प्रद्युम्न शर्मा।
“हम सभी साथ हैं”– वर्ल्ड हैल्थ ओर्गनाइज़ेशन (डबल्यूएचओ), ये संस्था भले ही आज कई तरह के सवालों के कटघरे में खड़ी हो लेकिन इसका यह कथन एकदम सत्य है कि वैश्विक महामारी के खिलाफ़ इस जंग में दुनिया का कोई भी देश अकेला नहीं है। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज यह वायरस दुनिया के करीब 210 देशों में फैल चुका है, साथ ही संक्रमित लोगों की संख्या 31 लाख के भी पार जा चुकी है।
आज हालात यह हैं कि इस महामारी से विश्व भर में लगभग 2 लाख 30 हज़ार लोगों की मौत हो चुकी है। आप विश्व कि किसी भी महाशक्ति अथवा विशाल अर्थ-व्यवस्था का नाम सोचिये, आप आज उसे कोरोना के सामने विचलित एवं लड़खड़ाता हुआ पाएंगे, फिर चाहे वो चीन हो, फ़्रांस हो, रुस हो या फिर अमेरिका ही क्यों न हो। तो अब सवाल यह उठता है कि क्या इतना सारा धन, आधुनिक तकनीक से युक्त अथाह सैन्य बल, अन्तरिक्ष में अधिक सेटेलाइट्स, अत्यधिक मात्रा में जन-संहार करने वाले हथियारों का होना, परमाणु ऊर्जा संयंत्र आदि “विकास के मापदंड” क्या केवल दिखाने मात्र हैं? या अगर ये सभी मिल कर किसी देश को एक विकसित एवं वैश्विक महाशक्ति बना भी सकते हैं तो ऐसी विकासशीलता का क्या मतलब जब ऐसी परीक्षा की घड़ी में ही आपका “विकास” काम ही न आए। आप विश्व गुरु की भूमिका ही न निभा पाएँ, विश्व के सामने उदाहरण पेश करना तो दूर आप खुद के नागरिकों की सहायता करने में ही असमर्थ महसूस करें।
मैंने हाल ही में कहीं पढ़ा था की “भविष्य में जब यह दौर याद किया जाएगा, तब यह जरूर लिखा जाएगा कि वर्ष 2020 में विश्व की हर एक परमाणु-शक्ति ने वेंटिलेटर की भारी कमी महसूस की”। इसका अर्थ है कि केवल भयंकर हथियार जमा कर लेना और खुद को प्रकृति से महान मान लेना ही सब कुछ नहीं है। जिन देशों से लड़ने कि क्षमता बड़ी से बड़ी सेनाओं में नहीं थी, वे आज एक अति-सूक्ष्म विषाणु से पराजित होते नज़र आ रहे हैं। दरअसल देखा जाए तो, गलती हम लोगों की ही है, हमने आज से पहले कभी प्रकृति को सराहा नहीं बस अपनी आवश्यकता अनुसार उसका दोहन किया है। रक्षा, स्वस्थ्य एवं शिक्षा में से हमेशा रक्षा को सर्वाधिक महत्व दिया है और ना जाने ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं। जो देश अपने वार्षिक बजट का एक भारी हिस्सा रक्षा के क्षेत्र में खर्चते हैं, वह अपनी सीमा तो सुरक्षित कर सकते हैं किन्तु आज जो ये समयस्या हम सब के सामने आ खड़ी हुई है, वह न तो किसी राष्ट्र को और ना ही किसी प्रांतीय सीमा को मानती है। तो ये सोचना ठीक नहीं होगा की इस जंग को कोई भी देश या प्रांत अकेले जीत सकता है, इसीलिए यह समय आरोपों और प्रत्यारोपों का नहीं है, न ही चुनावी मुद्दे खोजने का बल्कि यह वक्त साथ मिलकर इस महामारी को हराने का है।
क्या यह महामारी उन सभी को आईना दिखा रही है जो विकास की इस अंधी दौड़ में बेहद तेज़ रफ्तार में भाग रहे थे? ऐसे ही कई सवाल आज मेरे मन में उठ खड़े हुए हैं, यकीनन आप सभी लोग भी काफी सारी बातों पर सोचने के लिए मज़बूर हुए होंगे।
ये लेखक के निजी विचार हैं।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के एम.ए पॉलिटिकल साइंस के छात्र हैं)