भारतवर्ष को इस बात को लेकर बार-बार कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है कि क्या यह एक राष्ट्र है या फ़िर विभिन्न भौगोलिक प्रदेशों में वास करते विभिन्न जात-पात के लोगों का बसेरा भर है।जहाँ लोग कई प्रकार की भाषाएं और बोलियां बोलते हैं और अलग-अलग मतों पर चलते हैं?
भारत एक स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र है और इसकी कई समस्याएं हैं।जन-जन को आपस में बांटने वाली ताकते उन्हीं समस्याओं में से एक हैैं। ऐसे में एक बड़ी चुनौती है अनेकता में एकता की भावना को राष्ट्रीय-चरित्र बनाना। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक आम जनता इस बात को समझे और महसूस करे कि यह देश उन सभी का एक स्वदेश है जिसे वे प्यार कर सकते है और जिसकी सेवा कर सकते हैं। यह उन सभी की एक मातृभूमि है और इस सबसे बढ़कर यह कि वे सभी एक ही मिट्टी के बने हैं। पश्चिम के नज़रिए से देखने पर भारत एक महादेश का प्रतिनिधि या कई देशों का समूह है और इसको लेकर विचारकों के अपने-अपने मत हैं।
दूसरी ओर यह भी सच है कि भारत की विशालता और विविधता में उसकी भौगोलिक एकता का नज़रअंदाज़ होना स्वाभाविक है। परंतु सदियों से तमाम विविधताओं के बावजूद भारतवर्ष एकता के सूत्र में पिरोया हुआ है और एक राष्ट्र की परिकल्पना के कण-कण में बसे होने के कई प्रमाण भी हैं।
जैसा कि श्री लीली के अनुसार भारत के उत्पादों में वह सब शामिल है जो मानवता की सेवा के लिए आवश्यक है। लेकिन इस भौतिक विविधता से कहीं बढ़कर है यहाँ की मानवीय विविधता जो भारत के अपार जनसमूह में साफ झलकती है।हम समग्रता से अवलोकन करके एवं पैनी नज़र से विविधता के पीछे एक मूलभूत एकता को देख सकते हैं और यह विविधता स्वयं किसी कमज़ोरी नहीं बल्कि शक्ति और संपन्नता का उर्वर स्रोत है।
कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि भारत यह एकता मोटे तौर पर ब्रिटिश शासन की देन है, परन्तु इस मूलभूत एकता का विचार ब्रिटिश शासन से युगों पुराना है।
ऐसे साक्ष्यों का अभाव नहीं जिससे स्पष्ट होता है कि भारतीय धर्म, संस्कृति और सभ्यता के प्रणेता अपनी विशाल जन्मभूमि(मातृराष्ट्र) की भौगोलिक एकता के प्रति पूर्ण सचेत थे और उन्होंने विभिन्न माध्यमों से जनमानस में इस तथ्य का बीजारोपण भी किया।
एकता के इस ज्ञान की पहली अभिव्यक्ति है-राष्ट्र के रूप में नाम “भारतवर्ष।” जो अपने नाम के माध्यम से समृद्ध विविधता पर एक नई सांस्कृतिक एकता कायम करता है। इसी प्रकार ऋग्वेद की नदी केंद्रित ऋचा भारत की मूलभूत भौगोलिक एकता को स्वीकारती है और एक सर्वमान्य नाम आर्यावर्त भी देती है।
हमारे यहाँ सात पवित्र स्थान माने जाते हैं-अयोध्या, मथुरा, माया(हरिद्वार), काशी(बनारस), कांची , अवंति(उज्जैन) औऱ द्वारिका। यह केवल सात पवित्र स्थान नहीं अपितु पूरे भारतवर्ष का समावेश है।
भारत के चार सर्वाधिक प्रशस्त तीर्थस्थानों की स्थापना शंकराचार्य ने देश के चार सुदूर स्थानों पर की ताकि लोग पूरे देश को जान सके और पूरा क्षेत्र पवित्र माना जाए। जिन चार मठों की स्थापना की गई-ये हैं उत्तर में जोतिर्मठ, पश्चिम में शारदामठ, दक्षिण में श्रृंगेरीमठ और पूर्व में गोवर्द्धनमठ।
