बचा लिया जाता है। बात करते है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की, इस विश्वविद्यालय की साख अगर बची हुई है तो विज्ञान संकाय और संस्थान द्वारा। अन्य विभागों की भी भूमिका अनुकरण योग्य है लेकिन बहुत से ऐसे विभाग है, जिनमें घास फूस ही पैदा हो रहा है। आज के समय में खबर की जानकारी मीम से हो रही है और गानों की जानकारी टिक टॉक से हो रही है, उसी प्रकार तीसरे रैंकिंग की खबर भी फेसबुकिया उत्सव से प्राप्त हुई। बधाई के संदेश प्रेषित करने वाले अधिकतर बुढ़ पुरनिया नवका जवान कला और सामाजिक विज्ञान संकाय के है। वो इस कदर खुश है जैसे उन्होंने देश को ना जाने कितनी नीतियां दे दी हो। वो खुश है जैसे उन्होंने दुनिया के प्रसिद्ध मैगजीन में अनेकों लेख लिख दिए है। आज इपीडब्लू में मुझे विरले ही इस विश्वविद्यालय का लेख मिलता है। मैं ऐसा नही कह रहा हूँ कि कला संकाय से सब चीजें निरर्थक ही हो रही है, मैं यह कह रहा हूँ कि जैसी भीड़ है, उस अनुपात में अच्छी चीजों की संख्या कम है।
केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढ़ने के नाम पर बहुत से लोग अपनी शेखी बघारते है। हकीकत यह है कि मानविकी विभागों में पढ़ने के बाद नौकरी के अवसर नाम मात्र है। भीड़ युही सनसनी फैला देती है। मैं इतने लोगों के प्रोफाइल में बीएचयू देख चुका हूँ कि मुझे अब लगने लगा है कि बीएचयू की अन्य शाखा भी है, जो किसी रहरिया इंटर कॉलेज के पीछे चल रही है।
जामिया और बीएचयू, दोनों जगह प्रकार्यवादी लोगों की संख्या है। दोनों जगह व्यवस्था को अंतिम सत्य माना जाता है। एक ही तरीके से दुनिया को देखा जाता है। सब अल्टर्न ढर्रे पर कोई बात ही नही कर रहा है।
इस कोरोना संकट के दौरान अगर विश्वविद्यालय चाहते तो छात्र एक बड़ी भूमिका निभा सकते थे। बहुत से छात्रों ने वह भूमिका निभाई भी है। क्या प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पश्चिमी देशों के छात्र जिम्मेदारी नही निभाये थे? वो जरूरत पड़ने पर कैम्ब्रिज को अस्पताल बना दिये थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन के समय खुद मालवीय जी ने छात्रों को गांधी जी के साथ जाने को कहा था। हम जानते है कि सरकारी व्यवस्थाओं पर निर्भर होकर देश नही चल सकता है। इतनी बड़ी आबादी वाले देश में संसाधन प्रबंधन बहुत मुश्किल है और उनकी मात्रा भी सीमित है। आप के इन्ही टॉप विश्वविद्यालयों की जिम्मेदारी पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। मेरे विषय में कुल पांच पेपर पढ़ने होते है और उसमें एक पेपर का नाम है ‘भारतीय समाज’। हमें फलाना ढिमकाना चिलाना दार्शनिकों की दृष्टि से पढ़ाया जाता है कि भारतीय समाज ऐसा है वैसा है, ऐसे काम करता है। जब लॉकडाउन लगा तो यही प्रोफेसर हमारी जूम क्लास लेने लगे और इससे भी मन नही माना तो पांच पांच असाइनमेंट लिखवाने लगे। हम पढ़ने वाले छात्र जानते है कि असाइनमेंट लिखना कितना समय खपाऊ कार्य है लेकिन इस सबके बावजूद 10 जून तक हमें सारे असाइनमेंट पूरे करने थे और यह सब करने में कमर की नस ढीली हो गई। कल