भारतीय स्‍वतंत्रता संगाम-1857 विश्व की अद्भुत आश्चर्यजनक तथा बेजोड़ घटना है। इसने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया था। यह साम्राज्यवादी अंग्रेज सरकार के लिये भारतवासियों की सामूहिक व देशव्यापी पहली चुनौती थी। जस्टिस मैकार्थी ने हिस्ट्री ऑफ अवर ओन टाइम्स में लिखा-‘वास्तविकता यह है कि हिंदुस्तान के उत्तर एवं उत्तर पश्चिम के सम्पूर्ण भूभाग की जनता द्वारा अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध प्रतिकार किया गया था।’ लाखों व्यक्तियों ने अपनी आहुति दे दी। अंग्रेजों ने केवल नरसंहार ही नहीं, अपितु भयंकर लूटमार भी की थी। लगातार एक वर्ष से भी अधिक चला था यह संग्राम। मेरठ में 10 मई, 1857 को उठी इस क्रांति का श्रेय उत्तर प्रदेश में जनपद बलिया निवासी वीर क्रांतिकारी मंगल पांडेय को जाता है। किंतु यह भी सच है कि देश के कोने-कोने में पहले से ही अंग्रेजी हूकुमत के विरुद्ध जंग छिड़ चुकी थी। स्‍वतंत्रता संगाम-1857 में मध्‍यप्रदेश की भूमिका अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण रही है। अनेकों रियासतों व क्रांतिकारियों ने ब्रिटिशर्स का प्रतिकार किया और देश को स्‍वतंत्र कराने में अपना बलिदान दिया है। हमारी आने वाली पीढ़ी इन इतिहासों से, अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेगी। स्‍वाधीनता संग्राम-1857 के बहुत पहले से ही वनवा‍सी जनजाति योद्धाओं ने भी ब्रिटिशर्स का प्रतिकार करना प्रारंभ कर दिया था। देश को स्‍वतंत्र कराने में 1857 की क्रांति को क्रांतिकारियों का सा‍मूहिक प्रयास कहा जा सकता है। अंग्रेजी दासता के विरुद्ध 1857 का स्‍वतंत्रता संग्राम हजारों-लाखों क्रांतिकारियों के बलिदान का इतिहास है। किंतु गिने-चुने क्रांतिकारियों के ही नाम चलन में हैं। जिनके नाम चलन में हैं भी, उन्‍हें संदिग्‍ध बताया गया है। चन्‍द्रशेखर आजाद, भगत सिंह सरीखे क्रांतिकारियों को डाँकू, आतंकवादी, विद्रोही लिखा-पढ़ा गया है। अंग्रेजियत से प्रभावित भारतीय लेखकों ने षड्यंत्रपूर्वक क्रांतिकारियों का नाम उजागर नहीं किया, ताकि भविष्‍य का भारत अपने पूर्वजों, वीरता से अनभिज्ञ रहे।

स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख केन्‍द्र

झाँसी, सागर, खंडवा, खरगौन, बुरहानपुर, बड़वानी, नीमच, देवास, धार, इंदौर, झाबुआ, राजगढ़, रतलाम, उज्जैन, गुना, सीहोर, झालावार, कोटा, बांसवाडा आदि।

रियासतों व क्रांतिकारियों के प्रमुख प्रयास

जनजाति योद्धा ‘तिलका माँझी’

जबरापहाड़िया तिलका माँझी को भारतीय गुरिल्ला युद्ध-पद्धति के लिये जाना जाता है। उन्‍होंने प्रख्‍यात संथाल आंदोलन का नेतृत्व किया। तिलका को अंग्रेज सरकार ने 1785 में गिरफ्तार कर फाँसी दे दी। फाँसी के संदर्भ में कुछ स्‍थानों पर 1784 का भी उल्‍लेख मिलता है। अंग्रेजों को ललकारते हुए कहा था कि-‘यह भूमि धरती माता है, हमारी माता है, इसपर हम किसी को लगान नहीं देंगे।’ तिलका का जन्म 11 फरवरी,1750 को बिहार के सुल्तानपुर के तिलकपुर गाँव में एक संथाल जनजाति परिवार में हुआ था। वनवासियों और अंग्रेजों के बीच हो रहे संघर्ष ने तिलका को क्रांतिकारी बनाया। 1781-84 के बीच योद्धा तिलका माँझी अंग्रेजों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते रहे। सुपरिटेंडेंट क्लीव लैंड को तिलका माँझी ने 13 जनवरी, 1784 को तीरों से मार गिराया। तिलका माँझी को सन् 1785 में एक वट वृक्ष में रस्से से बांधकर अंग्रेजों ने फाँसी दे दी।

