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श्रेया उत्तम।

एक स्त्री के अंदर का प्रतिरोध भला शब्दों में कैसे उढ़ेला जा सकता है। जब-जब तुम हमारी आँखों के सामने से अपनी हवस भरी मुस्कान के साथ निकलते हो, कभी मेलों, बाज़ारों, उत्सवों में अपनी नज़रों से हमारे कपड़ों को चीर-फाड़ कर जब तुम हमारे जिस्म से अलग कर रहे होते हो तो कसम से हमें फूटी आँखों नहीं सुहाते (पसंद) हो। तुम्हारी इन हरकतों पर जितना हमारा खून खौलता है ना उतनी ही साँसें झटपटाने लगती हैं तुम्हारी गंदी नज़रों के पिंजरे से आज़ाद होने के लिये ।
जब कभी तुम्हारा मन करता है छतों से कूदकर तुम अपनी पौरुषता का विजयरथ लेकर घुस जाते हो घरों में और किसी लड़की के जिस्म से जोकि तुम्हारे लिये खिलौना है उससे खेल कर जब शान से भरे समाज में चलते हो ना तब तुम्हारी इस कायरता पर तरस आता है।
खेतों, बसों, स्कूलों, कॉलेजों, ऑफिसो, सुनसान गलियों में तुम खुले हुये सांड की तरह घूमते हो और रौंदते रहते हो छातियों को।
गंदी व भद्दी गालियों, अश्लील टिप्पडियों से कभी एसिड अटैक, यौन शोषण, बलात्कार करके तुम खुद की फूहड़ता और जाहिलता पर आखिर कैसे इतरा लेते हो?
तुम सिर्फ अजनबी या पड़ोसी ही नहीं होते हो तुम वहशी दरिंदे प्रेमी के भेष में भी होते हो जो पहले मोहब्बत के नाम पर उसके जिस्म को बिस्तर-चादर बनाकर लेटते-ओढ़ते रहते हो और जब मन भर जाता है तो उसकी फोटो, वीडियो बनाकर दुनिया के सामने रखकर असली मोहब्बत का प्रमाण दे देते हो।
तुम पति भी होते हो जिसको समाज हक देता है कि जब चाहो, जैसे चाहो तुम्हें उससे सेक्स करने का अधिकार है अगर उसकी तरफ़ से मर्जी न होने पर विरोध होता है तो तुम वह सह नहीं पाते हो। कभी ज़बरदस्ती तो कभी लातों-घूंसों, चप्पलों से या आग के हवाले से घरेलू हिंसा करके तुम अपनी मर्दानगी दिखा देते हो।
तुम बाप, चाचा और भाई भी होते हो जिनको हवस के आगे कुछ दिखाई नहीं देता। उसकी चीखें तुम्हें शहनाईयों की गूँजो से कम नहीं लगती हैं।
और जब कभी तुम अपने कारनामों में सफ़ल नहीं होते हो तो एसिड अटैक, ब्लैकमेल, अश्लील सामग्री के दुरुपयोग और हत्यायें कर डालते हो।
सेक्स करने के बाद तुम वजाईना में घोंप देते हो कंकड़, पत्थर, शराब की टूटी बोतलें, लोहे के रॉड और जब इससे भी मन नहीं भरता तो सिगरेट से जलाते हो उसके अंगों को और खून से लथपथ अधमरा करके फेंक देते हो मरने के लिये सड़कों, होटलों, तालाबों के किनारे।
अगर हम जिंदा बच भी जाते हैं तो ये सारे दुष्कर्म किसी गीले कपड़े की तरह सिर्फ हमारे जिस्मों को ही नहीं निचोड़ते हैं बल्कि हमारी रूह पूरी जिंदगी इस मानसिक कश्मकश और समाज के तानों की चुभन से बेचैन होकर हमेशा झटपटा कर रह जाती है।

(ये लेखिका के निजी विचार हैं।)

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए कर रही हैं और हिंदी साहित्य की छात्रा हैं।)