राहुल मिश्रा
किसी भी देश की आर्थिक प्रगति के लिये उद्योगों का विकास होना आवश्यक है विशेषकर विनिर्माण क्षेत्र में, जो अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक श्रमिक गहन करता है। यदि श्रम कानूनों में बाज़ार और श्रमिकों के ज़रुरी हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है तो ऐसे उद्योगों का सीमित विकास ही हो पाता है। यदि कानून अधिक श्रमिकोन्मुख होते हैं तो जहाँ एक ओर उद्योगों के कार्यकरण एवं उत्पादन के प्रभावित होने की संभावना बढ़ जाती है वहीं दूसरी ओर यदि श्रम कानूनों को निजी क्षेत्र को ध्यान में रखकर बनाया जाता है तो श्रमिकों का शोषण होने की संभावना बनी रहती है। इसी विचार को आधार बनाकर प्रायः श्रम कानूनों का निर्माण किया जाता है।
हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार ने कोरोनोवायरस (COVID-19) महामारी के मद्देनज़र राज्य की औद्योगिक गतिविधियों को पुनः पटरी पर लाने के एक उपाय के रूप में आगामी तीन वर्षों के लिये सभी व्यवसायों और उद्योगों को श्रम कानूनों से छूट देने वाले अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी है। राज्य सरकार द्वारा इस संदर्भ में जारी अधिसूचना के अनुसार, सरकार द्वारा लागू किये गए अध्यादेश के माध्यम से सभी प्रतिष्ठानों, कारखानों और व्यवसायों पर लागू होने वाले श्रम कानूनों से उन्हें छूट प्रदान की गई है। हालाँकि इस अवधि में भी राज्य में भवन तथा अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम, 1996,कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923, बंधुआ मज़दूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम 1976, और मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा 5 लागू होंगे। मज़दूरी भुगतान अधिनियम, 1936 की धारा 5 में मज़दूरी प्राप्त करने के अधिकार का उल्लेख किया गया है। राज्य सरकार के अध्यादेश के अनुसार, तीन वर्षीय अवधि में अन्य सभी श्रम कानून निष्प्रभावी हो जाएंगे, जिसमें औद्योगिक विवादों को निपटाने, व्यावसायिक सुरक्षा, श्रमिकों के स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति, ट्रेड यूनियन, अनुबंध श्रमिकों और प्रवासी मज़दूरों से संबंधित कानून शामिल हैं। यह अध्यादेश राज्य में मौजूदा व्यवसायों तथा उद्योगों और राज्य में स्थापित होने वाले नए कारखानों दोनों पर लागू होगा।
क्यों जरूरत पड़ी इस अध्यादेश की
इस अध्यादेश का प्रमुख उद्देश्य व्यवसायों और उद्योगों को कुछ लचीलापन प्रदान करना है, ताकि उद्योगों और व्यवसायों में कार्य करने वाले श्रमिकों के रोज़गार की रक्षा की जा सके और COVID-19 महामारी के कारण राज्य में वापस आ रहे लोगों को रोज़गार प्रदान किया जा सके। उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कई प्रवासी श्रमिक केरल, दिल्ली, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों से वापस लौट रहे हैं और इन्हें रोज़गार उपलब्ध कराना राज्य सरकारों के समक्ष एक बड़ी चुनौती बन गया है। राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के पश्चात् सभी व्यावसायिक गतिविधियों के पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से बंद होने के कारण राज्य सरकारों के राजस्व में भारी कमी देखी जा रही है,जिसके कारण राज्य की अर्थव्यवस्था को भारी झटका लगा है और इससे उबरने के लिये राज्य को काफी अधिक समय की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त राजस्व में कमी के कारण सरकार के पास स्वास्थ्य सुविधाओं पर अधिक-से-अधिक खर्च करने हेतु भी संसाधन की कमी है। इस संबंध में सरकार द्वारा जारी आधिकारिक सूचना के अनुसार, राज्य में नए निवेश को प्रोत्साहित करने और नए औद्योगिक बुनियादी ढाँचे की स्थापना करने तथा मौजूदा उद्योगों और कारखानों को लाभ पहुँचाने के लिये यह आवश्यक है कि उन्हें राज्य में मौजूदा श्रम कानूनों से अस्थायी छूट प्रदान की जाए।
