राहुल मिश्रा
नेपाल में राजशाही शासन 28 साल पहले ही समाप्त हो चुका लेकिन ओली सरकार के कामकाज का तरीका किसी तानाशाही हुकुमत जैसी है। भारत व नेपाल के मध्य उपजे विवाद का कारण उत्तराखंड के धारचूला को लिपुलेख दर्रे से जोड़ती एक सड़क है। नेपाल का दावा है कि कालापानी के पास पड़ने वाला यह क्षेत्र नेपाल का हिस्सा है और भारत ने नेपाल से वार्ता किये बिना इस क्षेत्र में सड़क निर्माण का कार्य किया है। जिसके बाद नेपाल ने आधिकारिक रूप से नेपाल का नवीन मानचित्र जारी किया गया, इस नए राजनीतिक नक्शे में लिम्पियाधुरा,लिपुलेख और काला पानी से लगे भारतीय इलाकों को भी नेपाल का हिस्सा बता दिया गया है। इस नए नक्शे में गुंजि,नाभि और कुटी जैसे गांव को भी नेपाली इलाके में दिखाया गया है। यह बात अलग है कि 1975 में नेपाल ने जो नक्शा जारी किया था उसमें लिपियाधुरा के 335 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र नहीं दर्शाये गए थे | वही दूसरी तरफ क्या नेपाल इस बात से अनजान है की जो दूसरा नक्शा उसने जारी किआ है क्या उस नक़्शे को दुनिआ की कोई भी न्यायालय मान्यता देगी। नेपाल बार-बार इस संबंध में वर्ष 1816 में हुई सुगौली संधि का ज़िक्र कर रहा है। नेपाल के विदेश मंत्रालय के अनुसार, सुगौली संधि (वर्ष 1816) के तहत काली (महाकाली) नदी के पूर्व के सभी क्षेत्र,जिनमें लिंपियाधुरा,कालापानी और लिपुलेख शामिल हैं, नेपाल का अभिन्न अंग हैं।
भारत और नेपाल के बीच तनाव बढ़ता ही जा रहा है। कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा क्षेत्र को लेकर विवाद चल रहा है। नेपाल के पीएम केपी शर्मा ओली भारत पर तीखे कमेंट करते जा रहे हैं।ओली ने गंभीर आरोप लगाए हैं की भारत ने अपनी सेना के दम पर नेपाल की ज़मीन पर कब्ज़ा किया है। कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक इंटरव्यू दिया था, जिसमें कहा था कि नेपाल को बहकावे में नहीं चलना चाहिए, नहीं तो तिब्बत जैसा हाल हो जाएगा। सीएम योगी की इसी बात पर नेपाल के पीएम ने अब कहा है कि इस तरह की बातें जायज नहीं हैं। और अब नेपाल की संसद में विवादित नक्शे में संशोधन का प्रस्ताव पास हो गया है। नए नक्शे में भारत के तीनों हिस्से कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को शामिल किया गया है। 275 सदस्यों वाली नेपाली संसद में इस विवादित बिल के पक्ष में 258 वोट पड़े।
लेकिन आज सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है की कौन है नेपाल के पीछे,कौन है जो नेपाल की पीठ थपथापा रहा और क्या भारत-नेपाल विवाद सिर्फ एक नक़्शे को लेकर है?
ऐसा माना जाता है की जब नवंबर, 2019 को भारत ने एक नवीन मानचित्र प्रकाशित किया था जिसमे भारत ने जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में दर्शाया और साथ ही साथ इसी मानचित्र में कालापानी को भी भारतीय क्षेत्र के रूप में दर्शाया तब से ऐसा देखा जा रहा है की इस मानचित्र ने भारत-नेपाल के बीच पुराने विवादों में नई जान डाल दी।
वही दूसरी तरफ नेपाल की जनता में भारत के प्रति आक्रोश का कारण कही भारतीय फिल्मों/ वेब सीरीज में नेपाली महिलाओं को लेकर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी तो नहीं ? क्योंकि नेपाल ने इसपर नाराज़गी व्यक्त की है। जानकारों का यह भी मानना है की नेपाल वर्ष 2017 में चीन की वन बेल्ट, वन रोड परियोजना में शामिल हुआ, परंतु भारत नेपाल पर इस परियोजना में शामिल न होने का दबाव डाल रहा था। भारत द्वारा इस प्रकार दबाव डालना नेपाल को रास नहीं आया और इस घटना ने भारत की ‘बिग ब्रदर’ वाली छवि को स्थापित किया।
