प्रतीकात्मक तस्वीर

राहुल कुमार दोषी

कितने मजदूरों को पता होगा कि आज मजदूर दिवस है? कितने मजदूर अपने अधिकारों से अवगत होंगे? कितने मजदूर कानून के मुताबिक न्यूनतम मजदूरी पाते होंगे? क्या रोटी-कपड़ा और मकान नसीब होते हैं मजदूर को? लॉकडाउन में मजदूर क्यों नहीं एयरलिफ़्ट किया गया? क्यों इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया गया? मजदूर दिवस पर ऐसे कई सवाल हैं जो हमारी व्यवस्था को नागवार गुजरेगी।

प्रकृति हो या सिस्टम सबसे ज्यादा मजदूरों और किसानों को ही प्रताड़ित किया करती है। अभी हाल ही में लॉकडाउन के कारण मजदूरों को हजारों किलोमीटर दूर अपने आशियाने की ओर पैदल जाना पड़ा था। अनेकों मजदूर तो रास्ते में ही दम तोड़ दिए। जो घर पहुँचे हैं उनके पास खाने-पीने का संकट है।

सच में मजदूरों की ज़िन्दगी संघर्षों से शुरू होकर संघर्षों में ही खप जाती है। अनेकों राज्य सरकार मजदूरों के लिए ना तो कोई उद्योग धंधे लगा पाए हैं और ना ही ढंग से कानूनों को लागू करवा पाए हैं। बेचारा, बेबस और बेसहारा मजदूर दो जून की रोटी के लिए ही दम तोड़ देते हैं। तो बताइए काहे का कल्याणकारी राष्ट्र और कैसा जनतंत्र; जब अपने हाल पे ही जीने को मजबूर हो मजदूर?

भारत में न्यूनतम वेतन कानून 1948 लागू है। कड़वी सच्चाई यह है कि कानून केवल कागजों तक ही सीमित रह जाता है। ज़मीनी स्तर पर जमींदारों, व्यवसायियों और ठेकेदारों के बल्ले बल्ले होता है। देह मजदूर गलाते हैं और मज़ा जमींदार, व्यवसायी और ठेकेदार लूटते हैं। हद है!

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भारत जैसे विकासशील देश में राष्ट्रीय आय और गरीबी रेखा को तय करने के अनेकों मानक हैं तब मजदूरों की कुशलता-अकुशलता कैसे तय हो? ग्रामीण क्षेत्रों में तो जमींदार, व्यवसायी और ठेकेदार खुद अकुशल होते हैं, यहाँ लगभग सभी मजदूरों को अकुशल ही माना जाता है और इसी आधार पर इन्हें मजदूरी दी जाती है।

बिहार में अकुशल मजदूरों को 181 रुपए और कुशल मजदूरों को 282 रुपए मिलता है, दिल्ली में यह राशि क्रमशः 538 रुपए और 652 रुपए, आंध्र प्रदेश में 69 रुपए और 895 रुपए, असम में 244 रुपए और 485 रुपए, छत्तीसगढ़ 234 रुपए और 338 रुपए, गुजरात में 100 रुपए और 293 रुपए, हरियाणा में 326 रुपए और 417 रुपए, झारखंड में 229 रुपए और 366 रुपए, कर्नाटक में 262 रुपए और 607 रुपए, मध्य प्रदेश में 283 रुपए और 419 रुपए, महाराष्ट्र 180 रुपए और 315 रुपए, ओडिशा 200 रुपए और 260 रुपए, पंजाब में 311 रुपए और 415 रुपए, राजस्थान में 207 और 277 रुपए है, उत्तर प्रदेश में 228 रुपए और 324 रुपए तथा बंगाल में यह राशि क्रमशः 211 रुपए और 370 रुपए है। जबकि केरल में अकुशल मजदूरों को 287 रुपए से लेकर 510 रुपए तक मिलते हैं वहीं कुशल मजदूरों को 287 से लेकर 556 रुपए तक मिलते हैं।

संगठित क्षेत्रों में स्थिति उतनी भयावह नहीं है जितनी असंगठित क्षेत्रों में है। असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों के साथ असहनीय बर्ताव होता है, 8 घण्टा से ज्यादा काम भी लेते हैं और साथ में मजदूरी भी महीनों बाद मिलते हैं। दिहाड़ी, बेगारी और बंधुआ जैसे अनेकों सच्चाइयों से पता चलता है कि 21वीं सदी का भारत कहाँ है!

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के हाल के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 40 करोड़ मजदूर गरीबी में फंस सकते हैं। ‘आईएलओ निगरानी- दूसरा संस्करण: कोविड-19 और वैश्विक कामकाज’ नामक रिपोर्ट में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे खतरनाक संकट बताया गया है।

संयुक्त राष्ट्र के अन्य रिपोर्ट में बताया गया है कि – “यदि भुखमरी या गरीबी से जूझने वाले लोगों को मदद समय पर नहीं पहुँचाई गई तो सामाजिक और राजनीतिक हालात बिगड़ेंगे। कई जगह लूट, चोरी, डकैती बढ़ जाएगी। इसका असर बहुत जल्द अमीर देशों पर भी पड़ेगा।”

बात अगर मजदूर दिवस की जाए तो इसका इतिहास भी दुखदायी है। गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस को मई दिवस के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल 1886 में शिकागो में हड़ताल करते हुए मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो।

इसी हड़ताल के दौरान बम फोड़ दिया गया और अफरातफरी मच गई। पुलिस ने मजदूरों पर गोलियां चलाई। कुछ मजदूरों की मौत हो गई, साथ ही कुछ पुलिस अफसर भी मारे गए। इस घटना की जांच के बाद चार लोगों को सरेआम फांसी दे दी गई। यह हेमार्केट घटना के नाम से जाना जाता है।

बाद में 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया और 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मान्यता मिली। भारत में इसकी शुरुआत लेबर किसान पार्टी ऑफ हिन्दुस्तान ने 1 मई 1923 को मद्रास में की थी।

कुल मिलाकर देखा जाए तो मजदूर हमेशा से मजबूर रहे हैं। संघर्ष और पलायन ज़िन्दगी का हिस्सा है। गरीबी, भुखमरी, लाचारी, कुपोषण के साथ-साथ खून-पसीना एक करते रहना ही इनका भाग्य है। नेताओं द्वारा ठगे जाना अब सिस्टम का हिस्सा है। भारत में मजदूरों का ना तो वर्तमान है और ना ही भविष्य। दुनिया का सबसे अभागा प्राणी मजदूर ही है। आज मजदूर दिवस नहीं बल्कि आज मजदूर विवश है…

लेखक पत्रकार हैं।

(यह उनका निजी विचार है)