लरका आंदोलन के प्रणेता वीर बुद्धु भगत

महान स्‍वतंत्रता सेनानी बुद्धु को विख्‍यात ‘लरका आंदोलन’ के लिये जाना जाता है। दैनिक भास्‍कर में 18 फरवरी, 2016 को प्रकाशित समाचार के अनुसार, बुद्धु के छेड़े आंदोलन के फलस्‍वरूप ही भूमि सुरक्षा (सीएनटी) एक्ट बना। वीर बुद्धु भगत का जन्‍म 17 फरवरी,1792 राँची जिला के चान्‍हों प्रखंड के सिलागाई गाँव में हुआ था। अपनी जमीन और जंगल की रक्षा के लिये जब वनवासियों ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लोहा लेने का संकल्प लिया तो वीर बुद्धु भगत नायक के रूप में उभरे। वर्ष 1831-32 के दौरान छोटा नागपुर को ब्रिटिशर्स से मुक्त कराने के लिये बुद्धु ने जनजातियों के साथ मिलकर आंदोलन का बिगुल फूँका था। भगत ने घूम-घूमकर अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध जन-जागरण कर लड़ाई के लिये प्रेरित किया। 13 फरवरी,1832 को सिलागाई गाँव में कैप्टन इंपे के साथ अंग्रेजी सेना और बुद्धु के बीच संग्राम हुआ। वीर बुद्धु भगत के साथ ही उनके दो बेटे हलधर (18 )व गिरधर (15) और दो बेटियाँ रूनिया (09) व झूनिया (07) ने भी अपना बलिदान दे दिया।

अंतिम साँसों तक लड़ने वाली वीरांगना रानी अवंतीबाई

वर्तमान मध्यप्रदेश के डिण्डोरी जनपद का ‘रामगढ़’ गाँव 1857 स्वतंत्रता संग्राम का केन्द्र था। आंदोलन की अगुवाई रानी ने की। उनका जन्म 16 अगस्त, 1831 को मध्यप्रदेश के अंतर्गत जिला सिवनी के गाँव मनकेहणी में जमींदार राव जुझार सिंह के घर हुआ। देवहारगढ़ में अंग्रेजों से जंग में लड़ते-लड़ते अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए रानी दुर्गावती के पदचिह्नों पर चलते हुए अवंतीबाई ने स्वयं को कटार मार लीं, लेकिन अंग्रेजों के समक्ष आत्म-समर्पण नहीं कीं। उन्होंने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। रानी की ​वीरगाथा देश में लोकगीतों के माध्यम से आज भी गूंज रही है। 1859 के मध्य में अंग्रेज अधिकारी वाडिंगटन ने रामगढ़ में अपना शिविर स्थापित किया। रानी के द्वारा समर्पण किये जाने का उल्लेख अंग्रेजी दस्तावेजों में भी नहीं है। वहीं, 09 अप्रैल, 1858 से लेकर 13 नवम्बर, 1858 तक रानी के जीवित होने के प्रमाण मिलते हैं। रानी के बलिदान की तिथि का जिक्र गैजेटियर में भी नहीं है। मई, 1857 में राज्य के आस-पास के राजाओं, परगनादारों, जमींदारों और बड़े मालगुजारों का विशाल सम्मेलन रामगढ़ में आयोजित किया। गुप्त सम्मेलन में लिए गए निर्णय के अनुसार प्रचार का दायित्व रानी पर था। वहीं, 23 नवम्‍बर, 1857 की खैरी युद्ध का नेतृत्‍व भी कीं।