भारतीय संविधान और श्रम कानून
भारतीय संविधान ने देश के श्रम कानूनों में बदलाव और उनके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। भारतीय संविधान के भाग III को श्रमिक कानूनों के लिये काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) में नागरिकों के मौलिक अधिकारों को समाहित किया गया है, जिसमें कानून के समक्ष समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कारखानों में बच्चों के रोज़गार पर प्रतिबंध जैसे विषय शामिल हैं।
भारतीय संविधान का भाग IV, जिसे ‘राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व’ के रूप में भी जाना जाता है, का उद्देश्य अपने नागरिकों के कल्याण की दिशा में कार्य करना है। उल्लेखनीय है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को कानून के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है, किंतु यह भारत में श्रम कानूनों को बेहतर बनाने के लिये विधायिका को एक दिशा-निर्देश प्रदान करता है।
श्रम भारतीय संविधान के तहत एक समवर्ती सूची का विषय है, इसलिये राज्य अपने स्वयं के कानूनों को लागू तो कर सकते हैं, किंतु उन्हें केंद्र सरकार की मंज़ूरी की आवश्यकता होती है।
क्या कहना है आलोचकों का
आलोचकों का मत है कि उत्तर प्रदेश सरकार का यह निर्णय काफी चौंकाने वाला है और इससे राज्य श्रम कानूनों के मामले में तकरीबन 100 वर्ष पीछे चला जाएगा। उत्तर प्रदेश सरकार का यह अध्यादेश राज्य में श्रमिकों के लिये गुलाम जैसी परिस्थितियों को जन्म देगा, जो कि स्पष्ट रूप से श्रमिकों के मानवाधिकार का उल्लंघन है। राज्य सरकार का यह अध्यादेश राज्य में कारखानों और उद्योगों मालिकों को आवश्यक सुरक्षा तथा स्वास्थ्य मापदंडों का पालन न करने के लिये प्रेरित करेगा, जिससे श्रमिकों के लिये कार्य की स्थिति और अधिक बद्दतर हो जाएगी। उत्तर प्रदेश के विभिन्न ट्रेड यूनियनों ने राज्य सरकार के इस निर्णय को ‘श्रमिक वर्ग पर गुलामी की स्थिति लागू करने के लिये एक क्रूर कदम’ करार दिया है। ट्रेड यूनियनों के अनुसार, इसके पश्चात् अन्य राज्य सरकारें भी अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का तर्क देते हुए राज्य में विकास और अधिक निवेश आकर्षित करने के नाम पर उत्तर प्रदेश सरकार का अनुसरण करेंगी, जिससे देश भर में श्रमिकों के लिये कार्य की स्थिति काफी बद्दतर हो जाएगी।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने 44 श्रमिक नियमों को 4 संहिताओं से प्रतिस्थापित करने की पेशकश की।
ये चार संहिताएँ हैं: वेतन संहिता, औद्योगिक संबंध संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता तथा पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य व कार्य शर्त संहिता।
इस संबंध में ऐसे बहुत से प्रश्न है जिनके जवाब अभी तक नहीं मिल पाए हैं, उदाहरण के तौर पर क्या ये संहिताएँ श्रमिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करती हैं? क्या ये श्रमिकों के गरिमापूर्ण जीवन स्तर को बनाए रख सकती है?