नेपाल और भारत के संबंधों में कड़वाहट ऐसा नहीं है की अचानक शुरू हो गई है। यह कड़वाहट तो तब ही शुरू हो चुकी थी जब सितंबर, 2015 में नेपाली संविधान अस्तित्व में आया। लेकिन, नेपाल को जैसी आशा थी उस हिसाब से स्वागत नहीं हुआ। बात यही नहीं खत्म होती नवंबर, 2015 जेनेवा में भारतीय प्रतिनिधित्व द्वारा नेपाल में राजनीतिक फेर-बदल को प्रभावित करने के लिये मानवाधिकार परिषद् के मंच का कठोरतापूर्वक उपयोग किया गया, जबकि इससे पहले तक नेपाल के आंतरिक मुद्दों को लेकर भारत द्वारा कभी भी खुलकर कोई टिप्पणी नहीं गई थी। भारत का रुख मधेसियों को नेपाल में नागरिकता का अधिकार दिलाना था। इनमें लाखों मधेसियों ने वर्ष 2015 में नागरिकता को लेकर व्यापक आंदोलन चलाया था। नेपाल सरकार का ऐसा आरोप है कि मधेसियों के समर्थन में भारत सरकार ने उस समय नेपाल की आर्थिक घेराबंदी की थी।
अब चूंकी चीन है नेपाल का पड़ोसी और चीन का प्रभाव दक्षिण एशिया में लगातार बढ़ रहा है और अब तो भारत के पड़ोस में हर तरफ चीन ही चीन है जैसे की नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान या बांग्लादेश। ये सभी देश चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना में शामिल हो गए हैं। लेकिन भारत इस परियोजना के पक्ष में नहीं है। कहने का मतलब भारत को चीन का दखल रास न आया और नेपाल में चीन के बढ़ते दखल के बाद पिछले कुछ समय से भारत-नेपाल के बीच संबंधों में पहले जैसी गर्मजोशी देखने को भी नहीं मिली जिसका चीन ने पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए नेपाल में अपनी स्थिति को और मज़बूत किया है। वहीं नेपाल के कई स्कूलों में चीनी भाषा मंदारिन को पढ़ना भी अनिवार्य कर दिया गया है। नेपाल में इस भाषा को पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतन का खर्चा भी चीन की सरकार उठाने के लिये तैयार है। चीन, नेपाल में ऐसा बुनियादी ढाँचा तैयार करने की परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जिन पर भारी खर्च आता है।
अब इसे चीन का जादू कहा जाये या नेपाल की कूटनीतिक चाल की भारत के लिये स्थिति उस समय असहज हो गई जब कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये भारत द्वारा लिपुलेख-धाराचूला मार्ग के उद्घाटन करने के बाद नेपाल ने इसे एकतरफा गतिविधि बताते हुए आपत्ति जताई। नेपाल के विदेश मंत्रालय ने यह दावा किया कि महाकाली नदी के पूर्व का क्षेत्र नेपाल की सीमा में आता है। विदित है कि नेपाल ने आधिकारिक रूप से नवीन मानचित्र जारी किया गया,जो उत्तराखंड के कालापानी,लिंपियाधुरा और लिपुलेख को अपने संप्रभु क्षेत्र का हिस्सा मानता है। निश्चित रूप से नेपाल की इस प्रकार की प्रतिक्रिया ने भारत को अचंभित कर दिया है। इतना ही नहीं नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी शर्मा ओली ने नेपाल में कोरोना वायरस के प्रसार में भारत को दोष देकर दोनों देशों के बीच संबंधों को और ज्यादा तनावपूर्ण कर दिए है।
भारत और नेपाल के बीच रोटी-बेटी का रिश्ता माना जाता है। बिहार और पूर्वी-उत्तर प्रदेश के साथ नेपाल के मधेसी समुदाय का सांस्कृतिक एवं नृजातीय संबंध रहा हैसा थ ही साथ नेपाल की अहमियत इस वजह से भी ज्यादा है कि पीएम मोदी के सत्ता में आने के बाद ‘पहले पड़ोस की नीति’ के मद्देनजर नेपाल उनके शुरुआती विदेशी दौरों में से एक था। जबकि इससे पहले आखिरी बार वर्ष 1997 में नेपाल के साथ भारत की कोई द्विपक्षीय वार्ता हुई थी। मौजूदा सरकार ने नेपाल सरकार के साथ कई महत्त्वपूर्ण समझौते भी किये हैं। कृषि, रेलवे संबंध और अंतर्देशीय जलमार्ग विकास सहित कई द्विपक्षीय समझौतों पर सहमति बनी है।
समय आ गया है की भारत को अपनी विदेश नीति की समीक्षा करने की जरूरत है। भारत को नेपाल के प्रति अपनी नीति दूरदर्शी बनानी और साथ ही साथ सतर्क रहना होगा। जिस तरह से नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है, उससे भारत को अपने पड़ोस में आर्थिक शक्ति का प्रदर्शन करने से पहले रणनीतिक लाभ–हानि पर विचार करना होगा। ऐसा अक्सर देखा जा रहा है की भारत और चीन के साथ नेपाल एक आज़ाद सौदागर की तरह व्यवहार कर रहा है और चीनी निवेश के सामने भारत की चमक फीकी पड़ रही है। लिहाज़ा, भारत को कूटनीतिक सूझबूझ का परिचय देना होगा।