ठाकुर रणमत सिंह

1857 संग्राम में मध्य प्रदेश के सतना जिले के मनकहरी ग्राम निवासी ठाकुर रणमत सिंह भी शामिल थे। वह रीवा की सेना में सरदार थे। मई, 1858 में उन्होंने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की भी सहायता की थी। तत्या टोपे के संपर्क में रहे, उनसे परामर्श लेते थे और अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से अवगत कराते रहते थे। रणमत ठाकुर महीपत सिंह के पुत्र थे। रणमत बघेल वंश के थे। रणमत सिंह ने भिलसांय युद्ध, तिरोंहा युद्ध, हनुमान घाट युद्ध, क्‍योटी की लड़ाई लड़ी। योरोपियन इंजीनियर की हत्या के आरोप में 1860 में रणमत सिंह को बाँदा में फाँसी दे दी गयी। विभिन्न संदर्भों में रणमत की फांसी तिथि को लेकर असमंजस है। कहीं 1859 दर्ज है तो कहीं 1860।

सोहागपुर का गरुल सिंह

मेरठ में उठी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी का समाचार जबलपुर पहुँचा तो सोहागपुर के गरुल सिंह भी अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिये। इनकी मृत्यु 1869 में हुई। हालांकि 19 फरवरी, 1858 के बाद इनके संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। गरुल सिंह सोहागपुर की रानी सुलोचना कुंवर के रिश्तेदार थे और रियासत में सरवराहकार थे। ब्रिटिश सरकार से अपनी भाभी सुलोचना की सांठ-गांठ के कारण गरुल सिंह ने उन्हें मार डाला। 02 दिसम्बर, 1858 के बाद गरुल सिंह के संबंध में जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालांकि यह जानकारी मिलती है कि रीवा रियासत में कैथहा के ठाकुर धीर सिंह और किशोर सिंह के समझाने पर सोहागपुर के ठाकुर जोगीगढ़ (धन्धापहार) की ओर अपने साथियों के साथ चले गये थे।

रीवा के धीर सिंह बघेल

धीर (धीरज) सिंह का जन्म सन 1820 में रीवा राज्य के ग्राम कछिया टोला (कृपालपुर) में हुआ था। वह रीवा राज्य के युवराज रघुराज सिंह के मित्र थे। 1837 में राज्य से निष्कासित कर दिये गये थे। दरअसल रघुराज सिंह द्वारा किसी की ऋणमाफी के आदेश को राजा ने निरस्त कर दिया था, जिसका उन्होंने विरोध किया था। हालांकि बाद में उन्हें वापस बुला लिया गया और सौ रुपये मासिक वेतन पर न्यायाधीश (मिताक्षरा) नियुक्त किया गया। धीर सिंह को ‘महाराज कुमार लाल धीरज सिंह’ के नाम से संबोधित किया जाता था। इसी नाम से वह नाना पेशवा को पत्र लिखते थे। 16 फरवरी को उन्होंने नाना पेशवा को पत्र लिखकर सूचना दी कि वह एजेंट के विरुद्ध हो गये हैं। पत्र में उन्होंने नानाजी को धर्म रक्षक कहा है। तात्या टोपे के चरखारी अभियान में धीर सिंह साथ दे रहे थे। धीर सिंह पर जब दबाव पड़ने लगा तो उन्होंने अपना वेश-भूषा बदल लिया। साधु के वेश में जोधपुर में उनके दिखाई देने की बात इतिहास में दर्ज है।

विजय राघवगढ़ के राजा सरजू प्रसाद

1857 के संग्राम के समय राजा सरजू प्रसाद की आयु मात्र 17 वर्ष थी। सरजू सिंह ने अक्टूबर, 1857 में तहसीलदार साबित अली और उसके सईस को मार कर डाला। ये दोनों अंग्रेज सरकार के व्यक्ति थे। सरजू प्रसाद के साथ शाहगढ़ व मानगढ़ के राजा महिपाल सिंह, नारायणपुर के ठाकुर, लाला छत्तर सिंह, दीवान शारदा प्रसाद, गणेश जू, बुद्ध सिंह, मुकुन्द सिंह, दीवान दल गंजन सिंह, शिवलाल धारी किलेदार और खिलवाड़ा के थानेदार राम प्रसाद थे। अंग्रेजों से युद्ध में विजय राघवगढ़ के सेना नायक सरदार रामबोल और चन्दन चाचा ने दो नयी तोपों ‘रामबाण और धनगर्जन’ का प्रयोग किया। 1864 में सरजू प्रसाद बन्दी बना लिये गये और आजीवन कारावास की सजा हुई। 117400 रुपये के प्रोमेसरी नोट (वचन पत्र) सहित उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। जब उन्हें रंगून ले जाया जा रहा था, उन्होंने प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में आत्म-बलिदान कर लिया।