यहाँ यह निर्देशित करने की ज़रुरत है कि वास्तविक श्रमिक नियमों को दशकों के संघर्ष के बाद बनाया गया था ताकि श्रमिकों की गरिमा को सुनिश्चित किया जा सके। ऐसे में ये नए बदलाव कितने सार्थक और प्रभावी साबित होंगे यह विचारणीय है।
संहिताओं के साथ समस्याएँ
ये संहिताएँ श्रमिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा और उनके गरिमापूर्ण जीवन स्तर की विरोधी हैं। वास्तविक श्रम कानून को दशकों के संघर्ष के बाद बनाया गया था ताकि श्रम करने वाले लोगों की गरिमा सुनिश्चित की जा सके। श्रम मंत्रालय ने न्यूनतम वेतन स्तर 178 रुपए करने का प्रस्ताव रखा है जो कि किसी प्रस्तावित मानदंड या अनुमान की विधि से विहीन है। यह पूँजी और निवेश को भी आकर्षित करने हेतु राज्यों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा को बढावा दे सकता है। इसे ‘भुखमरी वेतन’ कहा जा रहा है, जबकि मंत्रालय की स्वयं की समिति ने न्यूनतम वेतन 375 रुपए करने का सुझाव दिया था। श्रमबल का 95 प्रतिशत हिस्सा जो कि असंगठित है, इन संहिताओं द्वारा उपेक्षित है जबकि इन्हें कानूनी सुरक्षा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। इनमें यह सुनिश्चित नहीं किया गया है कि एक नियोक्ता, कर्मचारी या उद्यम से संबंधित निर्णयों हेतु प्रावधान कौन करेगा? न्यूनतम वेतन अधिनियम प्रावधान करता है कि प्रशिक्षुओं को कर्मचारी नहीं माना जाएगा। संहिता में ‘15 वर्ष से कम उम्र कर्मचारी’ के बारे में एक प्रावधान है जिसका तात्पर्य बाल श्रम को वैध करने से संबंधित हो सकता है। अर्थात् स्पष्टता का अभाव है। वेतन संहिता श्रम के संविदात्मक रूप को खत्म करने की जगह उसे वैध और प्रोत्साहित करती है। वेतन संहिता ने ‘वसूली योग्य अग्रिम राशि’ के प्रावधान को पुनः शामिल किया है जो कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित बलपूर्वक और बंधुआ मज़दूरी से जुडा हुआ है। अतः अग्रिम भुगतान द्वारा पीड़ित एवं संवेदनशील प्रवासी श्रमिक कार्य से बंध जाएंगे। संहिता में 8 घंटे के कार्यदिवस को समाप्त कर दिया गया है तथा ओवरटाइम बढ़ाने से संबंधित कई प्रावधान जोड़े गए है। यह नियोक्ताओं को बोनस भुगतान में टाल मटोल का अवसर भी प्रदान करता है।
सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ और कार्यस्थलों में कामकाज की बेहतर स्थितियाँ श्रमिकों के कल्याण के साथ ही देश के आर्थिक विकास के लिये भी पहली शर्त होती है। देश का स्वस्थ कार्यबल अधिक उत्पादक होगा और कार्यस्थलों में सुरक्षा के बेहतर इंतजाम होने से दुर्घटनाओं में कमी आएगी जो कर्मचारियों के साथ ही नियोक्ताओं के लिये भी फायदेमंद रहेगा। हालाँकि यहाँ इस बात पर भी गौर किये जाने की आवश्यकता है कि अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण से श्रमिक अधिकारों में वृद्धि उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। लेकिन आर्थिक विश्लेषक यह भी मानते हैं कि यदि श्रमिक अधिकार एवं उनकी समस्याओं को एक उचित मंच प्रदान नहीं किया जाएगा तो धीरे-धीरे यह नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करेगा। इसके अतिरिक्त किसी भी लोकतांत्रिक देश में प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होता है, कुछ विशेष मामलों को छोड़कर औद्योगिक संस्थान भी इसके दायरे में आते हैं। इसी विचार के आधार पर श्रमिक संगठनों एवं हड़ताल को वैधानिक मान्यता दी जाती रही है।
श्रम न केवल उत्पादन में, बल्कि अन्य सभी आर्थिक गतिविधियों में भी एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। डेविड रिकार्डो और कार्ल मार्क्स जैसे क्लासिक अर्थशास्त्रियों ने उत्पादन के मुख्य स्रोत के रूप में श्रम को प्रमुख स्थान दिया। इस प्रकार श्रमिक किसी भी देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। अतः श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना राज्य और केंद्र सरकार का प्रमुख दायित्त्व बन जाता है। यदि श्रम कानूनों में बाज़ार और श्रमिकों के ज़रुरी हितों का ध्यान नहीं रखा जाता है तो ऐसे में उद्योगों का विकास काफी सीमित हो जाता है। अतः आवश्यक है कि मौजूदा परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए सरकार ऐसे उपाय करे, जिनसे अधिक-से-अधिक विकास किया जा सके और श्रमिकों के अधिकारों का हनन भी न हो।