ठीक इसी प्रकार से चार अत्यंत पवित्र स्थान-प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुंभ और महाकुंभ भी हमारी मूलभूत एकता और मूल तत्व भाव को और अधिक मजबूती प्रदान करते हैं।
हम सब भारत को माँ और स्वर्ग से भी बढ़कर मानते हैं। यहाँ धार्मिक एवं पवित स्थानों का एक अंतर्जाल है जो भारत भूमि के विशेष और पृथक करने वाले गुणों में एक है। यहाँ की तीर्थयात्रा की परंपरा अपने आप में पूरी तरह मातृभूमि के लिए प्रेम की अभिव्यक्ति है। राष्ट्रपूजा का एक स्वरूप है धार्मिक भावना को प्रबल बनाता है और भौगोलिक ज्ञान को विस्तृत।
तीर्थयात्रा के पीछे धर्मिक आस्था एवं पवित्रता के साथ-साथ स्थान की सुंदरता और कला को निहारने-सराहने और यहाँ तक कि भौगोलिक महत्व को समझने का लक्ष्य है। उत्तर में बनारस और दक्षिण में कांचीवरम लोग इसलिए जाते और पूजते हैं क्योंकि दोनों वास्तुकला के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण नगरी हैं।
इस प्रकार हम कह सकते हैं तीर्थयात्रा की पंरपरा लोगों में भौगोलिक चेतना के विकास का सबसे शक्तिशाली माध्यम रहा है। भारत में पर्यटन एक राष्ट्रीय गुण है जो क्या बूढ़े और क्या जवान यह सभी में पाये जाते हैं।
इसीकारण देश के विभिन्न कोनों के लोग परस्पर संपर्क में आए और विकसित हुई एक समग्र राष्ट्र की भावना। इसने प्रांतीयता और क्षेत्रीयता की भावना को नहीं पनपने दिया जो एक शक्तिशाली मातृभूमि के विचार में बाधक होती है।
भारत में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं, चंद्रगुप्त के दिनों भी भारत ने खुद को एक राजनीतिक इकाई के रूप में साकार किया था जैसे प्रकृति ने पहले ही उसे भौगोलिक इकाई के रूप में संगठित कर दिया था। आरंभिक हिन्दू इतिहास साफ तौर पर यह प्रदर्शित करता है कि प्राचीन काल से ही लोगों की चेतना में संपूर्ण भारत एक इकाई के रूप में बसी थी। लोगों ने पूरे क्षेत्र को इसकी गतिविधियों के मंच के रूप में आत्मसात कर लिया था।
मानवता के चिंतन में भारतीय चिंतन के विकास का खास स्थान है। मानवता के इतिहास में भारतीय जीवन को खास भूमिका निभानी है। भारतीय योगदान के बिना मानव संस्कृति एवं विपन्न रह जाएगी। दुनिया को भारत की जरूरत है, एक जीवंत नवभारत की, उसकी ताक़त की और उसके संदेश की जरूरत है।
दुनिया को भारत का तोहफा साम्रज्य के एक न्यायसंगत तानाबाना का है। एक ऐसी राष्ट्रीयता का जिसकी नींव मनुष्य और मनुष्य के बीच तथा मनुष्य एवं हरेक सजीव के बीच सार्वभौमिक शांति(अहिंसा) पर आधारित है।
अतः आज आवश्यकता है भारत के मूलभूत एकता के विभिन्न प्रमाणों को समझने की और विविधता में एकता स्थापित करने की जिसका मूल आधार संस्कृति एवं आध्यात्म है। इसी के द्वारा हम अपने एक भारत को सर्वश्रेष्ठ भारत बना सकते हैं।।
हमारे शास्त्रों में सत्य ही कहा गया है-“जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”(माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी महान है)
(लेख के मुख्य अंश श्री राधाकुमुद मुखर्जी की पुस्तक “Fundamental Unity Of India” से हैं)