प्रतीकात्मक तस्वीर

हम 21वीं शताब्दी के सबसे कठिन दौर में जी रहे हैं, जिसे हम आज अगर कोरोनयुग कहेें तो गलत नहीं होगा।
भारतीय ज्ञान परंपरा में सांख्य दर्शन कहता है कि पुरूष अर्थात हम सब औऱ प्रकृति के सहयोग औऱ सामंजस्य के आधार पर इस जगत का निर्माण होता है औऱ इनके वियोग से जगत नष्ट हो जाता है, इसलिए पुरूष औऱ प्रकृति का सबंध जगत का अनिवार्य पक्ष है।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में विकास के नाम पर प्रकृति औऱ पर्यावरण से हमने अनावश्यक छेड़छाड़ करके इसे नष्ट करने का ही प्रयास किया है। जिसका दुष्परिणाम आज हम सबके सामने है।

अगर हम आज देखें तो दुनियाभर में सबसे ज़्यादा आर्थिक प्रगति करने वाले देश कोरोना बीमारी के आगे असहाय नजर आ रहे हैं।
मनुष्य प्रायः प्रकृति पर अपना नियंत्रण चाहता है पर प्रकृति अपने दंड के साथ यह बताती है कि मनुष्य के लिए सबकुछ संभव है परंतु प्रकृति पर नियंत्रण करना असंभव है।

पिछले कुछ दशकों से हम बाजारवाद के साथ आर्थिक विकास के लिए जिस हद तक जुटे हुए थे, उसी ने हमारी जीवनशैली को बदल दिया है, इससे हमारे भोजन,व्यवहार व विभिन्न तौर-तरीकों में एक बड़ा परिवर्तन आया औऱ इसी के चलते हम प्रकृति से दूर हो गए। मनुष्य में शारीरिक व मानसिक हालात इसके वातावरण से तय होता है औऱ इसी को विकास औऱ विलासिता के नाम पर दरकिनार कर दिया गया जिसके परिणामस्वरूप आज सभी मनुष्य परेशान है औऱ उसका अस्तित्व ही संकट में है।
भले ही पर्यावरण व जैव-विविधता से छेड़छाड़ कोई एक देश करे परंतु उसका दंड सभी देशों को उठाना पड़ रहा है, अतः इसके लिए पूरे विश्व को एकजुट होकर कार्य करना होगा और इसका उचित समाधान निकालना होगा।
जब कोरोना जैसी बीमारी फैलती है तो हमें अपने देश की संस्कृति की ओर नज़र दौड़ाने की आवश्यकता है औऱ आज पूरी दुनिया भी इस संकट के घड़ी में भारत की ओर देख रही है।
आज नमस्ते को अभिवादन के रूप में स्वीकारा जा रहा है, इसके अलावा हम देखें तो हमारे यहाँ के खान-पान की सात्विकता व जीवनशैली भी अपनी प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलने और उसको पूजने की है जो हम अपने देश के भिन्न-भिन्न त्योहारों एवं रीति-रिवाजों में देख सकते हैं
हमें यह स्वीकार करना होगा कि आज योग दुनियाभर को आत्मिक एवं शारीरिक शक्ति प्रदान कर रहा है औऱ प्रकृति के साथ ही जीने से ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है।
आज का समय हमें बताता है कि हमें अपने भोग-विलासिता से ऊपर उठकर विकास की परिभाषा को बदलने की आवश्यकता है जिससे हम सतत विकास के द्वारा संपूर्ण विश्व का कल्याण कर सकें।
महात्मा गांधी जी ने कहा था कि ” प्रकृति के पास हमारी आवश्यकता के लिए पर्याप्त संसाधन है परंतु हमारी लालच के लिए नहीं है।
आज की महामारी हमें प्रकृति के व्यवहारों व सिद्धान्तों को भी समझाना चाहती है की उतना ही खाएं, पहने व जुटाएं जितने आवश्यकता हो।
आज प्रकृति हमें एकजुट कर रही और अपने साथ चलने को भी कह रही है। यही समय है कि पूरी दुनिया को साथ मिलकर यह सोचना होगा की तथाकथित विकास की सीमा क्या और कितनी हो?
हम कुछ भी कह लें, कर लें परंतु प्रकृति के आगे हम कुछ भी नहीं हैं अगर इसके बाद भी हम ना बदले तो प्रकृति के उस बदले के लिए तैयार रहे जो संसार को ख़त्म करके ही शांत होगी।

किसी ने ठीक ही कहा है-
आपदा का समय बीत जाने के बाद यदि हम बचे रह जाये औऱ हम एक बदले हुए मनुष्य ना हो
तो मरना बेहतर है।”