डाॅ सर्वेश सिंह
5 अगस्त को जब भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अयोध्या में भूमि पूजन करेगें तो यह एक विराट स्वप्न के साकार होने जैसा क्षण होगा। जन जन ने तो यह स्वप्न देखा ही, पर यह उस मनीषी को भी सम्मान देने का क्षण होगा जिसने राम का नाम जन जन तक प्रसारित कर उन्हें एकसूत्र में बाँधा। वे तुलसीदास थे जो भारतीय शब्द सत्ता के शिखर कवि हैं। वे समन्वय के विराट दृष्टा थे।
दरअसल ब्रिटिश काल में, तथाकथित आधुनिक शिक्षा के अनुरूप, ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने तुलसी-साहित्य का एक आंशिक पाठ्यक्रम तैयार किया और साम्राज्यवाद के हितों के अनुरूप हिंदुस्तान में इसका पठन-पाठन चलाया, तथा उसकी गहन सामाजिक-सांस्कृतिक व्यंजना को छिपा लिया गया। बाद में इसी औपनिवेशिक षड्यंत्र का अनुसरण कर वामपंथियों ने इस काव्य पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये क्योंकि आजाद भारत में यह उनकी सेक्युलर राजनीति के खांचे में फिट नही बैठता था।
किन्तु रामचरितमानस को देखें तो वह एक लोकतान्त्रिक कविता है। धार्मिक शिल्प का आभास जरूर है पर वह मध्यकालीन विवशता है। स्वयं तुलसी के आदर्श मानस के शिल्प के उसी स्तर में व्याप्त है जहाँ राम, ब्रह्म नहीं, गरीबनिवाजे हैं। रामचरितमानस में रामकथा के प्रामाणिक प्रवक्ता शुद्रर्षि काकभुशुण्डि हैं- ‘तेहि कलजुग कोशलपुर जाई। जन्मत भएउ शूद्र तन पाई।।’ नारद और शांडिल्य से अधिक बेहतर और लौकिक, भक्ति की अवधारणा काकभुशुंडि उत्तरकांड में रखते हैं। राम कथा और भक्ति के असली मर्मज्ञ भुशुंडि ही हैं जो आज के हिसाब से दलित हैं। पूरे उत्तरकांड में ज्ञान-भक्ति के आधिकारिक निर्णायक यही शूद्र-ऋषि काकभुशुंडि हैं। यही भुशुंडि राम को ‘गरीब निवाजे’ घोषित करते हैं। अतः दलित विमर्श को इस पर ध्यान देना चाहिए।
रामचरितमानस में दो ज्ञान केन्द्रों का द्वंद्व एवं समन्वय है। वे हैं- प्रयाग और काशी। काशी केन्द्रित शैवागम में कुरीतियाँ भर गई थीं इसीलिए तुलसी राम के माध्यम से मानस में प्रयाग केन्द्रित वैष्णव के प्रगतिशील विचार को सामने रखते हैं, जो उदार, जाति-पाति विहीन एवं लोकतान्त्रिक था। तुलसी लोकहित में इसी ज्ञान की संभावना देखते हैं और उसके प्रसारण का संकल्प करते हैं-
रामचरितमानस निराला की कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ से भी अधिक आधुनिक है। तुलसीदास-कृत ‘रामचरितमानस’ और निराला रचित ‘राम की शक्तिपूजा’ हिंदी की महान कवितायेँ हैं। शक्तिपूजा का आधार-प्रसंग है- ‘राम-रावण युद्ध’ मानस में यह प्रसंग लंका-काण्ड में वर्णित है। हिंदी की प्रगतिशील आलोचना ने इस प्रसंग की अद्भुत अर्थ-व्यंजना के कारण शक्तिपूजा को आधुनिक एवं कालजयी कविता माना जबकि मानस को इस और अन्य प्रसंगों के आधार पर मध्यकालीन, सामंती और धार्मिक मिजाज की कविता का दर्जा दिया।
निराला, इस आधुनिक कविता में एक अतर्क्य, अतीन्द्रिय विधान रचते हैं। एक अलौकिक देवी-सत्ता से समर्थित रावण की शक्ति को देखकर राम सीता की मुक्ति को लेकर सशंकित हो उठते हैं तथा रावण का अट्टहास उनके मन में भय भर उनकी आँखों को नम कर देता है। जबकि मानस में इतनी अतिन्द्रियता नही। वहां त्रिजटा स्पष्ट कहती है- प्रभु ताते उर हतइं न तेही। एहिके ह्रदय बसति वैदेही।
अयोध्या में राम की पुनर्स्थापना के साथ ही भारतीय संस्कृति की आत्मा का उद्धार सम्पन्न होता है। तुलसी का ध्येय भी यही था। अगला कदम सामाजिक समन्वय का है जिसे शीघ्र ही अर्जित करना होगा। अतः, तुलसी एवं मानस को इन नई दृष्टियों से देखने की जरूरत है, तथा अब तक पढ़ा-पढ़ाया जाता रहा तुलसी का औपनिवेशिक-वामपंथी साहित्यिक पाठ जो की पूर्वाग्रहपूर्ण, साजिशपूर्ण, दोषपूर्ण और अपर्याप्त है, उसे अविलंब बदलने की जरूरत है।
(लेखक,अम्बेडकर विश्वविद्यालय लखनऊ में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष हैं। लेख में उनके निजी विचार है।)