को मैं शायद यहां से बढ़िया अंक लेकर बाहर निकल जाऊं लेकिन बदले में मैंने सीखा क्या? क्या मानविकी का छात्र यह सोच पाया कि आज से 20 साल बाद जब ऐसी आपदा आएगी और हम बड़े जिम्मेदारियों पर होंगे तो कैसे निपटेंगे? क्या हमें मजदूरों, गरीबों, किसानों की समस्या का तनिक भी अंदाजा है? क्या हम यह समझ सके कि आधारभूत सुविधाओं में कहां कहां कमी है? नही। शायद इसलिए भी हमें इस तरह बनाया गया है कि हम न्याय के असल मायने को ना समझ सके। आज समाज में राजनीतिक और सामाजिक न्याय की मांग उठ रही है। भविष्य में जब आर्थिक न्याय की मांग उठेगी तो क्या होगा? आर्थिक न्याय जागरूकता पैदा करती है और जागरूकता से सरकारें डरती है। इस कष्ट को समझा जा सकता है।
प्रधानमंत्री महोदय, मुझे समस्या रैंकिंग से नहीं है। मुझे समस्या झूठी चेतना से है। हम रैंकिंग के नाम पर बहुत सी चीजें छिपा ले जाते है। हर विश्वविद्यालय में विज्ञान के नाम पर सिद्धांतों की फेहरिस्त पकड़ा दी जाती है। ना ढंग के उपकरण है और नाही ढंग के लैब है। हर जगह सामाजिक विज्ञान के नाम पर क्लर्क तैयार किया जा रहा है। आमदिनों में हम यह उम्मीद करते है कि संस्थाए सामने से आकर अधिकार मांगेगी किन्तु इस प्रकार के रैंकिंग से हम युही अनायास खुश होकर झूठे प्रतिस्पर्धा में लग जाते है। आज रैंकिंग पाने वाली अधिकतर संस्थाए 50 वर्ष पुरानी है या आजादी के पहले की है। हमनें कितने नए विश्वविद्यालय बना दिये? हमारी शिक्षा पद्धति आउटपुट पर निर्भर है जबकि इसे आउटकम पर निर्भर होना था। क्रिटिविटी की नाम पर हम घण्टा बजा रहे है। आज विश्व में सबसे ज्यादा इंजीनियर देने वाले देश की रैंकिंग इनोवेशन इंडेक्स में 60 के आसपास है। मतलब हमनें बीते पचासों वर्षों में कुछ भी नया नहीं ढूंढा है। विज्ञान पर गर्व करने वाले देश में आजादी बाद एक नोबल पुरस्कार नहीं मिला है। इतने हकीकतों के सामने यह रैंकिंग क्या नंगा नही हो जाता है। क्या हो गया कि बीएचयू तीसरे पर है। मेरे हृदय में वो पहले से ही सर्वश्रेष्ठ है। हकीकत में भोजपुरी बोलने वाले विश्वविद्यालय में भोजपुरी का व्याकरण नही लिखा जा सका है। अल्पसंख्यक वर्ग के लिए बने संस्थानों में सिर्फ अशरफ समुदाय की बात होती है। डफाली और जुलहा मुसलमानों के लिए कौन सोच रहा है? आप खुद भी जब मुसलमानों के बीच जाते है तो वो शिया और बोहरा मुसलमान होते है। हकीकत यह है कि विश्वविद्यालय के नाम पर जातीवाद,वंशवाद का बोलबाला है। लाल फीताशाही के आगे हर कोई झुका हुआ है। नियुक्तियों में दोष है। शिक्षा प्रणाली में दोष है।
आप से सविनय निवेदन है कि आप सोनम वांगचुक जैसे लोगों को बड़े संस्थाओ की जिम्मेदारियां दीजिये। कोई जरूरत नही है चीन से लड़ने की, शांति सबको प्रिय है। पैसे बचाकर जेनएयू और बीएचयू जैसे 50 संस्थान खोलिये। रैंकिंग की कोई जरूरत नहीं है। हम सबको हकीकत मालूम है।
जबतक ऐसा नही होता, तबतक बाहर के बने एलईडी पर प्रचार मुबारक!
थका हुआ आम नागरिक
यशवंत सिंह
(लेखक जामिया विश्वविद्यालय के छात्र हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं।)