प्रतीकात्मक तस्वीर (साभार: फ्लोरा 2000)

ऋषभ

जर्मनी में वेलेंटाइंस डे ज्यादा खास तरीके से नहीं मनाया जाता। इसके कई ऐतिहासिक कारण भी हैं। प्रेम के लिए यहां 1 मई की तारीख को चुना गया है। 1मई को मजदूर दिवस भी होता है। नीचे दिख रही तस्वीर इसी प्रेम का प्रदर्शन है। 1मई के मे डे के नाम से जाना जाता है।
1 मई के दिन जर्मनी में प्रेमी अपनी प्रेमिका के घर के सामने या प्रेमिका अपने प्रेमी के घर के सामने एक पेड़ लगाते हैं। इस पेड़ पर एक दिल लगा होता है, दिल पर प्रेमी या प्रेमिका का नाम लिखा होता है। नियम ऐसे है कि लीप ईयर में प्रेमिका और साधारण साल में प्रेमी ये पेड़ लगाते हैं। इसको मेबाउम यानी मई का पेड़ कहा जाता है। मे डे को स्प्रिंग की शुरुआत माना जाता है।

ये प्रपोज करने का भी एक तरीका है। जो आपको पसंद है, उसके घर के सामने दिल वाला पेड़ लगाइए। माना जाता है कि ऐसा प्रपोजल रिजेक्ट नहीं होता है।
पश्चिमी सभ्यता में सबसे अच्छी बात ये है कि यहां प्रेम की बहुत खुली स्वीकार्यता है। यहां 16 साल के बाद हर लड़की और लड़के को अपना पार्टनर चुनने और उनके साथ रहने का हक होता है। सब अपनी पसंद से अपनी समझ का पार्टनर चुनते हैं। भारत में ये आजादी बेहद कम है। भारत में हमारे समाज ने प्यार को रोकने के लिए एक पूरी व्यवस्था बनाई हुई है।
इस व्यवस्था के अंग स्कूल के टीचर, पड़ोस के आंटी, अंकल और पैरेंट्स और रास्ता चलते लोग हैं।
भारत बहुत बड़ा देश है लेकिन इसमें प्यार करने की जगह बेहद कम है। भारत में प्यार की परिणिति शादी मानी जाती है. मुझे भी ये कॉन्सेप्ट पसंद है। जिसे आप प्यार करते हो, उसे हमेशा अपने साथ रखना चाहेंगे ही। लेकिन प्यार से शादी तक का रास्ता धर्म, जाति, समाज, समानता, गोत्र, कुंडली, मांगलिक, दहेज और परिवारों से होकर जाता है। इन सारी चीजों में ना आपकी नौकरी काम आती है और ना पद. फिर या तो प्रेमी या प्रेमिका रखिए या परिवार। ऐसे में अधिकतर लोग परिवार को चूज़ कर लेते हैं।
हम में से अधिकतर लोगों ने कहीं ना कहीं अपने प्यार की कुर्बानी दी है। बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिनकी मोहब्बतें पूरी हो पाती हैं। पता नहीं एक ऐसा समाज हम कब बना पाएंगे जब ऐसे प्रेम का इज़हार अपनी पसंद से खुलेआम कर सकें। लड़के और लड़कियां खुद तय कर सकें कि हमारा भविष्य का परिवार कौन होगा। हमारा समाज कब अपने बच्चों पर ये भरोसा करेगा कि वो अपनी समझ से अपनी जिंदगी जी सकेगा। खैर,एक दिन ऐसा आएगा, जरूर आएगा।

(लेखक पत्रकार हैं।)

यह उनका निजी विचार है।