बड़वानी के भीमा नायक

वर्तमान मध्‍यप्रदेश के पश्चिमी हिस्‍से में निमाड़ इलाका है। पहले यहां दो प्रमुख रियासतें थीं – झाबुआ और बड़वानी। बड़वानी रियासत में में स्‍वतंत्रता के मतवाले वनवासी भीमा नायक का घर था। भीमा नायक की जन्‍मतिथि अबूझ है। हालांकि अब तक हुए शोध के अनुसार भीमा का कार्य क्षेत्र बड़वानी रियासत से वर्तमान महाराष्ट्र के खानदेश तक रहा है। 1857 संग्राम के समय हुए अंबापावनी युद्ध में भीमा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अंबापावनी युद्ध में 150 सेनानी बलिदान हुए व 52 बंदी बना लिये गये। 57 क्रांतिकारियों को गोली से उड़ा दिया गया। अंग्रेजों की क्रूरता का अंदाजा इस घटना से लगाई जा सकती है कि सेनानियों की पत्नियों व बच्‍चों समेत 200 को हिरासत में ले लिया गया। एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि 27 नवम्बर, 1858 के आस पास जब तात्या टोपे निमाड़ आये थे तो उनकी भेंट भीमा नायक से हुई थी। भीमा ने उन्हें नर्मदा पार करने में सहयोग किया था। 1864 तक भीमा की क्रांतिकारी गतिविधियाँ जारी रहीं। भीमा को आत्मसमर्पण करने के लिये तीन मौके दिये गये, परंतु उन्‍होंने समर्पण नहीं किया।

मुखबिरी के शिकार हुए भीमा

02 अप्रैल, 1867 को अंग्रेज पुलिस ने मुखबिरी से पता किया कि बालकुआ से तीन मील दूर घने जंगल में एक झोपड़ी में भीमा हैं, मौके से चार अंग्रेज सिपाहियों ने उन्‍हें दबोच लिया। उन्‍होंने भागने की कोशिश की, लेकिन कुछ दूर पत्‍थर से टकराकर गिर गये और बन्दी बना लिये गये। क्रांतिकारी भीमा नायक को काला पानी की सजा दी गयी। उन्‍हें अंडमान-निकोबार की जेल में रखा गया। जेल में ही उनका निधन 29 दिसम्बर, 1876 को हुआ। हालांकि उनकी मृत्‍यु को लेकर अभी भी स्थिति स्‍पष्‍ट नहीं है। जनश्रुतियों में उनको फाँसी होने की बातें होती हैं।

महीदपुर के सदाशिवराव अमीन

सदाशिवराव होल्‍कर राज्‍य में अधिकारी थे, किंतु ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध थे। गंगाधर वकील, छावनी महीपुर की रिपोर्ट के अनुसार,अमीन परोक्ष रूप से ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध गतिविधियों में शामिल थे।

अंग्रेजों की ओर से जारी संदेश को अमीन क्रांतिकारियों तक पहुँचाने का काम अत्‍यंत गंभीरता से करते थे। उन्होंने स्‍वतंत्रता के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की तथा उन्हें हर प्रकार का सहयोग दिया। अंग्रेज सरकार की व्‍यवस्‍था में रहकर उन्‍होंने स्‍वतंत्रता की लड़ाई लड़ी। अंग्रेजी शासन का प्रतिकार करने के लिये अमीन ने नागरिकों को जागरूक किया। जनता के बीच प्रतिकार का संदेश प्रसारित किया। उन्‍होंने छावनी में क्रांतिकारियों की भर्ती की। सिपाहियों को भारतीय स्‍वतंत्रता के पक्ष में खड़े होने के लिये आग्रह किया। ब्रिटिश सरकार ने उनपर कोर्ट मार्शल से मुकदमा चलाया और 07 जनवरी, 1858 को उन्हें तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया। दूसरे दिन 08 जनवरी को सुबह की वेला में अमलदार भाऊ चिटनवीस को भी तोप से उड़ाया दिया गया। अन्‍य क्रांतिकारियों को पकड़ने के लिये अंग्रेज सरकार ने इश्तहार जारी किया और पकड़ने वालों को इनाम की घोषणा की।

