अनिमेष मिश्रा
कुछ दशक पहले शायद यह उम्मीद करना भी मुश्किल था कि सावरकर की जंयती पर भारत के प्रधानमंत्री उनके योगदान को याद करेंगे आज नरेंद्र मोदी ने इस तिलिस्म को तोड़कर अपना सावरकर प्रेम ज़ाहिर कर दिया।
कितनी विडंबना है कि “भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम युग”और 1857 कि क्रांति को अपने तीक्ष्ण बुद्धि और तर्क से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताने वाले वीर सावरकर को आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने गुमनामी के अंधेरे में फेंक दिया था। जिस काला पानी की सजा से कैदी काँप उठते थे उसी काला पानी की सजा सावरकर को 50 सालों के लिए हुई थी।सावरकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम के वीर सिपाही थे जिनकी तेज,त्याग,तपस्या और बलिदान को देखकर किसी भी भारतीय का मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है लेकिन इतिहास के इस नायक के साथ समकालीन इतिहासकारों ने जितना छेड़छाड़ किया है उतना अन्याय तो अंग्रेज़ो ने भी नही किया।
आज वीर सावरकर की जंयती है। वर्तमान परिदृश्य में सावरकर से जुड़ी दो घटनाएं मुझे याद आ रही हैं। जिसे समझना बहुत महत्वपूर्ण है। यह दोनों ही घटनाएँ देश की शीर्ष संस्थानों में घटित हुई थी।
पहली घटना बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की है पिछले साल नवंबर में जहाँ राजनीति विज्ञान विभाग के कक्षा मे लगे सावरकर की तस्वीर पर कालिख़ पोत दी गयी थी और दूसरी घटना जेएनयू की है जहाँ एक सड़क का नाम वीर सावरकर पे रखने से विवाद खड़ा किया गया। और दूसरे ही दिन उस मार्गदर्शिका पर कालिख पोत दी गयी.दुःख इस बात की है कि ऐसी मानसिकता देश की शीर्ष विश्वविद्यालय के अंदर पनप रही है जो विचारों की विविधता में विश्वास नहीं करती है। देश के शीर्ष विश्वविद्यालय के कैंपस में वैचारिक विमर्श का स्थान अब कालिख़ पोतने की सियासी राजनीति ने ले लिया है। ऐसे करने वाले कौन लोग हैं और उनकी क्या मंशा है? बीएचयू और जेएनयू में ऐसा घृणित काम करने वाले जो भी लोग थे उनमें एक समानता है। ऐसे लोग सार्थक संवाद और विचारिक विविधता में विश्वास नहीं रखते हैं। उनके अंदर न तो सावरकर जैसी त्याग और बलिदान है और न ही मातृभूमि के प्रति श्रद्धा।
ऐसे पहली बार नही है कि सावरकर को लेकर इतना विवाद किया जा रहा है। मुझे याद आ रहा है जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में “स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य” पर अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठि के उद्घाटन समारोह में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि “सावरकर वे पहले व्यक्ति थे जिनकी वजह से 1857 की क्रांति हमारे आजादी की पहली लड़ाई बन पाई” तब भी एक बहुत बड़ा वर्ग साइबर ट्रोल से सावरकर की निंदा में जुट गया था। ऐसे में ऐसा लगता है कि ये लोग नही चाहते हैं कि सावरकर को विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाए अथवा सार्थक विमर्श किया जाए क्योंकि ऐसा होने से इतिहास के साथ अपनाया गया इनका “सेलेक्टिव एप्रोच” खतरे में आ जाएगा। ऐसे मानसिकता के लोगों को समझना चाहिए कि “सावरकर के विचार” से उनकी यह नफरत और उनकी निंदा उसी तरह है जैसे अंग्रेज़ो को उनकी किताब और उनके विचार से था। ऐसे में अंग्रेज़ो और उनमें फर्क करना बड़ा मुश्किल हो जाएगा। हमें विचार करना चाहिए कि राजनीतिक पार्टियों के प्रति हमारी वफ़ादारी में हम राष्ट्रीय धरोहर और महापुरुषों का अपमान तो नहीं कर रहे हैं। हम सभी को सतर्क रहना चाहिए कि जाने-अनजाने में हम कोई बड़ी राष्ट्रीय भूल तो नहीं कर रहे हैं।
एक आरोप सावरकर के आलोचक उनपर दया याचिका को लेकर लगाते हैं। अंग्रेज़ों से दया याचिका का आरोप लगाकर जो राजनीतिक दल सावरकर की आलोचना करती हैं। उन्हें याद रखना चाहिए कि उनके संगठन पर भी अंग्रेज़ो की सियासत की उपज और प्रार्थना और याचिका करने वाली संगठन होने का आरोप लगते रहे हैं। सावरकर ने हर बार जेल से बाहर आकर पुनः अंग्रेज़ो के खिलाफ मुखालफत ही कि थी। ऐसे में उन्हें अंग्रेज़ो का वफादार समझना तथ्यों के विपरीत और हास्यास्पद है।
बहुलतावाद के प्रांगण में आजाद भारत के इतिहास ने अपने इस महापुरुषों के साथ जो भेद किया है वो मन को दुखित करता है। सावरकर जैसे महापुरुषों का अपमान कर हमने अपने राष्ट्रीय चरित्र को दूषित कर लिया है।
जरूरत है “इतिहास के पुनर्लेखन” की जो गाँधी,नेहरू,अम्बेडकर,तिलक,सावरकर ,सुभाषऔर भगत सिंह में भेद नही करें। त्याग,बलिदान,समर्पण की जिस त्रिवेणी से वीर सावरकर ने भारत की सेवा की है उसे आज़ाद भारत के इतिहास के पन्नों से विस्मृत करना बेईमानी होगी और शायद असंभव भी।