सत्य व्रत त्रिपाठी
1941 के नवम्बर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था, “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा।” यह नारा जर्मनी रेडियो से भारतवासी सुन पाए थे। इसके बाद 1942 में आज़ाद हिंद रेडियो की स्थापना हुई जो पहले जर्मनी से फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिये समाचार प्रसारित करता रहा। रेडियो से तो सभी परिचित हैं । आज यह मोबाइल फोन से लेकर डीटीएच और आपकी कार में भी मौजूद है। एक जमाना था जब यह एक बड़े बक्से जितना हुआ करता था। जिनमें से पहले वालों में एक बैंड मीडियम वेब थी बाद में दो बैंड वाले शार्ट वेब के साथ रेडियो आये आज तो हर रेडियो तीन बैंड का है।
जान कर आश्चर्य होगा अभी थोड़े दिन पहले तक रेडियो रखने का लाइसेंस होता था। और यह आपको कोई रेडियो स्टेशन चलाने के लिए नहीं अपने घर में एक साधारण रेडियो सेट रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। यह उसी तरह का समझिए जैसे आजकल आर्म्स लाइसेंस होता है। तब भारत में डाक और टेलीग्राम कानून 1885 बनाया गया। मुझे अच्छे से पता है कि हमारी पीढ़ी में बहुत कम और हमारे बाद की पीढ़ी को इसके बारे में एकदम नहीं पता है। जब यह बन्द हुआ तब उस समय 15 रुपये सालाना की फीस थी। यह बाकायदा एक पासबुक सरीखा होता था जिसमें डाक टिकट लगाकर रिन्यू किया जाता था।
इसके पहले पन्ने का रंग पासपोर्ट के रंग की तरह बंटा था। आम लोगों के लिए इसका रंग पासपोर्ट सरीखे नीला था, सरकारी सेवाओं में उपयोग किये जाने वाले का रंग सफेद और राजनयिक और रक्षा उपयोग में आने वाले रेडियो का लाइसेंस लाल होता था।
अब आते हैं इतिहास पर। भारत में इसकी शुरुआत होती है 1924 में। शुरूआत में यह बहुत कम ही इस्तेमाल हुआ। लेकिन 1927 में वायसराय ने भारत में रेडियो क्लब बनाया। यह बिल्डिंग मुंबई के कोलाबा बीच पर है। गेटवे ऑफ इंडिया औऱ ताज होटल के पास में ही है। इसी क्लब ने ब्रिटिश भारत का सबसे पहला रेडियो प्रसारण किया। आज यह बाकी क्लबों की तरह बन चुका है और इसकी मेंम्बरशिप लेने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का सिफारिशी पत्र या फिर करोड़ों रुपये देने पड़ते हैं। अंदर की व्यवस्था ऐसी है कि ताज होटल के सामने टिकने में कोई दिक्कत नहीं। अब यह क्लब के मेम्बरों के मनोरंजन और उनके अतिथियों के लिए गेस्ट हाउस का काम आता है। अपनी एक मुंबई यात्रा के दौरान दो रात मैं भी यहाँ गुजार चुका हूँ। इस पर बात फिर कभी।
शुरुआती प्रसारण सरकार ने किया बाद में कुछ निजी कम्पनियां आईं लेकिन 1930 तक बहुत बुरी तरह घाटे में गईं। 1932 में फिर से अंग्रेजी सरकार ने प्रसारण शुरू किया। इसके लिए एक अलग विभाग बना जिसका नाम हुआ भारतीय प्रसारण सेवा। 1936 में भारत में सरकारी ‘इम्पेरियल रेडियो ऑफ इंडिया’ की शुरुआत हुई जो आज़ादी के बाद ऑल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी बन गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों को लगा की रेडियो के प्रसारण से उनके प्रति लोगों में बगावत की भावना जगाई जा रही है। इस कारण अंग्रेजी हुकूमत ने सभी रेडियो ब्रॉडकास्टिंग के लाइसेंसों को रद्द कर दिया और सभी ट्रांसमीटर उनके पास जमा कराने के आदेश जारी कर दिए।