रानी लक्ष्‍मीबाई


लक्ष्मीबाई का जन्‍म काशी (वाराणसी) में द्वादशी, जिला सतारा के एक महाराष्ट्रीयन करहेड ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जन्‍मतिथि को लेकर मतभेद भी है, कहीं-कहीं 16 नवम्‍बर, 1828 का उल्‍लेख मिलता है। सूच्‍य हो कि झाँसी की रानी के जीवनकाल से बहुत कम ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं।

झाँसी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का हस्‍तक्षेप

गंगाधर राव की मृत्‍यु का समाचर सुनकर ब्रिटिश सरकार सक्रिय हो गई। दामोदर का रानी का जैविक पुत्र न होने का तर्क गढ़कर झाँसी जब्त करने की कार्यवाही डलहौजी ने शुरू कर दी।

झाँसी किला छोड़ने का फरमान

ब्रिटिश अधिकारियों ने राज्य के गहने जब्त कर लिये। तत्‍कालीन समय डलहौजी ने आरोप लगाते हुए कहा था कि सिंहासन “व्यपगत” हो गया है और इस तरह झाँसी को अपने “संरक्षण” में रखा गया है। मार्च 1854 में, रानी को 5000 रुपये सालाना की पेंशन दी गई और झाँसी किला छोड़कर रानी महल में स्थानांतरित होने के लिये आदेश जारी किया गया।

अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी

अंग्रेजों द्वारा जबरदस्‍ती राज्‍य को कब्‍जा में लेने के निर्णय का एक सिंहनी की भांति दहाड़ते हुए उन्‍होंने प्रतिकार किया और ललकारते हुए कहा कि ‘अपनी झाँसी किसी को नहीं दूंगी।’

वार्ता का प्रयास

रानी लक्ष्मीबाई ने लंदन में अपील दायर की। डालहौजी को पत्र भी भेजा, साथ ही अपने राजदूत को लंदन भेजा और ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों के सामने अपने राज्‍य की सारी घटना का लेख प्रस्‍तुत किया। लेकिन, याचिका खारिज कर दी गयी।

सेना का गठन

अंग्रेजों की यह तानाशाही रानी लक्ष्‍मीबाई को स्‍वीकार नहीं था। उन्‍होंने अपनी सुरक्षा को मजबूत किया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन किया। महिलाओं को भी सैन्य प्रशिक्षण दिया गया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं, को अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।

लेफिटनेंट वॉकर को मार डाला

रानी का अंग्रेजों ने पीछा करना शुरू कर दिया। घोड़ा के मर जाने के बाद रानी आगे बढ़ीं, लेकिन यमुना तट पर पहुँचते ही अंग्रेजी सेना ने रानी को घेर लिया। बंदी बनने का प्रयास किया, पर उन्‍होंने हिम्‍मत से काम लिया और अंग्रेजी अधिकारी लेफिटनेंट वॉकर को वहीं मार डाला।

15 जून, 1858 का युद्ध, स्मिथ को पराजय

स्मिथ ने क्रांतिकारियों पर कोट की सराय नामक स्‍थान पर हमला किया। रानी अपनी दो सखियों मन्‍धर तथा काशी के साथ क्रान्तिकारियों का नेतृत्‍व करते हुए सेनापति स्मिथ से मुकाबला करने मैदान में आईं। स्मिथ को पराजय स्‍वीकर कर भागना पड़ा। यह युद्ध तीन दिन और तीन रात 18 जून तक चला।

ह्यूरोज से युद्ध

स्मिथ के पराजय के बाद ब्रितानी जनरल ह्यूरोज रानी से युद्ध करने को आया। स्मिथ के साथ चले तीन दिन के युद्ध में रानी लक्ष्‍मीबाई थककर चूर थीं। रानी की हालत देख अंग्रेज सेना उनको घेरने लगी। यह देख उन्‍होंने ताबड़तोड़ वार करना शुरू कर दिया। अपनी तेज तलवार से शत्रुओं को काटते-काटते वह अचानक एक नाला के पास पहुँच गयीं, जिसे पार करना कठिन लग रहा था। नया घोड़ा नाला पार नहीं कर पाया।

बलिदान

18 जून,1858 को ग्वालियर के फूल बाग क्षेत्र के पास कोताह-की-सेराई में ह्यूरोज के साथ लड़ाई के दौरान रानी ने अपना सर्वोच्‍च बलिदान दिया। अंग्रेजों ने तीन दिन बाद किला पर कब्‍जा कर लिया। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोज ने टिप्पणी की कि “रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, क्रांतिकारी नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।” कुछ दिनों बाद रानी के पिता को बंदी बना लिया गया और उन्हें फाँसी दे दी गई। उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव को ब्रिटिश राज द्वारा पेंशन दी गई, हालांकि उनकी विरासत कभी नहीं मिली।

जबलपुर के राजा शंकरशाह और रघुनाथशाह

शंकरशाह व रघुनाथ शाह गढ़ा-मंडला के गोंड साम्राज्य के राजा थे। पिता-पुत्र गोंड जनजाति से थे। दोनों ने अंग्रेजों की नीतियों का विरोध किया। शंकर शाह ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक कविता भी ​लिखी, जिससे अंग्रेज भड़क उठे और दोनों को गिरफ्तार कर लिया। दोनों को अंग्रेजों ने 18 सितम्बर, 1857 को तोप से बांधकर उड़ा दिया। दोनों के संघर्ष से वनवासी क्षेत्रों में स्वतंत्रता की अलख जगी। शंकर शाह के पूर्वजों ने 1500 वर्षों तक गोंडवाना पर राज्य किया और विदेशी प्रभाव से बचाने के लिए सभी सदैव युद्धरत रहे। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु 70 वर्ष और पुत्र की 40 वर्ष हो चुकी थी।
अंग्रेजों द्वारा शंकर शाह की गिरफ्तार को लेकर कई मत हैं।

पहला मत – वह अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ अंग्रेजों की जबलपुर छावनी पर हमला की योजना बना रहे थे, जिसकी भनक अंग्रेज अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल क्लार्क को लग गई। इसके बाद वह शंकर शाह व रघुनाथ शाह को गिरफ्तार करने के आदेश जारी कर दिया।

अन्य संदर्भकारों का मानना है कि शंकर शाह के नौकर गिरधारी ने अंग्रेजों को उनके विरुद्ध भड़काया और अंग्रेजों ने उनके घर की तलाशी ली, जहां से अंग्रेजों के विरुद्ध लिखी कविता मिली। हालांकि एक अन्य मत है कि निम्नलिखित कविता शंकर शाह की कृति नहीं है। इस कविता को गिरधारी दास ने स्वयं लिखकर या किसी अन्य से लिखवाकर उनके घर में रखवा दिया और तलाशी करवा दी।

कविता

मूंद मुख ​डंडिन को, चुगलों को चबाय खाई।
खूंद डार दुष्टन को, शत्रु-संहारिका।
मार अंगरेजन, रेज कर देय, मात चंडी।
बचौ नहीं बैरी, बाल-बच्चे संहारिका।
शंकर की रक्षा कर, दास प्रतिपाल कर।
दीन की पुकार सुन, जाय मात हालिका।
खाय लै मलेच्छन को, देर नहीं करौ माता।
भच्छन का, तत्छन वेग, शत्रुनको कालिका।

दोनों क्रांतिकारियों को तोप से उड़ा देने की सजा पर टिप्पणी करते हुए चार्ल्‍स बाल लिखता है कि 52वीं रेजीमेन्ट लाइन में अंग्रेजों के विरुद्ध उत्पन्न उत्तेजना को खत्म करने/डराने के लिए दोनों को फाँसी देने के स्थान पर तोप से उड़ाया गया। शंकर शाह पर टिप्पणी करते हुए लिखता है कि बूढ़ा आदमी दृढ़ता और उदण्डतापूर्वक तोपों तक चलकर गया। दोनों क्रांतिकारियों को सार्वजिनक तोपों से उड़ाया गया। तोप से उड़ा देने के बाद रानी अधजले अवशेषों को एकत्र कीं। अंग्रेज अपने होठों पर तृप्त प्रतिशोध की मुस्कराहट के साथ यह सब देख रहे थे। तोप से उड़ाते समय वहां उपस्थित एक अंग्रेज अधिकारी लिखता है कि ‘मैं अभी-अभी क्रांतिकारी राजा और उनके पुत्र को तोप से उड़ाये जाने का दृश्य देखकर वापस लौटा हूं। वह एक भयानक दृश्य था, लेकिन वे इससे भी बहुत अधिक बुरी मौत के योग्य थे। यह पता चला है कि पकड़ लिये जाने पर हम सभी को जिन्दा ही भून दिया जाता। जब उन्हें तोप के मुंह पर बांधा जा रहा था तो उन्होंने प्रार्थना की कि भगवान उनके बच्चों की रक्षा करें ताकि वे अंग्रेजों को खत्म कर सकें। डॉ. हीरालाल के अनुसार, रघुनाथ शाह के पुत्र लक्ष्मण शाह थे, जो दमोह जिले (म.प्र.) के सिलापुरी ग्राम में रहने लगे थे। 1919 में रायबहादुर हीरालाल ने जब सिलापरी गांव का भ्रमण किया था, तब लक्ष्मण शाह के दो पुत्र कंकन शाह और खलक शाह अत्यंत दरिद्रता में अपने दिन गुजार रहे थे। 18 सितम्बर को प​ति के बलिदान के बाद उनकी पत्नी रानी फूलकुंवरि ने अंग्रेजों से युद्ध किया। युद्ध के दौरान उन्होंने स्वयं को कटार भोंक लिया, लेकिन अंग्रेजों के हाथ नहीं आईं।