ऐसे में नरीमन प्रिंटर जो उन दिनों बॉम्बे टेक्निकल इंस्टीट्यूट बायकुला के प्रिंसिपल थे। उन्होंने रेडियो इंजीनियरिंग की शिक्षा पाई थी। अपने ट्रांसमीटर के पुर्जों को अलग-अलग कर उन्हें अंग्रेजों की नजरों से छुपा दिया। कांग्रेस को ये सब पता था। गांधी जी व अन्य की गिरफ्तारी और अंग्रेजी सेंसरशिप के बाद कांग्रेस नेताओं ने नरीमन प्रिंटर से संपर्क किया। इसके बाद सी व्यू बिल्डिंग, बॉम्बे के सबसे ऊपर वाले माले पर एक ट्रांसमीटर लगा दिया गया. इस तरह 27 अगस्त 1942 को इससे स्वतंत्रता का संदेश दिया जाने लगा। 2 महीने बाद ही इस रेडियो को अंग्रेजों द्वारा पकड़ लिया गया। इसे छुपाने के जुर्म में नरीमन प्रिंटर समेत अन्य सहयोगियों को चार साल की सजा दी गई।
रेडियो रखने की अनुमति डाक विभाग देता था, जो भारतीय डाक तार अधिनियम 1885 के अंतर्गत जारी होता थ।उस ज़माने में बिना लाइसेंस के रेडियो सुनना अपराध था । इसे सशक्त बनाने के लिए वायरलेस टेलीग्राफी एक्ट 1933 के तहत सजा का प्रावधान किया गया था। रेडियो सुनने के लिए दो प्रकार के लाइसेंस उपलब्ध कराए जाते थे, घरेलू और वाणिज्यिक। दोनों के लिए अलग अलग प्रकार का शुल्क सालाना होता था ।
उस समय रेडियो के सिग्नल भी काफी वीक हुआ करते थे। आज के वर्चुअल प्रॉक्सी नेटवर्क (VPN) की तरह इसे मजूबत करने के लिए टीवी के यागी या डिश एंटीना जैसा एक एंटीना छत के ऊपर लगाना पड़ता था। अब अंग्रेजों ने पूरी तरह से रेडियो पर अपना कब्जा जमा लिया था। यह आजादी के बाद भी 1985 तक जारी रहा।
1985 में भारत में रामायण के प्रसारण के समय से ही टीवी की डिमांड बढ़ गयी। हालांकि अभी भी रेडियो की लोकप्रियता में कमी नहीं आई थी 1972 में पैनासोनिक ने पॉर्टेबल रेडियो लांच कर एक और क्रांति कर दी। पहले यह रेडियो एक बक्से जितना होता था अब यह डेढ़ फीट के आस पास आ गया। बाद में बहुत सी कम्पनियों ने यही रास्ता पकड़ा। बुजुर्गों से इस पॉर्टेबल रेडियो के बारे में पूछने पर उनके चेहरे पर अनोखी मुस्कान आ जाती है। 1985 में भारत सरकार ने रेडियो का लाइसेंस खत्म किया और सबके लिए मुफ्त किया। यह उस समय एक अच्छी खासी रकम हुआ करती थी। आप अंदाजा इस बात से लगाइये की 80 के दशक में 75 प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह 120 से 400 और अधिकारियों की एक हज़ार से कम हुआ करती थी। 1995 में केबल टीवी प्रसारण एक्ट पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रेडियो तरंगो पर किसी एक का अधिकार नहीं। इस फैसले के बाद 2006 में रेडियो प्रसारण का अधिकार निजी क्षेत्रों में आ गया और आज एफएम के रूप मे सामने है। मोबाइल फोन का ही विस्तार मोबाइल फोन है।
आजादी के आंदोलन में रेडियो का भरपूर इस्तेमाल हुआ अभी पीछे हम कांग्रेस के रेडियो पर बात कर चुके हैं। अब उसके आगे है कि स्वंत्रता सेनानी उषा मेहता ने सबसे पहले उदघोष किया यह 41.78 शार्टवेव मीटर पर एक अंजान जगह से कांग्रेस रेडियो है। पहला ट्रांसमीटर 10 किलोवाट का था जिसे शीघ्र ही नरीमन प्रिंटर ने और सामान जोड़कर सौ किलोवाट का कर दिया। अंग्रेज़ पुलिस की नज़र से बचने के लिए ट्रांसमीटर को तीन महीने के भीतर ही सात अलग अलग स्थानों पर ले जाया गया। सुभाष चन्द्र बोस ने तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा भी रेडियो पर ही दिया था।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं।)