1857 संग्राम में सहभागी अन्‍य क्रांतिकारी व वीरांगनाएँ

शाहजादा फिरोजशाह
बानपुर का राजा मर्दन सिंह
शाहगढ़ का राजा बखतबली
इंदौर का सआदत खां
छतरपुर का देसपत बुंदेला
अजयगढ़ का फरजंद अली
अमझेरा का राजा बख्‍तावर सिंह
दबोह का दौलत सिंह
बिलायाँ का बरजोर सिंह
ग्वालियर का महादेव शास्‍त्री
हिंडोरिया का किशोर सिंह
अंबापानी का आदिल मोहम्‍मद खां
राघोगढ़ का दौलत ठाकुर सिंह
सेंवढ़ा का खलक सिंह दौआ
बड़वानी का ख्‍याजा नायक
भांडेर का उमराव सिंह सूबेदार
बड़वानी का सीताराम कँवर
भोपाल का वारिस मोहम्‍मद खां
1857 संग्राम की अन्‍य घटनाएँ
इंदौर नगर में क्रांति
महू छावनी-क्रांति
धार क्रांति
उत्‍तरी मालवा में संग्राम
पूर्वी मालवा में संग्राम
निमाड़ में भीलों का प्रतिकार आंदोलन
तात्‍या टोपे का मालवा अभियान

1857 के तथ्य – इतिहासकार प्रो. कपिल कुमार की जुबानी

1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश के रिकॉर्ड में अंग्रेजों के विरुद्ध 235 संग्राम हुए, जिनका परिपक्व रूप हमें 1857 में दिखाई देता है। 1857 से पहले किसानों, जनजातियों तथा आम लोगों का अंग्रेजों के विरुद्ध बहुत बड़ा संग्राम हुआ है। हमारे देश की वीरांगनाओं का योगदान है। पचास-पचास महिलाओं को अंग्रेजों ने फाँसी पर लटकाया। उन इलाकों में आज भी उन स्‍थानों व पेड़ों को पूजा जाता है।

मध्यप्रदेश की एक गायिका का नाम भी सामने आता है जो अंग्रेजों के बीच छावनी में नाचने जाती थी, किंतु नाच करने के दौरान अपने सैनिकों को पुड़िया में संदेश पहुंचाया करती थी। एक प्रश्न खड़ा करता हूं कि क्या वास्तव में झांसी की रानी की मृत्यू हुई थी ग्वालियर में, क्योंकि अंग्रेजों को रानी की मौत की खबर सात दिन बाद लगी थी। साथ ही रानी को बचाने में आश्रम के 782 साधुओं ने अपनी जान दी थी। वो कहते हैं कि रानी घायल थी जिसे हमने नाना साहब के पास भेज दिया और जो दूसरी स्त्री थी झलकारी बाई, उनका दाह संस्कार किया गया। अंग्रेजों को बताया गया कि झांसी की रानी मर गयी हैं। और फिर उसकी अस्थियों को दिखा दिया गया। जिससे लगता है कि झांसी की रानी की मौत नहीं हुई। लेकिन इस पर अभी शोध बाकी है। तो अभी ऐसा बहुत कुछ है जो इतिहास में जानने योग्य है और हमारे यहां के शोध छात्रों को इस पर काम करना चाहिए।

(1857 से जुड़े यह तथ्‍य सेंटर फॉर सोशल स्‍टडीज, भोपाल से जारी है।)